Book Title: Aavashyak Digdarshan
Author(s): Amarchand Maharaj
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 209
________________ : प्रश्नोत्तरी २०७ प्रत्याख्यान ग्रहण कर लेना चाहिए। यह प्राचीनकाल की परंपरा है। परन्तु आजकल सूर्य के अस्त होने पर प्रतिक्रमण की आज्ञा ली जाती है । जहाँ तक मैं समझता हूँ इसका कारण सन्ध्या समय के आहार की प्रथा है। उत्तराध्ययन सूत्र आदि के अनुसार जबतक साधु-जीवन मे दिन के तीसरे पहर मे केवल एक बार अाहार करने की परंपरा रही, तबतक तो वह प्राचीन काल मर्यादा निभती रही, परन्तु ज्यों ही शाम को दुबारा आहार का प्रारम हुआ तो प्रतिक्रमण की कालसीमा यागे बढी और वह सूर्यास्त पर पहुंच गई । समाप्ति का स्थान प्रारंभ ने ले लिया । प्रातःकाल के प्रतिक्रमण का समय भी रात्रि के चौथे पहर का चोथा भाग ही बताया है। सूर्योदय के समय प्रत्याख्यान ग्रहण कर लेना चाहिए । प्रातःकाल की परंपरा आज भी गायः उसी भॉति चल रही है। . क्या प्रातःकाल के समान देवसिक प्रतिक्रमण का भी अपना वह पुराना कालमान अपनाया जायगा ? क्यों नहीं, यदि सायकालीन,आहार के सम्बन्ध में कोई उचित निर्णय हो जाय तो। प्रश्न आवश्यक सूत्र-पाठ का निर्माणकाल क्या है ? वर्तमान अागम साहित्य में इसका क्या स्थान है ? इसके रचयिता कौन हैं ? उत्तर---यह प्रश्न बहुत गंभीर है। इस पर मुझ जैमा लेखक स्पष्टतः 'हॉ या ना कुछ नहीं कह सकता । फिर भी कुछ विचार उपस्थित किए जाते हैं। जैन श्रागम साहित्य को दो भागों में बाँटा गया है-अंग प्रविष्ट और अग बाह्य । अङ्ग प्रविष्ट के श्राचारांग, सूत्रकृतांग श्रादि बारह भेद हैं। अङ्ग बाह्य के मूल में दो भेद हैं श्रावश्यक और आवश्यकव्यतिरिक्त आवश्यक के सामायिक, चतुर्विशतिस्तव आदि छह भेद हैं, और श्रावश्यक व्यतिरिक्त के दशवकालिक, उत्तराध्ययन श्रादि अनेक भेद हैं। यह विभाग नन्दी-सूत्र के श्रु ताधिकार मे आज भी देखा जा सक्ता है। १. देखिए, उत्तराध्ययन २६ । ४६ ।

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