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प्रश्नोत्तरी--
२११० बहुत बडा महत्त्व है । उपयोग शून्य प्रविधि से की जाने वाली साधना केवल द्रव्य साधना है, वह अन्तहृदय में ज्ञानज्योति नहीं जगा सकती ! प्राचार्य हरिभद्र के शब्दों में इस प्रकार की उपयोगशून्य साधना केवल कायचेप्टा रूप है, अतः कायवासित एवं वागवासित है। जब तक साधना मनोवासित न हो, तब तक कुछ भी अच्छा परिणाम नहीं श्राता है। अच्छा परिणाम क्या, बुरा परिणाम ही आता है । मुख से पाठों को दुहराना, परन्तु तदनुसार आचरण न करना, यह तो स्पष्टतः मृषावाद है । और यह मृषावाद विपरीत फल देने वाला है । ___ कुछ लोग प्रविधि एवं अशुद्ध विधि के समर्थन में कहते हैं कि जैसा चलता है चलने दो ! न करने से कुछ करना अच्छा है। शुद्ध विधि के आग्रह में रहने से शुद्ध क्रिया का होना तो दुर्लभ है ही,
और इधर थोडी बहुत अंशुद्ध क्रिया चलती रहती है, वह भी छूट जायगी। और इस प्रकार प्राचीन धर्म परम्परा का लोप ही हो जायगा ।
इसके उत्तर में कहना है कि धर्म परम्परा यदि शुद्ध है तब तो वह धर्म परम्परा है । यदि उपयोग शून्य भारस्वरूप अशुद्ध क्रिया को ही धर्म कहा जाता है, तब तो अनर्थ ही है। अशुद्ध परम्परा को चालू रखने से शास्त्र विरुद्ध विधान को बल मिलता है, और इसका यह परिणाम होता है कि आज एक अंशुद्ध क्रिया चल रही है तो कल दूसरी अशुद्ध क्रिया चल पड़ेगी! परसों कुछ और ही गडबड हो जायगी। और इस प्रकार गन्दगी घटने की अपेक्षा निरन्तर बढ़ती जायगी, जो एक दिन सारे समाज को ही विकृत कर देगी। अस्तु साधक १-इहरा उ कायवासियपाय,
अहवा महामुसावाओ । ता अणुरुवाणं चिय, कायव्वो एस विन्नासो।।
-योगविंशिका १२!