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अावश्यक दिग्दर्शन
काठ के पिजरे में बंद पशु की तरह गुजारनी पडी। न समय पर भोजनका पता था और न पानी का ! और अन्त में जहर खाकर मृत्यु का स्वागत करना पड़ा। क्या यही है पुत्रों और पौत्रों की गौरवशालिनी परंपरा ? क्या यह सब मनुष्य के लिए अभिमान की वस्तु है ? मै नहीं समझता, यदि परिवार की एक लम्बी चौड़ी सेना इकट्ठी भी हो जाती है तो इससे मनुष्य को कौनसे चार चाँद लग जाते हैं ? वैज्ञानिक क्षेत्र मे एक ऐसा कीटाणु परिचय में पाया है, जो एक मिनट में दश करोड़ अरब सन्तान पैदा कर देता है। क्या इसमे कीटाणु का कोई गौरव है, महत्त्व है ? वह मनुष्य ही क्या, जो कीटाणुओं की तरह सन्तति प्रजनन में ही अपना रिकार्ड कायम कर रहा है। प्राचार्य सिद्धसेन दिवाकर से सम्राट विक्रमादित्य ने यह पूछा कि "आप जैन भिन्तु अपने नमस्कार करने वाले भक्त को धर्म वृद्धि के रूप में प्रतिवचन देते हैं, अन्य साधुओं की तरह पुत्रादि प्राप्ति का आशीर्वाद क्यो नही देते ?” आचार्य श्री ने उत्तर में कहा कि “राजन् ! मानव जीवन के उत्थान के लिए एक धर्म को ही हम महत्त्वपूर्ण साधन समझते हैं, अतः उसी की वृद्धि के लिए प्रेरणा देते हैं । पुत्रादि कौनसी महत्त्वपूर्ण वस्तु है ? वे तो मुर्गे, कुत्ते और सूअरों को भी बडी संख्या में प्राप्त हो जाते हैं । क्या वे पुत्रहीन मनुष्य से अधिक भाग्यशाली हैं ? मनुष्य जीवन का महत्त्व बच्चे-बच्चियो के पैदा करने मे नहीं है, जिसके लिए हम भिक्षु भी प्राशीर्वाद देते फिरें ।" 'सन्तानाय च पुत्रवान् भव पुनस्तत्कुक्कुटानामपि ।'
मनुष्य जाति का एक बहुत बडा वर्ग धन को ही बहुत अधिक महत्त्व देता है। उसका सोचना-समझना, बोलना-चालना, लिखनापढना सब कुछ धन के लिए ही होता है । वह दिन-रात सोते-जागते धन का ही स्वप्न देखता है। न्याय हो, अन्याय हो, धर्म हो, पाप हो, कुछ भी हो, उसे इन सव से कुछ मतलब नहीं। उसे मतलब है एकमात्र धन से। धन मिलना चाहिए, फिर भले ही वह छल-कपट से मिले, चोरी से मिले, विश्वासघान से मिले, देश-द्रोह से मिले या भाई