Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[जीवाजीवाभिगमसूत्र
१४ ]
१५. अनेकसिद्ध।
१. तीर्थसिद्ध - जिसके अवलम्बन से संसार सागर तिरा जाय, वह तीर्थ है । इस अर्थ में तीर्थंकर परमात्मा के द्वारा प्ररूपित प्रवचन और उनके द्वारा स्थापित चतुर्विध श्रमणसंघ तीर्थ है। प्रथम गणधर भी तीर्थ है।' तीर्थंकर द्वारा प्रवचनरूप एवं चतुर्विध श्रमणसंघरूप तीर्थ की स्थापना किये जाने के पश्चात् जो सिद्ध होते हैं, वे तीर्थसिद्ध कहलाते हैं । यथा, गौतम, सुधर्मा, जम्बू आदि ।
२. अतीर्थसिद्ध-तीर्थ की स्थापना से पूर्व अथवा तीर्थ के विच्छेद हो जाने के बाद जो जीव सिद्ध होते हैं, वे अतीर्थसिद्ध हैं। जैसे मरुदेवी माता भगवान् ऋषभदेव द्वारा तीर्थस्थापना के पूर्व सिद्ध हुई । सुविधिनाथ आदि तीर्थंकरों के बीच के समय में तीर्थ का विच्छेद हो गया था । उस समय जातिस्मरणादि ज्ञान से मोक्षमार्ग को प्राप्त कर जो जीव सिद्धगति को प्राप्त हुए, वे अतीर्थसिद्ध हैं।
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३. तीर्थंकरसिद्ध - जो तीर्थ स्थापना करके सिद्ध हुए वे तीर्थंकरसिद्ध हैं । जैसे- इस अवसर्पिणी काल में ऋषभदेव से लगाकर महावीर स्वामी तक चौबीस तीर्थंकर, तीर्थंकरसिद्ध हैं।
४. अतीर्थंकरसिद्ध - जो सामान्य केवली होकर सिद्ध होते हैं, वे अतीर्थंकरसिद्ध हैं । जैसे- समान्य केवली ।
५. स्वयंबुद्धसिद्ध-जो दूसरे के उपदेश के बिना स्वयं ही जातिस्मरणादि ज्ञान से बोध पाकर सिद्ध होते हैं । यथा - नमिराजर्षि ।
६. प्रत्येकबुद्धसिद्ध-जो किसी भी बाह्य निमित्त को देखकर स्वयमेव प्रतिबोध पाकर सिद्ध हैं, वे प्रत्येकबुद्धसिद्ध हैं । यथा - करकण्डु आदि ।
यद्यपि स्वयंबुद्ध और प्रत्येकबुद्ध दोनों ही परोपदेश के बिना ही प्रतिबोध पाते हैं, तथापि इनमें बाह्यनिमित्त को लेकर अन्तर है। स्वयंबुद्ध किसी बाह्य निमित्त के बिना ही प्रतिबोध पाते हैं, जबकि प्रत्येकबुद्ध वृषभ, मेघ, वृक्ष आदि बाह्य निमित्त को देखकर प्रतिबुद्ध होते हैं ।
स्वयंबुद्ध और प्रत्येकबुद्ध में उपधि, श्रुत और लिंग की अपेक्षा से भी भेद है। वैसे स्वयंबुद्ध दो प्रकार के होते हैं - तीर्थंकर और तीर्थंकर से भिन्न । तीर्थंकर तो तीर्थंकरसिद्ध में आ जाते हैं अतः यहाँ तीर्थंकर भिन्न स्वयंबुद्धों का अधिकार समझना चाहिए।
१. तित्थं पुण चाउव्वणो समणसंघो पढमगणहरो वा ।
२. पत्तेयं-बाह्यवृषभादिकं कारणमभिसमीक्ष्य बुद्धा; वहिष्प्रत्ययं प्रतिबुद्धानां च पत्तेयं नियमा विहारो जम्हा तम्हा ते पत्तेय बुद्धा । ३. पत्तेयबुद्धाणं जहन्त्रेण दुविहो उक्कोसेण नवविहो नियमा उवही पाउरणवज्जो भवइ ।
सयंबुद्धस्स पुव्वाहीयं सुयं से हवइ न वा, जइ से णत्थि तो लिंगं नियमा गुरुसन्निहे पडिवज्जइ, जइ य एगविहारविहरणसमत्थो इच्छा वा से तो एक्को चेव विहरइ, अन्नहा गच्छे विहरइ ।
पत्यबुद्धाणं पुष्वाहीयं सुयं नियमा होइ, जहन्नेण इक्कारस अंगा उक्कोसेण भिन्नदसपुव्वा । लिंगं च से देवया पयच्छइ, लिंगवज्जिओ
वा हवइ ।