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- प्रति क्रमण आवश्यक
१२१ पडिसिद्धाणं करणे,
किच्चाणमकरणे पडिक्कमणं । असदहणे य तहा,
विवरीयपरूवणाए अ॥ १२६८॥ सामान्यरूप से प्रतिक्रमण दो प्रकार का है-द्रव्य प्रतिक्रमण और भाव प्रतिक्रमण | मुमुक्षु साधकों के लिए भाव प्रतिक्रमण ही उपादेय है, द्रव्य प्रतिक्रमण नहीं । उपयोग शून्य प्रतिक्रमण, द्रव्य प्रतिक्रमण है । इसी प्रकार केवल यश आदि के लिए दिखावे के रूप में किया जाने वाला प्रतिक्रमण भी द्रव्य प्रतिक्रमण ही है। दोषों का एक बार प्रतिक्रमण करने के बाद पुनः-पुनः उन दोषों का सेवन करना और फिर उन दोषों की शुद्धि के लिए बराबर प्रतिक्रमण करते रहना, यथार्थ
प्रतिक्रमण नहीं माना जाता । इस प्रकार के प्रतिक्रमण से आत्म-शुद्धि • होने के बदले धृष्टता द्वारा दोषों की वृद्धि ही होती है, न्यूनता नहीं।
जो साधक बार-बार दोष सेवन करते हैं और फिर बार-बार उनका प्रतिक्रमण करते हैं, उनकी स्थिति ठीक उस तुल्लक साधू जैसी हैजो कंकर का निशाना मार कर बार बार कुम्हार के चाक से उतरते हुए कच्चे बर्तनों को फोडता था और कुम्हार के कहने पर बार-बार 'मिच्छामि दुक्कड़' कह कर क्षमा मॉग लेता था। अस्तु, सयम मे लगे हुए दोषों की सरल भावो से प्रतिक्रमण द्वारा शुद्धि करना, और भविष्य में उन दोपों का सेवन न करने के लिए सतत जागरूक रहना ही प्रतिक्रमण का वास्तविक उद्देश्य है । प्रतिक्रमण का अर्थ है पापों से भीति रखना। यदि पापों से डर ही नहीं हुआ, आत्मा पहले की भाँति ही स्वच्छन्द दोषो की ओर प्रधावित होता रहा तो फिर वह प्रतिक्रमण ही क्या हुआ ? भावप्रतिक्रमण त्रिविधं त्रिविधेन होता है, अतः उसमे दोष-प्रवेश के लिए अणुमात्र भी अवकाश नहीं रहता । पापाचरण का सर्वथा भावेन प्रायश्चित हो जाता है, और आत्मा पुनः अपनी शुद्ध स्थिति में पहुंच जाता है । भाव प्रतिक्रमण के लिए