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प्रश्नोत्तरी
२१३ है, जो साधना करते हैं, असफल होते हैं, और फिर साधना करते हैं। इस प्रकार निरन्तर भूलों एवं असफलताओं से संघर्ष करते हुए जागृत चेतना के सहारे एक दिन अवश्य ही सफलता प्राप्त करते हैं । इसी प्रकार के साधकों को लक्ष्य में रखकर कहा है:अविहिकया चरमकयं,
उस्सुय-सुतं भणंति गीयत्था। - पायच्छित्तं जम्हा,
अकए गुरुयं कए लहुयं ॥ -अविधि से करने की अपेक्षा न करना अच्छा है, यह उत्सूत्र वचन है। क्योंकि धर्मानुष्ठान न करने वाले को गुरु प्रायश्चित आता है, और धर्मानुष्ठान करते हुए यदि कहीं प्रमादवश अनिधि हो जाय तो लघुत्रायश्चित्त होता है।
प्रश्न-जो गृहस्थ देश विरति के रूप में किसी व्रत के धारक नहीं हैं, उनको प्रतिक्रमण करना चाहिए, या नही ? जब व्रत ही नही है तो उनकी शुद्धि के लिए प्रतिक्रमण की क्या आवश्यकता है?
उत्तर-व्रत हो, या न हो, फिर भी प्रतिक्रमण करणीय है। जिसको व्रत नहीं है, वह भी प्रतिक्रमण के लिए सामायिक करेगा, चतुर्वि शतिस्तव एव वन्दना, क्षमापना आदि करेगा तो उसको भाव विशुद्धि के द्वारा कर्मनिर्जरा होगी। और दूसरी बात यह है कि प्रतिक्रमण मिथ्या श्रद्वान और विपरीत प्ररूपणा का भी होता है । अतः सम्यक्त्व- शुद्धि का प्रतिक्रमण भी जीवन-शुद्धि के लिए आवश्यक है।
प्रश्न-प्रतिक्रमण किस दिशा की ओर मुख करके करना चाहिए ।
उत्तर---पागम साहित्य मे पूर्व और उत्तर दिशा की ओर मुख • करके प्रतिक्रमण करने का विधान है। पश्चात्कालीन प्राचार्य भी यहो
परम्परा मानते रहे हैं, पञ्च वस्तुक में लिखा है-'पुत्वाभि मुहा उत्तर मुहा य श्रावस्सय पात्रंति ।' पूर्व और उत्तर दिशा का वैज्ञानिक दृष्टि से क्या महत्व है, यह लेखक के सामायिक सूत्र में देखना चाहिए ।