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प्रश्नोत्तरी उनका उल्लेख है। परन्तु वह उल्लेख देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण के समय . में एक सूत्र के विस्तृत लेख को दूसरे सूत्र के आधार पर संक्षिप्त कर देने के विचार से हुआ है । वह उल्लेख गणधरकृत कदापि नही है । पण्डित सुखलालजीने आवश्यक की ऐतिहासिकता पर काफी सुन्दर एवं विस्तृत चर्चा की है । परन्तु यह चर्चा अभी और गम्भीर चिन्तन की अपेक्षा रखती है।
पाठक एक प्रश्न और कर सकते हैं कि आवश्यक सूत्रपाठ के निर्माण से पहले साधक श्रावश्यक क्रिया कैसे करते होंगे? प्रतिक्रमण श्रादि की क्या स्थिति होगी ? उत्तर में निवेदन है कि नवकार मन्त्र, सामायिक सूत्र' प्रादि कुछ पाठ तो अतीव प्राचीन काल से प्रचलित श्रा रहे थे । रहे शेष पाठ, सो पहले उनका अर्थरूप में चिन्तन किया जाता रहा होगा। बाद मे जन साधारण की कल्याण भावना से प्रेरित होकर उन पूर्व प्रचलित भावो को ही स्थविरों ने सूत्र का व्यवस्थित रूप दे दिया होगा। इस सम्बन्ध में लेखक अभी निश्चयपूर्वक कुछ कहने की स्थिति में नहीं है | अलम् ।
प्रश्न-क्या जैन धर्म के समान अन्य धर्मों में भी प्रतिक्रमण का विधान है।
उत्तर-जैन धर्म में तो प्रतिक्रमण की एक महत्त्व पूर्ण एवं व्यवस्थित साधना है । इस प्रकार का व्यवस्थित एवं विधानात्मक रूप तो अन्यत्र नहीं है। परन्तु प्रतिक्रमण की मूल भावना की कुछ झलक अवश्य यत्र तत्र मिलती है।
बौद्ध धर्म में कहा है
"पाणातिपाता वेरमणि सिक्खापदं समादियामि । दिन्नादाना वेरमणि सिक्खापदं समादियामि । कामेसु मिच्छाचारा वेरमणि
१-सामायिक सूत्र की प्राचीनता के लिए अन्तकृदशांग आदि प्राचीन सूत्रों में एवं भगवान् नेमिकालीन प्राचीन मुनियों के लिए यह पाठ आया है कि सामाइयमाझ्याई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ ।'