Book Title: Aavashyak Digdarshan
Author(s): Amarchand Maharaj
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . सन्मति साहित्य-रन-माला का १६ वाँ रत आवश्यक-दिग्दर्शन लेखकः उपाध्याय पं० मुनि श्री अमरचन्द्रजी महाराज स. मति ज्ञान - पीठ, आ गरा Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिकसन्मति ज्ञान पीठ लोहामण्डी भाग प्रथम प्रवेश सं० २००४ मूल्यः ॥) मुद्रकअगदीशप्रसाद अग्रवाल एम.ए. बी० मॉम, दी एज्यूकेशनल अंस, भागर Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक-दिग्दर्शन Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव-जीवन का महत्व जब हम अपनी बॉर्खे खोलते हैं और इधर-उधर देखने का प्रयत्न करते हैं तो हमारे चारो ओर एक विराट संसार फैला दिखलाई पडता है । बड़े-बडे नगर बसे हुए हैं और उनमें खासा अच्छा तूफान जीवनसंघर्ष के नाम पर चलता रहता है । दूर-दूर तक विशाल जंगल और मैदान हैं, जिनमे हजारो-लाखो वन्य पशु पक्षी अपने तुद्र जीवन की मोह-माया में उलझे रहते हैं । ऊँचे-ऊँचे पहाड हैं, नदी नाले हैं, झील है, समुद्र हैं, सर्वत्र असंख्य जीव-जन्तु अपनी जीवन यात्रा की दौड लगा रहे हैं । ऊपर आकाश की ओर देखते हैं तो वहाँ भी सूर्य, चन्द्र नक्षत्र और तारो का उज्ज्वल चमकता हुया संसार दिन-रात अविराम गति से उदय-अस्त की परिक्रमा देने मे लगा हुआ है। यह संसार इतना ही नहीं है, जितना कि हम ऑखो से देख रहे हैं या इधर-उधर कानों से सुन रहे हैं। हमारे ऑख, कान, नाक, जीभ और चमडे की जानकारी सीमित है, अत्यन्त सीमित है। आखिर हमारी इन्द्रियाँ क्या कुछ जान सक्ती हैं ! जब हम शास्त्रों को उठाकर देखते है तो आश्चर्य मे रह जाते हैं । असंख्य द्वीप समुद्र, असंख्य नारक और असंख्य देवी देवताओं का ससार हम कहाँ खो से देख पाते हैं ? उनका पता तो शास्त्र द्वारा ही लगता है। अहो कितनी बडी है यह दुनिया! Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक दिग्दर्शन हमारे कोटि-कोटि बार अभिवन्दनीय देवाधिदेव भगवान् महावीर स्वामी ने, देखिए, विश्व की विराटता का कितना सुन्दर चित्र उपस्थित किया है ? गौतम पूछते हैं-"भन्ते ! यह लोक कितना विशाल है ?" भगवान् उत्तर देते हैं-"गौतम ! असंख्यात कोडा-कोडी योजन पूर्व दिशा में, असंख्यात कोडा-कोडी योजन पश्चिम दिशा मे, हसी प्रकार असंख्यातं कोडा-कोडी योजन दक्षिण, उत्तर, ऊर्ध्व और अधोदिशा में लोक का विस्तार है ।" -भगवती १२, ७, सू० ४५७ ॥ गौतम प्रश्न करते हैं- भंते ! यह लोक कितना बड़ा है ?" भगवान् समाधान करते है--"गौतम ! लॉक की विशालता को समझने के लिए कल्पना करो कि एक लाख योजन के ऊँचे मेरु पर्वत के शिखर पर छः महान् शक्तिशाली ऋद्धिसंपन्न देवता बैठे हुए हैं और नीचे भूतल पर चार दिशाकुमारिकाएँ हाथों में बलिपिंड लिए चार दिशात्रों मे खडी हुई है, जिनकी पीठ मेरु की ओर है एवं मुख दिशात्रो की ओर " -"उक्त चारो दिशाकुमारिकाएँ इधर अपने बलिपिडों को अपनीअपनी दिशात्रों में एक साथ फेकती हैं और उधर उन मेरुशिखरस्थ छ: देवताओं में से एक देवता तत्काल दौड़ लगाकर चारों ही बलिपिंडों को भूमि पर गिरने से पहले ही पकड लेता है। इस प्रकार शीघ्रगति वाले वे छही देवता है, एक ही नहीं।" ---"उपर्युक्त शीघ्र गति वाले छही देवता एक दिन लोक का अन्त मालूम करने के लिये क्रमशः छहो दिशाओं में चल पड़े। एक पूर्व की श्रोर तो एक पश्चिम की ओर, एक दक्षिण की ओर तो एक उत्तर की श्रीर, एक ऊपर की ओर तो एक नीचे की ओर । अपनी पूरी गति से एक पल का भी विश्राम लिए बिना दिन-रात चलते रहे, चलने क्या उडते रहे " Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव जीवन का महत्त्व '-"जिस पण देवता मेरुशिखर से उड़े, कल्पना करो, उसी क्षण किसी गृहस्थ के यहाँ एक हजार वर्ष की आयु वाला पुत्र उत्पन्न हुआ। कुछ वर्ष पश्चात् माता-पिता परलोकवासी हुए । 'पुत्र बडा हुआ और उसका विवाह होंगया। वृद्धावस्था में उसके भी पुत्र हुआ और बूढा हजार वर्ष की आयु पूरी करके चल बसा . गौतम स्वामी ने बीच में ही तर्क किया--"भन्ते ! वे देवता, जो यथाकथित शीघ्र गति से लोक का अन्त लेने के लिए निरन्तर दौड़ लगा रहे थे, हजार वर्ष मे क्या लोक के छोर तक पहुंच गए ?" भगवान् महावीर ने वस्तुस्थिति की गम्भीरता पर बल देते हुए कहा-"गौतम, अभी कहाँ पहुँचे हैं ? इसके बाद तो उसका पुत्र, फिर उसका पुत्र, फिर उसका भी पुत्र, इस प्रकार एक के बाद एकएक हजार वर्ष की आयु वाली सात पीढ़ी गुजर जायँ, इतना ही नहीं, उनके नाम गोत्र' भी विस्मृति के गर्भ में विलीन हो जाय, तब तक वे देवता चलते रहे. फिर भी लोक का अन्त नहीं प्राप्त कर सकते। इतना महान् और विराट् है यह ससार ।' -भगवती ११, २०, सू० ४२१ । जैन साहित्य मे विश्व की विराटता के लिए चौदह राजु की भी एक मान्यता है । मूल चौदहराजु और वर्ग कल्पना के अनुसार तीन सौ से कुछ अधिक राजु का यह संसार माना जाता है । एक व्याख्याकार राजु का परिमाण बताते हुए कहते हैं कि कोटिमण लोहे का गोला यदि ऊँचे आकाश से छोडा जाय और वह दिन रात अविराम गति से नीचे गिरता-गिरता छह मास में जितना लम्बा मार्ग तय करे, वह एक राजु की विशालता का परिमाण है। विश्व की विराटता का अब तक जो वर्णन आपने पढ़ा है, सम्भव है, श्रापकी कल्पना शक्ति को स्पर्श न कर सके और आप यह कह कर अपनी बुद्धि को सन्तोष देना चाहें 'कि-'यह सब पुरानी गाथा है, किवदन्ती है । इसके पीछे वैज्ञानिक विचार धारा का कोई आधार नहीं Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावश्यक दिग्दर्शन है।' आज का युग-विज्ञान का प्रतिनिधित्व करता है, फलतः एसा सोचना और कहना, अपने श्राप में कोई बुरी बात भी नहीं है। अच्छा तो आइए, जरा विज्ञान की पोथियो के भी कुछ पन्ने उलट लें। सुप्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक डॉ. गोरखनाथ का सौरपरिवार नामक भीमकाय ग्रन्थ लेखक के सामने है । पुस्तक का पाँचवाँ अध्याय खुला हुया है और उसमें सूर्य की दूरी के सम्बन्ध में जो ज्ञानवर्द्धक एवं साथ ही मनोरंजक वर्णन है, वह आपके सामने है, जरा धर्य के साथ पढने का कष्ट उठाएँ। -"पता चला है कि सूर्य हमसे लगभग सवा नौ करोड़ मील की विकट दूरी पर है । सवा नौ करोड ! अंक गणित भी क्या ही विचित्र है कि इतनी बड़ी संख्या को पाठ ही अको में लिख डालता है और इस प्रकार हमारी कल्पना शक्ति को भ्रम में डाल देता है। [अंक गणित का इतना विकाश न होता तो ग्राप एक, दो, तीन, चार, यादि के रूप में गिनकर इस तथ्य को समझते । परन्तु विचार कीजिए कि सवा नौ करोड तक गिनने में आपका कितना समय लगता ?-लेखक ] यदि श्राप बहुत शीघ्र गिने तो शायद एक मिनट मे २०० तक गिन डाले, परन्तु इसी गति से लगातार, विना एक क्षण भोजन या सोने के लिये रुके हुए गिनते रहने पर भी आप को सवा नौ करोड तक गिनने में ११ महीना लग जायगा।" [हाँ तो पाइए, जरा डाक्टर साहब की इधर-उधर की बातों में न जाकर सीधा सूर्य की दूरी का परिमाण मालूम करें-लेखक ] "यदि हम रेलगाडी से सूर्य तक जाना चाहें और यह गाडी बिना रुके हुए अरावर डाकगाडी की तरह ६० मील प्रति घन्टे के हिसाब से चलती जाय तो हम वहाँ तक पहुँचने में १७५ वर्ष से कम नहीं लगेगा । १३ पाई प्रति मील के हिसाब से तीसरे दरजे के याने जाने का खर्च सत्र सात लाख रुपया हो जायगा |..."यावाज हवा में प्रति सेविण्ड १, १०० फुट चलती है। यदि यह शुन्य में भी उसी गति से चलती तो Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव जीवन का महत्त्व सूर्य पर घोर शब्द होने से पृथ्वी पर वह चौदह वर्ष बाद सुनाई पडता ।" -सौर परिवार, ५ वाँ अध्याय अकेले सूर्य के सम्बन्ध में ही यह वात नहीं है। वैज्ञानिक और भी बहुत से दिव्य लोक स्वीकार करते हैं और उन सबकी दूरी की कल्पना चक्कर में डाल देने वाली है। वज्ञानिक प्रकाश की गति प्रति सेकिण्ड--- मिनट भी नही-१, ८६००० मील मानते हैं। हॉ, तो वैज्ञानिकों के कुछ दिव्य लोक इतनी दूरी पर हैं कि वहाँ से प्रकाश जैसे शीघ्र-गामी दूत को भी पृथ्वी तक उतरने में हजारों वर्ष लग जाते हैं। अब मैं इस सम्बन्ध में अधिक कुछ न कहूँगा । जिस सम्बन्ध में मुझे कुछ कहना है, उसकी काफी लम्बी चौडी भूमिका बंध चुकी है। आइए, इस महाविश्व मे अब मनुष्य की खोज करें । यह विराट् संसार जीवों से ठसाठस भरा हुआ है । जहाँ देखते हैं, वहाँ जीव ही जीव दृष्टिगोचर होते हैं । भूमण्डल पर कीडे-मकोडे, बिच्छूसॉप, गधे-घोडे आदि विभिन्न आकृति एवं रंग रूपो में कितने कोटि प्राणी चक्कर काट रहे हैं । समुद्रों में कच्छ मच्छ, मगर, घडियाल आदि कितने जलचर जीव अपनी संहार लीला में लगे हुए हैं। आकाश में भी कितने कोटि रंग-विरगे पक्षीगण उडान भर रहे हैं। इनके अतिरिक्त वे असंख्य सूक्ष्म जीव भी हैं, जो वैज्ञानिक भाषा में कीटाणु के नाम से जाने गए हैं, जिनको हमारी ये स्थूल ऑखे स्वतन्त्र रूप में देख भी नही सकती। पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु में असख्य जीवों का एक विराट संसार सोया पडा है। पानी की एक नन्ही सी बूद असंख्य जलकाय जीवों का विश्राम स्थल है । पृथ्वी का एक छोटा-सा रजकण असंख्य पृथ्वीकायिक जीवो का पिंड है। अग्नि और वायु के सूक्ष्म से सूक्ष्म कण भी इसी प्रकार असंख्य जीवराशि से समाविष्ट हैं । वनस्पति काय के सम्बन्ध में तो कहना ही क्या है ? वहाँ तो पनक (काई) आदि निगोद में अनन्त जीवों का संसार मनुष्य के एक श्वास लेने जैसे क्षुद्रकाल में कुछ अधिक सत्तरह बार जन्म, जरा और मरण का खेल Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावश्यक दिग्दर्शन - हाँ, तालाबों के संसार के जीव खेलता रहता है। और वे अनन्त जीव एक ही शरीर में रहते है, फलतः उनका आहार पोर श्वास एक साथ ही होता है ! हाहन्त ! कितनी दयनीय है जीवन की विडंबना ! भगवान महावीर ने इसी विराट जीव राशि को ध्यान में रखकर अपने पावापुर के प्रवचन में कहा है कि सूक्ष्म पॉच स्थावरों से यह असंख्य योजनात्मक विराट संसार (काजल की कुप्पी के समान) ठसाठस भरा हुआ है, कहीं पर अणुमात्र भी ऐसा स्थान नहीं है, जहाँ कोई सूक्ष्म जीव न हो। सम्पूर्ण लोकाकाश सूक्ष्म जीवों से परिव्याप्त है.---'सुहुमा सव्वलोगम्मि --उत्तराध्ययन सूत्र ३६ वॉ अध्ययन। हॉ, तो इस महाकाय विराट ससार में मनुष्य का क्या स्थान है ? अनन्तानन्त जीवों के संसार में मनुष्य एक नन्हे-से क्षेत्र में अवरुद्ध-सा खडा है। जहाँ अन्य जाति के जीव असंख्य तथा अनन्त संख्या में है, वहाँ यह मानव जाति अत्यन्त अल्प एवं सीमित है। जैन शास्त्रकार माता के गर्भ से पैदा होने वाली मानवजाति की संख्या को कुछ अंकों तक ही सीमित मानते हैं। एक कवि एवं दार्शनिक की भाषा में कहें तो विश्व की अनन्तानन्त जीवराशि के सामने मनुष्य की गणना मे या जाने वाली अल्प संख्या उसी प्रकार है कि जि: प्रकार विश्व के नदी नालो एवं समुद्रों के सामने पानी की एक फुहार और संसार के समस्त पहाडी एवं भूपिण्ड के सामने एक जरा-सा धूल का कण ! अाज संसार के दूर-दूर तक के मैदानों में मानवजाति के जाति, देश या धर्म के नाम पर किए गए कल्पित टुकड़ों में संघर्ष छिडा हुया है कि 'हाय हम अलसंख्यक है, हमारा क्या हाल होगा? बहुसंख्यक हमें तो जीवित भी नहीं रहने देंगे। परन्तु ये टुकड़े यह जरा भी नहीं विचार पाते कि विश्व की असंख्य जीव जातियों के समक्ष यदि कोई सचमुच अल्प संख्यक जीवजानि है तो वह मानवजाति है । चौदह राजुलोक में से उसे केवल सब से तुद्र एवं सीमित ढाई द्वीप ही रहने को मिले हैं। क्या समूची मानवजाति अकेले में बैठकर.फभी अपनी अल्पसंख्यकता पर विचार करेगी। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव जीवन को महत्त्व संसार में अनन्तकाल से भटकती हुई कोई आत्मा जब क्रमिक विकाश का मार्ग असनाती है तो वह अनन्त पुण्य कर्म का उदय होने पर निगोद से निकल कर प्रत्येक वनस्पति, पृथ्वी, जल आदि की योनियों में जन्म लेती है। और जब यहाँ भी अनन्त शुभकर्म का उदय होता है तो द्वीन्द्रिय केंचुत्रा आदि के रूप में जन्म होता है। इसी प्रकार त्रीन्द्रिय चीटी आदि, चतुरिन्द्रिय मक्खी मच्छर आदि, पञ्चेन्द्रिय नारक तिर्यच आदि की विभिन्न योनियों को पार करता हुआ, क्रमशः ऊपर उठता हुआ जीव, अनन्त पुण्य वल के प्रभाव से कहीं मनुष्य जन्म ग्रहण करता है। भगवान् महावीर कहते हैं कि जब "अशुभ कर्मों का भार दूर होता है, श्रात्मा शुद्ध, पवित्र और निर्मल बनता है, तब कही वह मनुष्य की सर्वश्रेष्ठ गति को प्राप्त करता है।" कम्माणं तु पहाणाए आणुपुव्वी कयाइ उ । जीवा सोहिमणुष्पत्ता श्राययंति मणुस्सयं ॥ -(उत्तराध्ययन ३ । ७) विश्व में मनुष्य ही सब से थोडी संख्या में है, अतः वही सबसे दुर्लभ भी है, महाघ भी है। व्यापार के क्षेत्र मे यह सर्व साधारण का परखा हुआ सिद्धान्त है कि जो चीज जितनी ही अल्प होगी, वह उतनी ही अधिक मंहगी भी होगी। और फिर मनुष्य तो अल्प भी है और केवल अल्पता के नाते ही नहीं, अपितु गुणों के नाते श्रेष्ठ , भी है। भगवान महावीर ने इसी लिए गौतम को उपदेश देते हुए कहा है"संसारी जीवों को मनुष्य का जन्म चिरकाल तक इधर उधर की अन्य योनियों में भटकने के बाद बड़ी कठिनाई से प्राप्त होता है, वह सहज : नहीं है। दुष्कर्म का फल बड़ा ही भयंकर होता है, अतएव हे गौतम ! क्षण भर के लिए भी प्रमाद मत कर।" Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अावश्यक दिग्दर्शन दुल्लहे. खलु माणुसे भवे, चिर कालेण वि सव्वपाणिर्ण । गादा प विपाग कम्मुणो, समयं गोयम ! मा पमायए।। -(उत्तराध्ययन १०१४) जैन संस्कृति में मानव-जन्म को बहुत ही दुर्लभ एवं महान् माना गया है। मनुष्य जन्म पाना, किस प्रकार दुर्लभ है, इस के लिए जैन संस्कृति के व्याख्यातायो ने दश दृष्टान्तो का निरूपण किया है । सब के सब उदाहरणो के कहने का न यहाँ अवकाश ही है और न औचित्य ही । वस्तु-स्थिति की स्पष्टता के लिए कुछ बातें आपके सामने रक्खी जा रही हैं, प्राशा है, आप जैसे जिज्ञासु इन्ही के द्वारा मानवजीवन का महत्त्व समझ सकेगे। . "कल्पना करो कि भारत वर्ष के जितने भी छोटे बड़े धान्य हो, उन सब को एक देवता किसी स्थान-विशेष पर यदि इकट्ठा करे, पहाड़ जितना ऊँचा गगन चुम्बी ढेर लगा दे। श्रोर उस ढेर में एक मेर सरसो मिलादे, खूब अच्छी तरह उथल-पुथल कर । सो वर्ष की बुढिया, जिसके हाथ कॉपते हो, गर्दन कॉपती हो, और अॉखो से भी कम दीखता हो ! उम को छाज देकर कहा जाय कि 'इस धान्य के ढेर में से सेर भर मरमो निकाल दो। क्या वह बुढिया सरसों का एक-एक दाना बीन कर पुनः सेर भर सरसों का अलग ढेर निकाल सकती है? पार को असंभव मालूम होता है। परन्तु यह सब तो किसी तरह देवशक्ति आदि के द्वारा संभव भी हो सकता है, परन्तु एक बार मनुष्यजन्म पाकर खो देने के बाद पुनः उसे प्राप्त करना सहज नहीं है।" "एक बहुत लम्बा चौडा जलाशय था, जो हजारों वर्षों से शैवाल (काई) की मोटी तह से आच्छादित रहता धाया था। एक कटुवा अपने परिवार के साथ जब से जन्मा, तभी से शेवाल के नीचे अन्यतर Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m मानव जीवन का महत्त्व __ में ही जीवन गुजार रहा था। उसे पता ही न था कि कोई और भी दुनिया हो सकती है। एक दिन बहुत भयंकर तेज अंधड चला और उस शैवाल मे एक जगह जरा-सा छेद हो गया। देवयोग से वह कछुवा उस समय वही छेद के नीचे गर्दन लम्बी कर रहा था तो उसने सहसा देखा कि ऊपर आकाश चॉद, नक्षत्र और अनेक कोटि तारापो की ज्योति से जगमग-जगमग कर रहा है। कछुवा आनंद-विभोर हो उठा। उसे अपने जीवन मे यह दृश्य देखने का पहला ही अवसर मिला था। वह प्रसन्न होकर अपने साथियो के पास दौडा गया कि 'पाओ, मैं तुम्हें एक नई दुनिया का सुन्दर दृश्य दिखाऊँ। वह दुनिया हमसे ऊपर है, 'रत्नो से जडी हुई, जगमग जगमग करती! सब साथी दौड कर पाए, परन्तु इतने में ही वह छेद बन्द हो चुका था और शैवाल का अखण्ड आवरण पुनः अपने पहले के रूप में तन गया था। वह कछुवा बहुत देर तक इधर-उधर टक्कर मारता रहा, परन्तु कुछ भी न दिखा सका ! साथी हंसते हुए चले गए कि मालूम होता है, तुमने कोई स्वप्न देख लिया है ! क्या उस कछुवे को पुनः छेद मिल सकता है, ताकि वह चॉद। और तारो से जगमगाता आकाश-लोक अपने साथियो को दिखा सके ? यह मब हो सकता है, परन्तु नर-जन्म खोने के बाद पुनः उसका मिलना सरल नहीं है।" "स्वयंभूरमण समुद्र सबसे बडा समुद्र माना गया है, असंख्यात हजार योजन का लंबा-चौडा। पूर्व दिशा के किनारे पर एक जूना पानी में छोड दिया जाय, और दूसरी तरफ पश्चिम के किनारे पर एक कीली । क्या कभी हवा के झोंकों से लहरों पर तैरती हुई कीली जूए के छेद मे अपने आप आकर लग सकती है ? संभव है यह अघटित घटना घटित हो जाय ! परन्तु एक बार खोने के बाद मनुष्य जन्म का फिर प्राप्त होना अत्यन्त कठिन है !" . "कल्पना करो कि एक देवता पत्थर के स्तम्भ को पीस कर आटे की तरह चूर्ण बना दे और उसे बॉस की नली में डालकर मेरु पर्वत की Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावश्यक दिग्दर्शन चोटी पर से फूंक मार कर उडा दे। वह स्तम्भ परमाणुरूप में होकर विश्व में इधर-उधर फैल जाय ! क्या कभी ऐसा हो सकता है कि कोई देवता उन परमाणुओं को फिर इकट्ठा कर ले और उन्हें पुनः उसी स्तम्भ के रूप में बदल दे ? यह असंभव, सम्भव है, संभव हो भी जाय । परन्तु मनुष्य जन्म का पाना बड़ा ही दुर्लभ है, दुष्प्राप्य है।" ____ --(अावश्यक नियुक्ति गाथा ८३२) ऊपर के उदाहरण, जैन-सस्कृति के वे उदाहरण है, जो मानवजन्म की दुर्लभता का डिडिमनाद कर रहे हैं । जैन धर्म के अनुसार देव होना उतना दुर्लभ नहीं है, जितना कि मनुष्य होना दुर्लभ है ! जैन साहित्य में आप जहाँ भी कहीं किसी को सम्बोधित होते हुए देखेंगे, वहाँ 'देवाणुप्पिय' शब्द का प्रयोग पायेगे। भगवान् महावीर भी पाने वाले मनुष्यों को इसी 'देवाणुप्पिय' शब्द से सम्बोधित करते थे । 'देवाणुप्पिय' का अर्थ है-"देवानुप्रिय । अर्थात् 'देवताओं को भी प्रिय ।' मनुष्य की श्रेष्ठता कितनी ऊँची भूमिका पर पहुंच रही है । दुर्भाग्य से मानव जाति ने इस ओर ध्यान नहीं दिया, और वह अपनी श्रेष्ठता को भूल कर अवमानता के दल-दल में फंस गई है । 'मनुष्य ! तू देवताओं से भी ऊँचा है। देवता भी तुझसे प्रम करते हैं। वे भी मनुष्य बनने के लिए आतुर हैं। कितनी विराट प्रेरणा है, मनुण्य की सुप्त यात्मा को जगाने के लिए। जैन संस्कृति का अमर गायक प्राचार्य अमित गति कहता है कि---- 'जिस प्रकार मानव लोक में चक्रवर्ती, स्वर्गलोक में इन्द्र, पशुश्नों में सिंह, प्रतों में प्रशम भाव, और पर्वतों में स्वर्ण गिरि मेरु प्रधान हैश्रेष्ठ है, उसी प्रकार संसार के सब जन्मों में मनुष्य जन्म सर्वश्रेष्ठ है।' नरेषु चक्री त्रिदशेषु वत्री, मृगेषु सिंहः प्रशमो व्रतेपु । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव जीवन का महत्त्व मतो महीभृत्सु सुवर्ण शैलो, भवेषु मानुष्यभवः प्रधानम् ।। । -(श्रावकाचार १ । १२) महाभारत मे व्यास भी कहते हैं कि 'आओ, मै तुम्हें एक रहस्य की बात बताऊँ! यह अच्छी तरह मन में दृढ़ कर लो कि संसार में मनुष्य से बढकर और कोई श्रेष्ठ नहीं है।' गुह्य ब्रह्म तदिदं ब्रवीमि, नहि मानुषात् श्रष्ठतरं हि किचित् । -~-महाभारत वैदिक धर्म ईश्वर को कर्ता मानने वाला संप्रदाय है। शुकदेव ने इसी भावना मे, देखिए, कितना सुन्दर वर्णन किया है, मनुष्य की सर्वश्रेष्ठता का। वे कहते हैं कि "ईश्वर ने अपनी आत्म शक्ति से नाना प्रकार की सृष्टि वृक्ष, पशु, सरकने वाले जीव, पक्षी, दंश और मछली को बनाया । किन्तु इनसे वह तृप्त न हो सका, सन्तुष्ट न हो सका। आखिर मनुष्य को बनाया, और उसे देख आनन्द में मन हो गया ! ईश्वर ने इस बात से सन्तोप माना कि मेरा और मेरी सृष्टि का रहस्य समझने वाला मनुष्य अब तैयार हो गया है।" भारतीसृष्ट्वा परारिण, विविधान्यजयाऽऽत्मशक्त्या, rr वृक्षान सरीसृपै-पशून् खग-दश-मत्स्यान् । कमाक बोलताहृदयो मनुजं विधाय, ब्रह्मावबोधधिषण मुदमाप देपः ।। ---भागवत जयपर महाभारत में एक स्थान पर इन्द्र कह रहा है कि भाग्यशाली है वे, जो दो हाय वाले मनुष्य है । मुझे दो हाथ वाले मनुष्य के प्रति स्पृहा है।' Mauni SAPNA Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अावश्यक दिग्दर्शन 'पाणिमद्भ्यः स्पृहाऽस्माकम् । देखिए, एक मस्तराम क्या धुन लगा रहे हैं ? उनका कहना है'मनुष्य दो हाथ वाला ईश्वर है। द्विभुजः परमेश्वरः।' महाराष्ट्र के महान् सन्त तुकाराम कहते हैं कि 'स्वर्ग के देवता इच्छा करते हैं-'हे प्रभु! हमें मृत्यु लोक में जन्म चाहिये । अर्थात् हमें मनुष्य बनने की चाह है ! स्वर्गी चे अमर इच्छिताती देवा; मृत्युलोकी हापा जन्म आम्हां । सन्त श्रेष्ठ तुलसीदास बोल रहे हैं : 'बड़े भाग मानुप तन पापा सुर-दुर्लभ सव ग्रन्थन्हि गावा।' जरा उर्दू भाषा के एक मार्मिक कवि की वाणी भी सुन लीजिए। श्राप भी मनुष्य को देवताओं से बढ़कर बता रहे हैं ___ फरिश्ते से बढ़कर है इन्सान बनना, मगर इसमें पड़ती है मेहनत जियादा।' वेशक, इन्सान बनने में बहुन जियादा मेहनत उठानी पडती है, बहुत अधिक श्रम करना होता है। जैनशास्त्रकार, मनुष्य बनने की साधना के मार्ग को बडा कठोर और दुर्गम मानते हैं। औपपातिक सूत्र में भगवान् महावीर का प्रवचन है कि "जो प्रागी छल, कपट से दूर रहता है-प्रकृति अर्थात् स्वभाव से ही सरल होता है, अहंकार से शुन्य होकर विनयशील होता है-सब छोटे-बड़ों का यथोचित पादर सम्मान करता है, दूसरों की किसी भी प्रकार की उन्नति को देखकर टाह नहीं करता है-प्रत्युत हृदय में हर्प और श्रानन्द की स्वाभाविक अनुभूति करता है, जिसके रग-रग में दया का संचार है-जो किसी भी दु:लिन Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव जीवन का महत्त्व प्राणी को देखकर द्रवित हो उठता है एवं उसकी सहायता के लिए तन, मन, धन सब लुटाने को तैयार हो जाता है, वह मृत्यु के पश्चात् मनुष्य जन्म पाने का अधिकारी होता है ।" ऊँचा विचार और ऊँचा आचरण ही मानव जन्म की पृष्ठ भूमि है। यहाँ जो कुछ भी बताया गया है, वह अन्दर के जीवन की पवित्रता का भाव ही बताया गया है। किसी भी प्रकार के साम्प्रदायिक क्रियाकाण्ड और रीति रिवाज का उल्लेख तक नहीं किया है। भगवान् महावीर का आशय केवल इतना है कि तुम्हें मनुष्य बनने के लिए किसी सम्प्रदाय-विशेष के विधि-विधानो एवं क्रियाकाण्डो की शर्त नही पूरी करनी है । तुम्हें तो अपने अन्दर के जीवन मे मात्र सरलता, विनयशीलता, अमात्सर्य भाव एवं दयाभाव की सुगन्ध भरनी है। जो भी प्राणी ऐसा कर सकेगा, वह अवश्य ही मनुष्य बन सकेगा। । परन्तु आप जानते हैं, यह काम सहज नहीं है , तलवार की धार पर नगे पैरो नाचने से भी कही अधिक दुर्गम है यह मानवता का मार्ग ! जीवन के विकारों से लडना, कुछ हँसी खेल नहीं है। अपने मन को मार कर ही ऐसा किया जा सकता है। तभी तो हमारा कवि कहता है कि: "फरिश्ते से बढ़कर है इन्सान बनना; मगर इसमें पड़ती है मेहनत जियादा।" Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव-जीवन का ध्येय मानव, अखिल संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है । परन्तु जरा विचार कीजिए, यह सर्व श्रेष्ठता किस बात की है ? मनुष्य के पास ऐसा क्या है, जिसके बल पर वह स्वयं भी अपनी सर्वश्रेष्ठता का दावा करता है और हजारों शास्त्र भी उसकी सर्वश्रेष्ठता की दुहाई देते हैं। क्या मनुष्य के पास शारीरिक शक्ति बहुत बडी है ? क्या यह शक्ति ही इसके बडापन की निशानी है ? यदि यह बात है तो मुझे इन्कार करना पड़ेगा कि यह कोई महत्त्व की चीज नहीं है। संसार के दूसरे प्राणियों के सामने मनुष्य की शक्ति कितना मूल्य रखती है ? वह तुच्छ, है, नगण्य है। मनुष्य तो दूसरे विराटकाय प्राणियों के सामने एक नन्हासा-लाचार सा कीड़ा लगता है। जंगल का विशालकाय हाथी कितना अधिक बलशाली होता है ? पचास-सा मनुष्यों को देख पाए तो सूंड से चीर कर सबके टुकड़े-टुकड़े करके फेक दे। वन का राजा सिंह कितना भयानक प्राणी है ? पहाड़ों को गुजा देने वाली उसकी एक गर्जना ही मनुष्य के जीवन को चुनौती है। आपने वन-मानुपी का वर्णन सुना होगा ? वे श्रापके समान ही मानव-याकृति धारी पशु है। इतने बड़े लवान कि कुछ पूछिए नहीं। वे तैयो को इस प्रकार उठाउठा कर पटकते और मारते हैं, जिन प्रकार साधारण मनुष्य रबर की गेंट को ! पूर्वी यांगों में एक मृत वनमानुष गो तोला गया तो या Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव जीवन का ध्येय १५. दो टन अर्थात् ५४ मन वजन मे निकला! मनुष्य इस भीमकाय प्राणी के सामने क्या अस्तित्व रखता है ? वह तो उस वन मानुष के चॉटे का धन भी नहीं! और वह शुतुरमुर्ग कितना भयानक पक्षी है ? कभीकमी इतने जोर से लात मारता है कि आदमी चूर-चूर हो जाता है। उसकी लात खाकर जीवित रहना असंभव है। जब वह दौडता है तो प्रति घटा २६ मील की गति से दौड सकता है । क्या.आप में से कोई ऐसा मनुष्य है, उसके साथ दौड लगाने वाला। मनुष्य का जीवन तो अत्यन्त क्षुद्र जीवन है। उसका बल अन्य प्राणियो की दृष्टि में परिहास की चीज है । वह रोगो से इतना घिरा हुआ है कि किसी भी समय उसे रोग की ठोकर लग' सकती है और वह जीवन से हाथ धोने के लिए मजबूर हो सकता है ! और तो क्या, साधारण-सा मलेरिया का मच्छर भी मनुष्य की मौत का सन्देश लिए घूमता है। एक पहलवान बड़े ही विराट काय एवं बलवान आदमी थे। सारा शरीर गठा हुआ था लोहे जैसा! अंग-अंग पर रक्त की लालिमा फूटी पडती थी। कितनी ही बार लेखक के पास आया-जाया करते थे। दर्शन करते, प्रवचन सुनते और कुछ थोडा बहुत अवकाश मिलता तो अपनी विजय की कहानियाँ दुहरा जाते! बड़े-बड़े पहलवानों को मिनटो में पछाड देने की घटनाएँ जब वे सुनाते तो मै देखता, उनकी छाती अहंकार से फूल उठती थी। बीच मे दो तीन दिन नहीं पाए। एक दिन आए तो बिल्कुल निढाल, बेदम! शरीर लडखडा-सा रहा था ! मैने पूछा-'पहलवान साहब क्या हुआ?' पहलवान जी बोले'महाराज ! हुआ क्या ? आपके दर्शन भाग्य में बदे थे सो मरता-मरता बचा हूँ ! मेरा तो मलेरिया ने दम तोड दिया ।। मैं हँस पडा । मैंने कहा-'पहलवान साहब ! आप जैसे बलवान पहलवान को एक नन्हे से मच्छर ने पछाड दिया । और वह भी इस बुरी तरह से !' पहलवान हँसकर चुप हो गया। यह अमर सत्य है मनुष्य के बल का ! यहाँ उत्तर बन ही क्या सकता है ? क्या मनुष्य इसी बल के भरोसे बड़े होने का Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक दिग्दर्शन स्वप्न ले रहा है ? मनुष्य के शरीर का वास्तविक रूप क्या है ? इसके लिए एक कवि की कुछ पंक्तियाँ पढलें तो ठीक रहेगा। आदमी का जिस्म क्या है जिसपै शैदा है जहाँ; एक मिट्टी की इमारत, एक मिट्टी का मकाँ। खून का गारा है इसमें और ईंटें हड्डियाँ चंद साँसों पर खड़ा है, यह खयाली आसमाँ ! मौत की पुरजोर आँधी इससे जब टकरायगी 3 देख लेना यह इमारत टूट कर गिर जायगी। यदि बल नहीं तो क्या रूप से मनुष्य महान् नहीं बन सकता ? रूप क्या है ? मिट्टी की मूरत पर जरा चमकदार रंग रोगन ! इस को धुलते और साफ होते कुछ देर लगती है ? संसार के बड़े-बडे सुन्दर तरुण और तरुणियाँ कुछ दिन ही अपने रूप और यौवन की बहार दिखा सके । फूल खिलने भी नही पाता है कि मुरझाना शुरू हो जाता है ! किसी रोग अथवा चोट का आक्रमण होता है कि रूप कुरूप हो जाता है, और सुन्दर अंग भग्न एवं जर्जर ! सनत्कुमार चक्रवर्ती को रूप का अहंकार करते कुछ क्षण ही गुजरने पाये थे कि कोढ ने श्रा घेरा। सोने-सा निखरा हुआ शरीर सडने लगा। दुर्गन्ध असह्य हो गई। मथुरा की जनपदकल्याणी वासवदत्ता कितनी रूपगर्विता थी। रात्रि के सघन अन्धकार में भी दीपशिखा के समान जगमग-जगमग होती रहती थी ! परन्तु बौद्ध इतिहास कहता है कि एक दिन चेचक का आक्रमण हुआ। सारा शरीर क्षत विक्षत हो गया, सडने लगा, जगह-जगह से मवाद बह निकला। राजा, जो उसके रूप का खरीदा हुआ गुलाम था, वासवदत्ता को नगर के बाहर गदे कूडे के ढेर पर मरने को फिकवा देता है । यह है मनुष्य के रूप की इति । क्या चमडे का रंग और हड्डियो का गठन भी कुछ महत्व रखता है ? चमड़े के हलके से परदे के नीचे क्या कुछ भरा हुआ है ? स्मरण मात्र से घृणा होने लगती है ! जो कुछ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव जीवन का ध्येय अन्दर है, वह यदि बाहर आ जाय तो गीध, कौवे और कुत्ते उसे नोच खाएँ ! कहीं भी बाहर आना-जाना कठिन हो जाय। और यह मनुष्य का रूप दूसरे पशु पक्षियों की तुलना में है भी क्या चीज,? मयूर कितना सुन्दर पक्षी है ! गर्दन और पखों का सौन्दर्य मोह लेने वाला है। शुतुरमुर्ग के शानदार छोटे से छोटे पंख का मूल्य, कहते हैं-चालीस से पचास रुपयो तक होता है। मनुष्य की वाणी का माधुर्य कोयल से उपमित होता है । गति की उपमा हंस की गति से और नाक की उपमा तोते की चोंच से दी जाती है। किंबहुना, प्रत्येक अग का सौन्दर्य विभिन्न पशु पक्षियों के अवयवो से तुलना पाकर ही कवि की वाणी पर चढ़ता है । इस का अर्थ तो यह हुआ कि मनुष्य का रूप पशु-पक्षियों के सामने तुच्छ है, नगण्य है ! अतएव रूप की दृष्टि से मनुष्य की महत्ता और श्रेष्ठता का कुछ भी मूल्य नहीं है। अब रहा, परिवार का बडापन ! क्या मनुष्य के दस-बीस बेटे, पोते और नाती हो जाने से उसका कुछ महत्त्व बढ़ जाता है ? कितना ही बडा परिवार हो, कितनी ही अधिक संन्तति हो, मनुष्य का महत्त्व इनसे अणुमात्र भी बढने वाला नहीं है। रावण का इतना बड़ा परिवार था, आखिर वह क्या काम आया ? छप्पन कोटि यादव, जो एक दिन भारतवर्ष के करोडों लोगों के भाग्य-विधाता बन बैठे थे, अन्त मे कहाँ विलीन हो गए ? श्री कृष्ण को यादव जाति के द्वारा क्या सुख मिला ? मथुरा के राजा उग्रसेन के यहाँ कंस का जन्म हुअा। बड़ा भाग्यशाली पुत्र था जो भारत के प्रतिबासुदेव जरासन्ध का प्यारा दामाद बना! परन्तु उग्रसेन को क्या मिला ? जेलखाना मिला और मिली प्रतिदिन पीठ पर पॉचसौ कोहों की असह्य मार ! और राजा श्रोणिक को भी तो वह अजातशत्रु कोणिक पुत्र के रूप में प्राप्त हुआ था, जिसके वैभव के वर्णन से औपपातिक सूत्र की प्रस्तावना अटी पड़ी है। परन्तु राजा -श्रोणिक से पूछते तो पता चलता कि पुत्र और परिवार का क्या अानन्द होता है ? यह पुत्र का ही काम था कि राजा श्रोणिक को अपने बुढ़ापे की घड़ियाँ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ अावश्यक दिग्दर्शन काठ के पिजरे में बंद पशु की तरह गुजारनी पडी। न समय पर भोजनका पता था और न पानी का ! और अन्त में जहर खाकर मृत्यु का स्वागत करना पड़ा। क्या यही है पुत्रों और पौत्रों की गौरवशालिनी परंपरा ? क्या यह सब मनुष्य के लिए अभिमान की वस्तु है ? मै नहीं समझता, यदि परिवार की एक लम्बी चौड़ी सेना इकट्ठी भी हो जाती है तो इससे मनुष्य को कौनसे चार चाँद लग जाते हैं ? वैज्ञानिक क्षेत्र मे एक ऐसा कीटाणु परिचय में पाया है, जो एक मिनट में दश करोड़ अरब सन्तान पैदा कर देता है। क्या इसमे कीटाणु का कोई गौरव है, महत्त्व है ? वह मनुष्य ही क्या, जो कीटाणुओं की तरह सन्तति प्रजनन में ही अपना रिकार्ड कायम कर रहा है। प्राचार्य सिद्धसेन दिवाकर से सम्राट विक्रमादित्य ने यह पूछा कि "आप जैन भिन्तु अपने नमस्कार करने वाले भक्त को धर्म वृद्धि के रूप में प्रतिवचन देते हैं, अन्य साधुओं की तरह पुत्रादि प्राप्ति का आशीर्वाद क्यो नही देते ?” आचार्य श्री ने उत्तर में कहा कि “राजन् ! मानव जीवन के उत्थान के लिए एक धर्म को ही हम महत्त्वपूर्ण साधन समझते हैं, अतः उसी की वृद्धि के लिए प्रेरणा देते हैं । पुत्रादि कौनसी महत्त्वपूर्ण वस्तु है ? वे तो मुर्गे, कुत्ते और सूअरों को भी बडी संख्या में प्राप्त हो जाते हैं । क्या वे पुत्रहीन मनुष्य से अधिक भाग्यशाली हैं ? मनुष्य जीवन का महत्त्व बच्चे-बच्चियो के पैदा करने मे नहीं है, जिसके लिए हम भिक्षु भी प्राशीर्वाद देते फिरें ।" 'सन्तानाय च पुत्रवान् भव पुनस्तत्कुक्कुटानामपि ।' मनुष्य जाति का एक बहुत बडा वर्ग धन को ही बहुत अधिक महत्त्व देता है। उसका सोचना-समझना, बोलना-चालना, लिखनापढना सब कुछ धन के लिए ही होता है । वह दिन-रात सोते-जागते धन का ही स्वप्न देखता है। न्याय हो, अन्याय हो, धर्म हो, पाप हो, कुछ भी हो, उसे इन सव से कुछ मतलब नहीं। उसे मतलब है एकमात्र धन से। धन मिलना चाहिए, फिर भले ही वह छल-कपट से मिले, चोरी से मिले, विश्वासघान से मिले, देश-द्रोह से मिले या भाई Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव जीवन का ध्येय ११ का गला काट कर मिले। ग़रीब जनता के गर्म खून से सना हुआ पैसा ' भी उसके लिए पूज्य परमेश्वर है, उपास्य देव है। उसका सिद्धान्त सूत्र , अनादि काल से यही चला आ रहा है कि 'सर्वं गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ति ।' 'श्राना अंशकला प्रोका रूप्योऽसौ भगवान् स्वयम् ।' परन्तु क्या मानव जीवन का यही ध्येय है कि धन के पीछे पागल बनकर घूमता रहे ? क्या धन अपने आप में इतना महत्वपूर्ण है ? क्या तेली के बैल की तरह रात-दिन धन की चिन्ता में घुल-घुल कर ही जीवन की अन्तिम घडियो के द्वार पर पहुंचा जाय ? यदि दुनिया भर की बेईमानी करके कुछ लाख का धन एकत्रित कर भी लिया तो क्या बन जायगा ? रावण के पास कितना धन था ? सारी लंका नगरी ही सोने की थी। लका के नागरिक सोने की सुरक्षा के लिए आजकल की तरह-तिजौरी तो न रखने होगे ? जिनके यहाँ घर की दीवार, छत और फर्श भी सोने के हो, भला वहाँ सोने के लिए तिजौरी रखने का क्या अर्थ ? और भारत की द्वारिका नगरी भी तो सोने की थी ! क्या हुआ इन सोने की नगरियो का ? दोनो का ही अस्तित्व खाक में मिल गया । सोने की लंका ने रावण को राक्षस बना दिया तो सोने की द्वारिका ने यादवों को नर-पशु ! लका और द्वारिका के धनी मनुष्यत्व से हाथ धो बैठे थे,, दुराचारों में फंस गए थे। धन के अतिरेक ने उन्हें-अधा बना दिया था । आज कुछ गोरव है, उन धनी मानी नरेशो का ? मै दिल्ली और आगरा मे बिखरे हुए मुगल सम्राटो के वैभव को देख रहा हूँ। क्या लाल किला और ताज इमीलिए बनाए गए थे कि उन पर चॉद सितारे के मुस्लिम झंडे के स्थान पर अँग्रेजो का यूनियन जैक फहराए । आज कहाँ हैं, मुगल सम्राटो के उत्तराधिकारी ? कितने अत्याचार किए, कितने निरीह जनसमूह कतल किए ?- परन्तु वे सिहासन, जिनके पाये पाताल मे गाड कर मजबूत किए जा रहे थे, उखड़े चिना न रहे। और वह यूनियन जैक भी कहाँ है, जो समुद्रों पार से तूफान की तरह बढ़ता, हाहाकार मचाता भारत मे आया था ? क्या वह वापस लौटने के इरादे Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावश्यक दिग्दर्शन से आया था ? परन्तु गान्धी की ऑधी के झटको को वह रोक न सका और उड गया ! धन अनित्य है, क्षण भंगुर है ! इसका गर्व क्या, इसका घमंड क्या ? भारत के ग्रामीण लोगो का विश्वास है कि 'जहाँ कोई बडा सॉप रहता है, वहाँ अवश्य कोई धन का बड़ा खजाना होता है। यह विश्वास कहाँ तक सत्य है, यह जाने दीजिए । परन्तु इस पर से यह तो पता लगता है कि धन से चिपटे रहने वाले मनुष्य सॉप ही होते हैं, मनुष्य नहीं | मानव जीवन का ध्येय चॉदी सोने की रंगीन दुनिया में नहीं है । विश्व का सर्वश्रेष्ठ प्राणी मानव, क्या कभी रुपये पैसे के गोल चक्र में अपना महत्त्व पा सकता है ? कभी नहीं । मनुष्य विश्व का एक महान् बुद्धिशाली प्राणी है । वह अपनी बुद्धि के आगे किसी को कुछ समझता ही नहीं है। वह प्रकृति का विजेता है, और यह विजय मिली है उसे अपने बुद्धि-वैभव के बल पर । वह अपनी बुद्धि की यात्रा मे कहाँ से कहाँ पहुँच गया है । भूमण्डल पर दुर्गम पहाडों पर से रेल और मोटरे दौड रही हैं। महासमुद्रों के विराट वक्ष पर से जलयानों की गर्जना सुनाई दे रही है । आज मनुष्य हवा में पक्षियो की तरह उड रहा है, वायुयान के द्वारा संसार का कोना-कोना छान रहा है। मनुष्य की बुद्धि ने कान इतने बड़े प्रभावशाली बना दिए हैं कि यहाँ बैठे हजारो मीलो की बात सुन सकते हैं । और आँख भी इतनी बड़ी होगई है कि भारत में बैठकर इङ्गलैंड और अमेरिका मे खडे आदमी को देख सकते हैं । अरे यह परमाणु शक्ति ! कुछ न पूछो, हिरोसिमा का संहार क्या कभी भुलाया जा सकेगा? रबड की छोटी सी गेद के बराबर परमाणु बम से आज दुनिया के इन्सानो की जिन्दगी काँप रही है। अभी-अभी स्विटजरलण्ड के एक वैज्ञानिक ने कहा है कि तीन छटॉक विज्ञानगवेषित विषाक्त पदार्थ विशेष से अस्त्रो मनुष्यो का जीवन कुछ ही मिनटो में समाप्त किया जा सकता है । और देखिए, अमेरिका में वह हाइड्रोजन बम का धूपकेतु सर उठा रहा है, जिसकी चर्चा मात्र से मानव जाति त्रस्त हो उठी है। यह सब है मनुष्य Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव जीवन का ध्येय की बुद्धि-लीला | वह अपने बुद्धि कौशल से स्वर्ग बनाने चला था और कुछ बनाया भी था; परन्तु अब वन क्या गया है ? साक्षात् घोर नरक । क्या यह बुद्धि मनुष्य के लिए गर्व करने, की वस्तु है ! जिस बुद्धि के पीछे विवेक नहीं है धर्म की पिपासा नहीं है, वह बुद्धि मनुष्य को मनुष्य न रहने देकर राक्षस बना देती है। अपनी स्वार्थपूर्वि कर ली, जो मनचाहा काम बना लिया, क्या इस बुद्धि को ही मनुष्य-जीवन की सर्वश्रेष्ठता का गौरव दिया जाय ! खाना, पीना और ऐश आराम तो अपनीअपनी समझ के द्वारा पशुपक्षी भी कर लेते हैं। पारिवारिक व्यवस्था और कमानेखाने की बुद्धि उनमें भी बहुतो की बडी शानदार होती है । उदाहरण के लिए आप फाकलण्ड के द्वीप-समूह में पाई जाने वाली नमाजी चिडियाओं को ले सकते हैं । ये तीस से चालीस हजार तक की संख्या के विशाल भुण्डों मे रहती हैं। ये फौजी सिपाहियो की तरह कतार बॉध कर खडी होती हैं। और आश्चर्य की बात तो यह है कि बच्चों को अलग विभक्त कर के खडा करती हैं, नर पक्षियों को अलग तो मादा पक्षियों को अलग। इतना ही नहीं, यह और वर्गीकरण करती हैं कि साफ और तगडे पक्षियों को अलग तथा पर झाडने वाले, गन्दे और कमजोर पक्षियों को अलग! कितने गजब की है सनिक पद्धति से वर्गीकरण करने की कल्पना शक्ति ! और ये मधुमक्खियाँ भी कितनी विलक्षण हैं ? मधुमक्खियों के छत्ते मे, विशेषज्ञों के मतानुसार, लगभग तीसहजार से साठ हजार तक मक्खियाँ होती हैं। उनमें बहुत अच्छा सुदृढ संगठन होता है । सब का कार्य उचित पद्धति से बटा हुआ होता है, फलतः हरएक मक्खी को मालूम रहता है कि उसे क्या काम करना है ? इसलिए वहाँ कभी कोई काम बाकी नही रह पाता, नित्य का काम नित्य समाप्त हो जाता है । छत्ते के अन्दर सब तरह का काम होता हैश्राहार का प्रबन्ध, छत्ता बनाने के लिए सामान का प्रबन्ध, गोदाम का प्रबन्ध, सफाई का प्रबन्ध, मकान का प्रवन्ध और चौकी पहरे का प्रबन्ध । कुछ को छत्ते के अन्दर गर्मी, हवा और सफाई का प्रबन्ध देखना होता Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावश्यक दिग्दर्शन है। कुछ को बच्चों की देखभाल करनी पड़ती है। इस पर भी कडी नज़र रखी जाती है कि कोई किसी प्रकार की दुष्टता या काम चोरी न करने पाए ! और उन प्रास्ट्रोलिया की नदियों में पाई जाने वाली निशानेबाज मछलियो की कहानी भी कुछ कम विचित्र नहीं है। यह मछली अपने शिकार की ताक में रहती है। जब यह देखती है कि नदी के किनारे उगे हुए पौधों की पत्तियो पर कोई मक्खी या मकोडा बैठा है तो चुपचाप उसके पास जाती है और मुँह में पानी भर कर कुल्ले का ठीक निशाना ऐसे जोर से मारती है कि वह मकोडा तुरन्त पानी में गिर पडता है और मछली का आहार बन कर काल के गाल में पहुंच जाता है । इस मछली का निशाना शायद ही कभी चूकता है ! वैज्ञानिकों ने इसका नाम टॉक्सेटेस रक्खा है, जिसका अर्थ है धनुषधारी ! एटलाण्टिक महासागर में उड़ने वाली मछलियाँ भी होती है। काफी लम्बा लिख चुका हूँ। अब अधिक उदाहरणों की अपेक्षा नहीं है । न मालूम कितने कोटि पशु-पक्षी ऐसे हैं, जो मनुष्य के समान ही छलछंद रचते हैं, अकल लडाते हैं, जाल फैलाते हैं और अपना पेट भरते हैं । अस्तु खाने कमाने की, मौज शौक उडाने की, यदि मनुष्य ने कुछ चतुरता पाई है तो क्या यह उसकी अपनी कोई श्रेष्ठता है ? क्या इस चातुर्य पर गर्व किया जाय ? नहीं, यह मनुष्य की कोई विशेषता नहीं हैं ! मानव जीवन का ध्येय न धन है, न रूप है, न बल है और न सांसारिक बुद्धि ही है। या ही कहीं से घूमता-फिरता भटकता यात्मा मानव शरीर में आया, कुछ दिन रहा, खाया-पीया, लड़ा झगडा, हॅसा रोया और एक दिन मर कर काल प्रवाह में आगे के लिए बह गया, भला यह भी कोई जीवन है ? जीवन का उद्देश्य मरण नहीं है, किन्तु मरण पर विजय है । अाजतक हम लोगो ने किया ही क्या है ? कहीं पर जन्म लिया है, कुछ दिन जिन्दा रहे है और फिर पॉव पसार कर सदा के लिये लेट गए हैं। इस विराट् संसार में कोई भी भी जाति, कुल, वर्ण और स्थान ऐसा नहीं है, जहाँ हमने Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव जीवन का- ध्येय अनन्त-अनन्त बार जन्ममरण न किया हो ? भगवती सूत्र में हमारे जन्ममरण की दुःख भरी कहानी का स्पष्टीकरण करने वाली एक महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तरी है ! गौतम गणधर पूछते हैं: "भंते ! असंख्यात कोडी कोडा योजन-परिमाण इस विस्तृत विराट लोक में क्या कहीं ऐसा भी स्थान है, जहाँ कि इस जीव ने जन्म-मरण न किया हो?" भगवान् महावीर उत्तर देते हैं: "गौतम ! अधिक तो क्या, एक परमाणु पुद्गल जितना भी ऐसा स्थान नहीं है, जहाँ इस जीव ने जन्म-मरण न किया हो।" ___ "नत्थि केइ परमाणुपोग्गलमत्त विपएसे जस्थ णं अयं जीवे न जाए वा, न मए वा ।" -[भग १२, ७, सू० ४५७ ] भगवान् महावीर के शब्दो मे यह है हमारी जन्म-मरण की कडियो का लम्बा इतिहास ! बडी दुखभरी है हमारी कहानी ! अब हम इस कहानी को कब तक दुहराते जायेंगे? क्या मानव जीवन का ध्येय एकमात्र जन्म लेना और मर जाना ही है। क्या हम यों ही उतरते चढते, गिरते-पडते इस महाकाल के प्रवाह में तिनके की तरह बेबस लाचार बहते ही चले जायेंगे १. क्या कही किनारा पाना, हमारे भाग्य में नहीं बदा है ? नहीं, हम मनुष्य हैं, विश्व के सर्वश्रेष्ठ प्राणी है । हम अपने जीवन के लक्ष्य को अवश्य प्रात करेंगे! यदि हमने मानव-जीवन का लक्ष्य नही प्राप्त किया तो फिर हम में और दूसरे पशु पक्षियों मे अन्तर ही क्या रह जायगा ? हमारे जीवन का ध्येय, अधर्म नहीं, धर्म हैअन्याय नही, न्याय है-दुराचार नही, सदाचार है-भोग नही, त्यांग है । धर्म, त्याग और सदाचार ही हमें पशुत्व से अलग करता है । अन्यथा हम में और पशु में कोई अन्तर नहीं है, कोई भेद नहीं है । इस सम्बन्ध में एक प्राचार्य कहते भी हैं कि आहार, निद्रा, भयं और कामवासना जैसी पशु में हैं वैसी ही मनुष्य में भी - हैं, अतः इनको ले कर, भोग को Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ आवश्यक दिग्दर्शन महत्त्व देकर मनुष्य और पशु में कोई अन्तर नहीं किया जा सकता ! एक धर्म ही मनुष्य के पास ऐसा है, जो उसकी अपनी विशेषता है, महत्ता है। अतः जो मनुष्य धर्म से शून्य हैं, वे पशु के समान ही हैं। "आहार-निद्रा-भय-मैथुनं च सामान्यमेतत्पशुभिर्नराणाम। धर्मो हि तेषामधिको विशेषो, धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ॥" मनुष्य अमर होना चाहता है। इसके लिए वह कितनी औषधियाँ खाता है, कितने देवी देवता मनाता है, कितने अन्याय और अत्याचार के जाल बिछाता है ! परन्तु क्या यह - अमर होने का मार्ग है ? अमर होने के लिए मनुष्य को धर्म की शरण लेनी होगी, त्याग का आश्रय लेना होगा। भगवान् महावीर कहते हैं : "वित्तण ताणं न लभे पमत्ते, इमंमि लोए अदुवा परत्था" -उत्तराध्ययन सूत्र --प्रमत्त मनुष्य की धन के द्वारा रक्षा नहीं हो सकेगी; न इस लोक में और न परलोक मे। कठोपनिषत् कार कहते हैं : "न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यः ।" मनुष्य कभी धन से तृप्त नही हो सकता। "श्रयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतसू तौ सम्परीत्य विविनक्ति धीरः। । यो हि धीरोऽभि प्रेयसो वृणीते प्रेयो मन्दो योगक्षमाद् वृणीते॥" Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव जीवन का ध्येय - २५ श्रेय और प्रेय-ये दोनों ही मनुष्य के सामने आते हैं, परन्तु ज्ञानी पुरुष दोनों का भली भॉति विचार करके प्रय की अपेक्षा श्रेय को श्रेष्ठ समझ कर ग्रहण करता है, और इसके विपरीत मन्द बुद्धि वाला मनुष्य लौकिक योगक्षेम के फेर में पड कर त्याग की अपेक्षा भोग को अच्छा समझता है-उसे अपना लेता है। यदा सर्ने प्रमुच्यन्ते, कामा येऽस्य हृदि श्रिताः। अथ मयोऽमृतो भवति, ___ अत्र ब्रह्म समश्नुते ॥" --साधक के हृदय में रही हुई कामनाएँ जब सबकी सब समूल नष्ट हो जाती हैं, तब मरणधर्मा मनुष्य अमर हो जाता है, ब्रह्मत्व भाव को प्राप्त कर लेता है। एक हिन्दी कवि भी धर्म और सदाचार के महत्त्व पर, देखिए, कितनी सुन्दर बोली बोल रहा है : "धन, धान्य गयो, कछु नाहिं गयो, __आरोग्य गयो, कछु खो दीन्हो । चारित्र गयो, सर्वस्व गयो, जग जन्म अकारथ ही लीन्हो ॥" भगवान् महावीर ने या दूसरे महापुरुषों ने मनुष्य की श्रेष्ठता के जो गीत गाए हैं, वे धर्म और सदाचार के रग में गहरे रगे हुए मनुष्यो के ही गाए है। मनुष्य के से हाथ पैर पा लेने से कोई मनुष्य नहीं बन जाता । मनुष्य बनता है, मनुष्य की आत्मा पाने से। और वह आत्मा मिलती है, धर्म के आचरण से । यो तो मनुष्य रावण भी था ! परन्तु कैसा था-? ग्यारह लाख वर्ष से प्रति वर्ष उसे मारते आ रहे हैं, गालियाँ देते आ रहे हैं, जलाते पा रहे हैं । यह सब क्यों ? इसलिए कि उसने Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यावश्यक दिग्दर्शन मनुष्य बनकर मनुष्य का जैसा काम नहीं किया, फलतः वह मनुष्य होकर भी राक्षस कहलाया । भोग, निरा भोग मनुष्य को राक्षस बनाता है । एक मात्र त्यागभावना ही है जो मनुष्य को मनुष्य बनाने की क्षमता रखती है । भोगविलास की दल दल मे फंसे रहने वाले रावणो के लिए हमारे दार्शनिको ने 'द्विभुजः परमेश्वरः' नहीं कहा है। __यूनान का एक दार्शनिक दिन के बारह बजे लालटेन जला कर एथेंस नगरी के बाजारों में कई घंटे घूमता रहा । जनता के लिए श्राश्चर्य की बात थी कि दिन में प्रकाश के लिए लालटेन लेकर घूमना ! एक जगह कुछ हजार अादमी इकडे होगए और पूछने लगे कि "यह सब क्या हो रहा है ?" दार्शनिक ने कहा-"मै लालटेन की रोशनी में इतने घन्टो से आदमी हूँढ रहा हूँ।" सब लोग खिल खिला कर हँस पडे और कहने लगे कि "हम हजारों आदमी आपके सामने हैं। इन्हे लालटेन लेकर देखने की क्या बात है ?" __दार्शनिक ने गर्ज कर कहा--"अरे क्या तुम भी अपने आपको मनुष्य समझे हुए हो? यदि तुम भी मनुष्य हो तो फिर पशु और राक्षस कौन होगे ? तुम दुनिया भर के अत्याचार करते हो, छल छंद रचते हो, भाइयों का गला काटते हो, कामवासना की पूर्ति के लिए कुत्तो की तरह मारे-मारे फिरते हो, और फिर भी मनुष्य हो ! मुझे मनुष्य चाहिए, वन मानुष नहीं !" । दार्शनिक की यह कठोर, किन्तु सत्य उक्ति, प्रत्येक मनुष्य के लिए, चिन्तन की चीज है। एक और दार्शनिक ने कहा है कि "संसार में एक जिन्स ऐसी है, जो बहुत अधिक परिमाण में मिलती है, परन्तु मनमुताबिक नहीं मिलती।" वह जिन्स और कोई नहीं, इन्सान है । जो होने को तो अत्रों Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव-जीवन का ध्येय २७ की संख्या में है, परन्तु वे कितने है, जो इन्सानियत की तराजू पर गुणों की तौल में पूरे उतरते हों! सच्चा मनुष्य वही है, जिसकी आत्मा धर्म और सदाचार की सुगन्ध से निशदिन महकती रहती हो।। भारत के प्रधानमंत्री पं० जवाहरलाल नेहरू ने २६ जनवरी १६४८ के दिल्ली-प्रवचन में मनुष्यता के सम्बन्ध मे बोलते हुए कहा था-"भारतवर्ष ने हमेशा रूहानियत की, आत्मशक्ति की ही कद्र की है, अधिकार और पैसे की नहीं। देश की असली-दौलत, इन्सानी दौलत है। देश मे योग्य और नैतिक दृष्टि से बुलन्द जितने इन्सान होगे, उतना ही वह आगे बढता है।" प्रधानमंत्री, भारत को लेकर जो बात कह रहे हैं, वह सम्पूर्ण मानव-विश्व के लिए है। मनुष्यता ही सबसे बडी सम्मति है। जिस के पास वह है, वह मनुष्य है, और जिस के पास वह नहीं है, वह पशु है, साक्षात् राक्षस है। और वह मनुष्यता स्वयं क्या चीज है ? वह है मनुष्य का व्यक्तिगत भोगविलास की मनोवृत्ति से अलग रहना, त्याग मार्ग अपनाना, धर्म और सदाचार के रंग में अपने को रेंगना, जन्ममरण के बन्धनों को तोड़कर अजर अमर पद पाने का प्रयत्न करना । संसार की अधेरी गलियों में भटकना, मानव-जीवन का ध्येय नहीं है । मानव-जीवन का ध्येय है अजर अमर मनुष्यता का पूर्ण प्रकाश पाना । वह प्रकाश, जिससे बढकर कोई प्रकाश, नही । वह ध्येय, जिससे बढ़कर कोई ध्येय नहीं। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सच्चे सुख की शोध आज से नहीं, लाखो करोडो असंख्य वर्षों से संसार के कोने-कोने में एक प्रश्न पूछा जा रहा है कि यह प्रवृत्ति, यह संघर्ष, यह दौड धूप किस लिए है ? प्रत्येक प्राणी के अन्तहदय से एक ही उत्तर दिया जा रहा है-सुख के लिए, यानन्द के लिए, शान्ति के लिए। हर कोई जीव सुख चाहता है, दुःख से भागता है। ससार का प्रत्येक प्राणी सुख के लिए प्रयत्नशील है। चोटी से लेकर हाथी तक, रंक से लेकर राजा तक, नारक से लेकर देवता तक क्षुद्र से क्षुद्र और महान् से महान् प्रत्येक संसारी प्राणी सुख को ध्रुवतारा बनाए दौडा जारहा है ! अनन्त-अनन्त काल से प्रत्येक जीवन इसी सुख के चारो ओर चक्कर काटता रहा है । सुख कौन नहीं चाहता ? शान्ति किसे अभीष्ट नहीं ? सब को सुख चाहिए। सत्र को शान्ति चाहिए । सुख प्राप्ति की धुन में ही मनुष्य ने नगर बसाए, परिवार बनाए । बड़े बड़े साम्राज्यो की नींव डाली, सोने के मिहासन खड़े किए । सुख के लिए ही मन प्य ने मनुष्य से प्यार किया, और द्वेप भी किया ! श्राज तक के इतिहास में हजारो खून की नदियाँ बही है, वे सत्र मुख के लिए वहीं है, अपनी तृप्ति के लिए बही हैं । सुख की खोज में भटक कर मानव, मानव नहीं रहा, साक्षात् पशु बन गया है, राक्षस होगया है । यह क्यो हुआ? भारतीय शास्त्रकारों ने मुख को दो भागों में विभक्त किया है। एक सुख आन्तरिक है तो दूसरा बाह्य । एक आत्मनिष्ठ है Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सच्चे सुख की शोध ૨ तो दूसरा वस्तुनिष्ठ । एक आध्यात्मिक है तो दूसरा भौतिक । एक अजर अमर है तो दूसरा क्षणिक, क्षण भंगुर । एक दुःख की कालिमा से - सर्वथा रहित है तो दूसरा विषमिश्रित मोदक । बाह्य सुख में सब प्रकार के भौतिक तथा पौद्गलिक सुखो का समावेश हो जाता है । यह सुख वस्तुनिष्ठ है, अतः वस्तु है तो सुख है, अन्यथा दुःख ! एक बच्चा रो रहा है। आपने खिलौना दिया तो आनन्द में उछल पडा, नाचने लगा। परन्तु कितनी देर ? देखिए, खिलोना टूट गया है, और वह बच्चा अब पहले से भी अधिक रो रहा है। कहाँ गया, वह आनन्द-नृत्य ? खिलौने के साथ साथ वह भी टूट गया क्योंकि वह वस्तुनिष्ठ था। यही सुख, वह सुख है, जिसके पीछे संसारी प्राणी पागल की तरह भटकता रहा है, अपने समय और शक्तियों का अपव्यय करता आ रहा है । इस सुख का केन्द्र धन है, विषय वासना है, भोग लिप्सा है, वस्तु संग्रह है, सन्तान की इच्छा है, स्वजन परिजन आदि हैं। परन्तु यह सब सुख, सुख नहीं, सुखाभास है । भोगवासना की तृप्ति में कल्पित सुख की अपेक्षा वास्तविक दुःख ही अधिक है। अधिक क्या, अनन्त है । 'खणमित्तसुक्खा, बहुकाल दुक्खा।' क्या धन में सुख है ? धनप्राप्ति के लिए कितना दम्भ रचा जाता है ? कितनी घृणा ? कितना द्वेष? कितना अत्याचार ? भाई भाई का गला काट रहा है, धन के लिए । विश्व व्यापी युद्धो मे प्रजा के खून की नदियाँ बह रही हैं, धन के लिए । मनुष्य धन के लिए पहाडो पर चढ़ता है, रेगिस्तानों में भटकता है, सनुद्रो मे डूबता है, फिर भी भाग्य का द्वार नहीं खुल पाता । साधारण मजदूर कहता है कि हाय धन मिले तो पाराम से जिन्दगी कटे, संसार मे और कुछ दुर्लभ नहीं, दुर्लभ है-एक मात्र धन | परन्तु सेठिया कहता है कि अरे धन की क्या बात है ? मैने लाखो कमाये हैं, और अब लाखो कमा सकता हूँ। मैने सब तरफ धन के ढेर लगा दिए हैं, सोने के महल खड़े कर दिए हैं । परन्तु इस धन Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावश्यक दिग्दर्शन का होगा क्या ? कोई पुत्र नही, जो इस धन का उत्तराधिकारी हो । एक भी पुत्र होता तो मै सुखी हो जाता, मेरा जीवन सफल हो जाता । आज विना पुत्र के घर सूना-सूना है, मरघट-सा लगता है । पुत्र ! हा पुत्र ! घर का दीपक ! परन्तु पाइए, यह राजा उग्रसेन है और यह राजा श्रोणिक ! पुत्र सुख के सम्बन्ध में इनसे पूछिए, क्या कहते हैं ? दोनों ही नरेश कहते हैं कि "बाबा, ऐसे पुत्रों से तो बिना पुत्र ही अच्छे। भूल में हैं वे लोग, जो पुत्रपणा में पागल हो रहे हैं। हमें हमारे पुत्रो ने कैद में डाला, काठ के पिंजडे मे बन्द किया । न समय पर रोटी मिली, न कपडा और न पानी ही! पशु की भॉति दुःख के हाहाकार में जिन्दगी के दिन गुजारे हैं । पुत्र और परिवार का सुख एक कल्पना है, विशुद्ध भ्रान्ति है ।" ___ सच्चा सुख है अात्मा में | सुख का झरना अन्यत्र कही नही, अपने अन्दर ही बह रहा है । जब प्रात्मा बाहर भटकता है, परपरिणति में जाता है तो दुःख का शिमर होता है। और जब वह लौट कर अपने अन्दर में ही आता है, वैराग्य रसका पास्वादन करता है, संयम के अमृत प्रवाह में अवगाहन करता है, तो सुख, शान्ति और आनन्द का ठाठे मारता हुआ क्षीर सागर अपने अन्दर ही मिल जाता है । जब तक मनुष्य वस्तुयों के पीछे भागता है, धन, पुत्र, परिवार एवं भोगवासना आदि की दल-दल में फंसता है, तब तक शान्ति नहीं मिल सकती। यह वह भाग है, जितना ईधन डालोगे, उतना ही बढेगी, बुझेगी नहीं । वह मूर्ख है, जो बाग में घी डालकर उसकी भूख बुझाना चाहता है । जत्र भोग का त्याग करेगा, तभी सच्चा आनन्द मिलेगा। सच्चा सुख भोग में नहीं, त्याग में है; वस्तु में नहीं, आत्मा में है। पारुणिकोपनिषद् में कथा अाती है कि प्रजापति के पुत्र प्रारुणि ऋषि कही जारहे थे। क्या देखा कि एक कुत्ता मास से सनी हुई हड्डी मुख में लिए कहीं जा रहा था। हड्डी को देख कर कई कुत्तों के मुख में पानी Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सच्चे सुख की शोध भर आया और उन्होंने प्राकर कुत्ते को घेर लिया एवं सब के सब दांत पंजे आदि से उसको मारने लगे। यह देखकर बेचारे कुत्ते ने मुख से हड्डी छोड दी। हड्डी छोडते ही सब कुत्त उसे छोडकर हड्डी, के पीछे पड़ गए और वह कुत्ता जान बचाकर भाग गया । उन कुत्तों में हड्डी के पीछे बहुत देर तक लडाई होती रही और वे सब के सब घायल होगए । यह तमाशा देखकर आरुणि ऋषि विचार करने लगे कि "अहो, जितना दुःख है, ग्रहण मे ही है, त्याग मे दुख कुछ नहीं है, प्रत्युत सुख ही है । जब तक कुत्ते ने हड्डी न छोडी, तब तक पिटता और घायल होता रहा और जब हड्डी छोड दी, तो सुखी होगया। इससे सिद्ध होता है कि त्याग ही सुख रूप है, ग्रहण मे दुःख है । हाथ से ग्रहण करने मे दुःख हो, इसका तो कहना ही क्या है, मन से विषय का ध्यान करने में भी दुःख ही होता है। सच कहा है कि विपयो का ध्यान करने से उनमें संग होता है, संग होने से उनकी प्राप्ति की कामना होती है, कामना मे प्रतिबन्ध पडने से क्रोध होता है। कामना पूरी होने पर लोभ होता है, लोभ से मोह होता है, मोह से स्मृति नष्ट होती है--सद्गुरु का उत्रदेश याद नहीं रहता, स्मृति नष्ट होने से विवेक बुद्धि नष्ट हो जाती है, और विवेक बुद्धि नष्ट होने से जीव नरक मे जाता है, इसलिए विषयाशक्ति ही सब अनर्थ का मूल कारण है! 'खाणी अणाण उकामभोगा' जब विषयों का त्याग होता है, वराग्य होता है, तभी सच्चे सुख का झरना अन्तरात्मा में बहता है और जन्म जन्मान्तरो से आने वाले वैषयिक सुख दुःख के मैल को बहाकर साफ कर डालता है। बाह्य दृष्टि से धन वैभव, भोग विलास कितने ही रमणीय एवं चित्ताकर्षक प्रतीत होते है, परन्तु विवेकी मनुष्य तो इन में सुख की गन्ध भी नहीं देखता । विषयासक्त होकर आज तक किसी ने कुछ भी सुख नहीं पाया । विषयासक्त मनुष्य, अपने आप मे कितना ही क्यों न बडा हो, एक दिन शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शक्तियो से ___ सदा के लिए हाथ धो बैठता है । क्या कभी विषय-तृष्णा भोग से शान्त Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावश्यक दिग्दर्शन हो सकती है ? कभी नही । वह तो जितना भोग भोगेगे, उतनी प्रति पल बढती ही जायगी। मनुष्य की एक इच्छा पूरी नहीं होती कि दूसरी उठ खडी होती है । वह पूरी नहीं हो पाती कि तीसरी आ धमकती है। इच्छात्रों का यह सिलसिला टूट ही नहीं पाता। मनुष्य का मन परस्परविरोधी इच्छाओं का वैसा ही केन्द्र है, जैसा कि हजारों-लाखों उठती-गिरती लहरो का केन्द्र समुद्र ! एक दरिद्र मनुष्य कहता है कि यदि कहीं से पचास रुपए माहवारी मिलजाएं तो मैं सुखी हो जाऊँ ! जिसको पचास मिल रहे हैं, वह सौ के लिए छटपटा रहा है और सौ वाला हजार के लिए । इस प्रकार लाखों, करोडों और अरबो पर दौड लग रही है । परन्तु श्राप विचार करे कि यदि पचास मे सुख है तो पचास वाला सौ, सौ वाला हजार, और हजार वाला लाख, और लाख वाला करोड क्यो चाहता है ? इसका अर्थ है कि वैपयिक सुख, सुख नहीं है । वह वस्तुतः दुःख ही है । भगवान् महावीर ने वैषयिक सुख के लिए शहद से लिप्त तलवार की धार का उदाहरण दिया है । यदि शहद पुती तलवार की धार को चाटे तो किसनी देर का सुख ? और चाटते समय धार से जीभ कटते ही कितना लम्बा दु.ख ? इसीलिए भगवान् महावीर ने अन्यत्र भी कहा है कि 'सत्र वैषयिक गान विलाप हैं, सब नाच रंग विडंबना है, सब अलकार शरीर पर बोझ हैं, किं बहुना ? जो भी काम भोग है, सब दुःख के देने वाले है।' सव्वं चिलपियं गीयं, __सव्वं नट्ट विडंवियं । सच्चे आभरणा भारा, सव्वे कामा दुहावहा ।। (उत्तराध्ययन सूत्र १३३१६) सच्चा सुख त्याग में है । जिसने विषयाशा छोडी उसी ने सच्चा सुम्ब पाया । उससे बढ़कर संसार में और कौन मुखी हो सकता है ? जैन Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सच्चे सुख की शोध संस्कृति के एक अमर गायक ने कहा है कि देवलोक के देवता भी सुखी नहीं हैं । सेठ और सेनापति तो सुखी होगें ही कहाँ से ? भूमण्डल पर शासन करने वाला चक्रवर्ती राजा भी सुखी नहीं है, वह भी विषयाशा के अन्धकार मे भटक रहा है । अस्तु, ससार में सुखी कोई नहीं। सुखी है, एक मात्र वीतराग भाव की साधना करने वाला त्यागी सांधक! न पि सुही देवया देवलोए, न वि सुही सेटि सेरणावई य । न वि सुही पुढविपई राया,' एगंत-सुही साहू वीयरागी । भगवती सूत्र में भगवान् महावीर ने त्यांगजन्य आत्मनिष्ठ सुख की महत्ता और भोगजन्य वस्तुनिष्ठ वैषयिक सुख की हीनता बताते हुए कहा है कि बारह मास तक वीतराग भाव की साधना करने वाले श्रमण निग्रन्थ का आत्मनिष्ठ सुख, सर्वार्थ सिद्धि के सर्वोत्कृष्ट देवों के सुख से कहीं बढकर है ! संयम के सुख के सामने भला वेचाय वैषयिक सुख क्या अस्तित्व रखता है ? वैदिक धर्म के महान् योगी भर्तृहरि भी इसी स्वर में कहते हैं कि भोग मे रोग का भय है, कुल में किसी की मृत्यु का भय है,, धन मे राजा या चोर का भय है, युद्ध में पराजय का भय है । किं बहुना, संसार की प्रत्येक ऊँची से ऊँची और सुन्दर से सुन्दर वस्तु भय से युक्त हैं । एक मात्र वैराग्य भाव ही ऐसा है, जो पूर्ण रूप से अभय है, निराकुल है। 'सर्व वस्तु भयान्वित भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम् ।। -वैराग्य शतक यह उद्गार उस महाराजाधिराज भर्तृहरि का है, जिस के द्वार पर संसार की लक्ष्मी खरीदी हुई दासी की भॉति नृत्य किया करती थी, बड़े बढे राजा महाराजा क्षुद्र, सेवक की भॉति याज्ञापालन के लिए नगे पैरों Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक दिग्दर्शन दौड़ते थे। एक से एक अप्सरा सी सुन्दर रानियाँ अन्तःपुर में दीपशिखा की भाँति अन्धकार में प्रकाश रेखा सी नित्यनवीन शृगार साधना में व्यस्त रहती थी। यह सब होते हुए भी भर्तृहरि को वैभव में अानन्द नहीं मिला, उसकी आत्मा की प्यास नहीं बुझी । संसार के सुख भोगते रहे, मोगते रहे, बढ़-चढ़ कर भोगते रहे; परन्तु अन्त में यही निष्कर्ष निकला कि संसार के सब भोग क्षणभंगुर है, विनाशी हैं, कष्टप्रद है, इह लोक में पश्चात्ताप और परलोक में नरक के देने वाले हैं। जब कि संसार के इस प्रकार धनी मानी राजाओ की यह दशा है तो फिर तुच्छ अभावग्रस्त संसारी जीव किस गणना में हैं ? जहाँ भोग तहँ रोग है, जहाँ रोग तह सोग, जहाँ योग तहँ भोग नहिं, जहाँ योग, नहिं भोग ! बात जरा लबी होगई है, अतः समेट लूँ तो अच्छा रहेगा। सच्चा सुख क्या है, यह बात आपके ध्यान में आगई होगी। विषय सुख की निःसारता का स्पष्ट चित्र आपके सामने रख छोड़ा है। विषय सुख क्षणभंगुर है, क्योंकि विपय स्वयं जो क्षणभंगुर है। वस्तु विनाशी है तो वस्तुनिष्ठ सुख भी विनाशी है। जैसा कारण होगा, वैसा ही कार्य होगा। मिट्टी के बने पदार्थ मिट्टी के ही होंगे। नीम के वृक्ष पर श्राम कसे लग सकते हैं ? अतः क्षणभंगुर वस्तु से सुख भी क्षणभंगुर ही होगा, अन्यथा नहीं। अब रहा आत्मनिष्ट सुख । प्रात्मा- अजर अमर है, अविनाशी है, अतः तन्निप्ठ सुख भी अजर अमर अविनाशी ही होगा । अहिंसा, सत्य, संयम, शील, त्याग, वैराग्य, दया, करुणा श्रादि सब प्रात्मधर्म है। अतः इनकी साधना से होने वाला आध्यात्मिक सुख श्रात्मा से होने वाला सुख है; और वह अविनाशी सुख है, कभी भी नष्ट न होने वाला! छान्दोग्य उपनिषद् मे सुख की परिभाषा करते हुए कहा है कि 'जो अल्प है, विनाशी है, वह सुख नहीं है । और जो भूमा है, महान् है, अनन्त है, अविनाशी है, वस्नुनः वहीं सच्चा मुख है।" Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सच्चे सुख की सोध यो चै भूमा तत्सुखं . नाल्पे सुखमस्ति । (छान्दोग्य ७१ २३ । १) हाँ, तो क्या साधक सच्चा सुख पाना चाहता है ? और चाहता है सच्चे मन से, अन्दर के दिल से ? यदि हाँ तो आइए मन की भोगाकांक्षा को धूल की तरह अलग फैक कर त्याग के मार्ग पर, वैराग्य के पथ पर ! ममता के क्षद्र-घेरे को तोडने के बाद ही साधक भूमा होता है, महान् होता है, अजर अमर अनन्त होता है। और वह सच्चा सुख भी पूर्ण रूपेण यहीं इसी दशा में प्राप्त होता है ! भूले साथियो! अविनाशी सुख चाहते हो तो अविनाशी आत्मा की शरण में श्राओ यही सच्चा सुख मिलेगा । वह आत्मनिष्ठ है, अन्यत्र कहीं नहीं। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक-धर्म एक बार एक पुराने अनुभवी संत धर्म-प्रवचन कर रहे थे। प्रवचन करते करते तरंग मे या गए और अपने श्रोताओं से प्रश्न पूछने लगे, "बतायो, दिल्ली से लाहौर जाने के कितने मार्ग हैं ?" श्रोता विचार में पड़ गए। संत के प्रश्न करने की शैली इतनी प्रभावपूर्ण थी कि श्रोता उत्तर देने में हतप्रतिभ से हो गए। कहीं मेरा उत्तर गलत न हो जाय, इस प्रकार प्रतिष्ठाहानिरूप कुशंका उत्तर तो क्या, उत्तर के रूप में कुछ भी बोलने ही नहीं दे रही थी। उत्तर की थोडी देर प्रतीक्षा करने के बाद अन्ततोगत्वा सन्त ने ही कहा, "लो, मै ही बताऊँ। दिल्ली से लाहौर जाने के दो मार्ग हैं।" श्रोता अब भी उलझन में थे | अतः सन्त ने आगे कुछ विश्लेषण करते हुए कहा-"एक मार्ग है स्थल का, जो आप मोटर से, रेल से या पैदल, किसी भी तरह तय करते हैं। और दूसरा मार्ग है आकाश से होकर जिसे आप वायुयान के द्वारा तय कर पाते हैं। पहला सरल मार्ग है, परन्तु देर का है । और दूसरा कठिन मार्ग है, खतरे से भरा है, परन्तु है शीघ्रता का" उपयुक्त रूपक को अपने धार्मिक विचार का वाहन बनाते हुए सन्त ने कहा-"कुछ समझे ? मोक्ष के भी इमी प्रकार दो मार्ग है। एक गृहस्थ धर्म तो दूसरा साधु धर्म । दोनों ही मार्ग है, अमार्ग कोई Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक-धर्म नहीं। परन्तु पहला सरल होते हुए भी जरा देर का है । और दूसरा कठिन होते हुए भी बडी शोघ्रता का है । बताओ, तुम कौन से मार्ग से मोक्ष जाना चाहते हो? ___ . सन्त की बात को लम्बी करने का यहाँ कोई प्रयोजन नहीं है। यहाँ प्रयोजन है एक मात्र पिछले अध्यायो की संगति लगाने का और जीवन की राह हूँढने का । मानव जीवन का लक्ष्य है सच्चा सुख । और वह सच्चा सुख है त्याग में, धर्म के प्राचरण मे । धर्माचरण और त्याग से हीन मनुष्य, मनुष्य नही, पशु है । मिट्टी को मनुष्य का आकार मिल जाने में ही कोई विशेषता नहीं है। यह प्राकार तो हमे अनन्त अनन्त बार मिला है, परन्तु उस से परिणाम क्या निकला? रावण मनुष्य था और राम भी, परन्तु दोनो मे कितना अन्तर था ? पहला शरीर के आकार से मनुष्य था तो दूसरा श्रात्मा की दिव्य विभूति के द्वारा मनुष्य था । जब तक मनुष्य की प्रात्मा मे मनुष्यता का प्रवेश न हो, तब तक न उस मानव व्यक्ति का कल्याण है और न उसके आसपास के मानव समाज का ही । मानव का विश्लेषण करता हुआ, देखिए, लोकोक्ति का यह सूत्र, क्या कह रहा है--"आदमी आदमी में अन्तर, कोई हीरा कोई केकर।" कौन हीरा है और कौन कंकर ? इस प्रश्न के उत्तर में पहले भी कह पाए हैं और अब भी कह रहे है कि जो धर्म का प्राचरण करता है, गृहस्थ का अथवा साधु का किसी भी प्रकार का त्याग-मार्ग अपनाता है, वह मनुष्य प्रकाशमान हीरा है । और धर्माचरण से शून्य, भोग-विलास के अन्धकर में श्रात्म-स्वरूप से भटका हुआ मनुष्य, भले ही दुनियादारी की दृष्टि से कितना ही क्यों न बडा हो, परन्तु वस्तुतः मिट्टी का कंकर है। सच्चा और खरा मनुष्य वही है, जो अपने बन्धन खोलने का प्रयत्न करता है और अपने को मोक्ष का अधिकारी बनाता है। जैन संस्कृति के अनुसार मोक्ष का एकमात्र मार्ग धर्म है, और Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावश्यक दिग्दर्शन उसके दो भेद हैं-~-सागार धर्म और अनगार धर्म। सागार धर्म गृहस्थ धर्म को कहते हैं, और अनगार धर्म साधु धर्म को । भगवान् महावीर ने इसी सम्बन्ध में कहा है: चरित्त - धम्मे दुविहे पएणत्ते, तंजहाअगार चरित्त धम्मे चेव अरणगारचरित्त धम्म चेव [स्थानांग सूत्र ] सागार धर्म एक सीमित मार्ग है । वह जीवन की सरल किन्तु छोटी पगडंडी है। वह धर्म, जीवन का राज मार्ग नहीं है। गृहस्थ संसार में रहता है, अतः उस पर परिवार, समाज और राष्ट्र का उत्तर दायित्व है। यही कारण है कि वह पूर्ण रूपेण अहिंसा और सत्य के राज-मार्ग पर नहीं चल सकता। उसे अपने विरोधी प्रतिद्वन्द्वी लोगो से संघर्ष करना पड़ता है, जीवनयात्रा के लिए कुछ-न-कुछ शोपण का मार्ग अपनाना होता है, परिग्रह का जाल बुनना होता है न्याय मार्ग पर चलते हुए भी अपने व्यक्तिगत या सामाजिक स्वार्थों के लिए कहीं न कहीं किसी से टकराना पड़ जाता है, अतः वह पूर्णतया निरपेक्ष स्वात्मपरिणति रूप अखण्ड अहिंसा सत्य के अनुयायी साधुधर्म का दावेदार नहीं हो सकता। गृहस्थ का धर्म अणु है, छोटा है, परन्तु वह हीन एवं निन्दनीय नहीं है। कुछ पक्षान्ध लोगो ने गृहस्थ को जहर का भरा हुया कटोरा बताया है। वे कहते हैं कि जहर के प्याले को किसी भी अोर से पीजिए, जहर ही पीने में पायगा, वहाँ अमृत कैसा ? गृहस्थ का जीवन जिधर भी देखो उधर ही पाप से भरा हुया है, उसका प्रत्येक प्राचरण पारमय है, विकारमय है, उसमे धर्म कहाँ ? परन्तु ऐमा कहने वाले लोग सत्य की गहराई तक नहीं पहुँच पाए हैं, भगवान् महावीर की वाणी का मर्म नहीं समझ पाए हैं। यदि सदाचारी से सदाचारी गृहस्थ जीवन भी जहर का प्याला ही होता,'उनकी अपनी भाषा में कुत्र ही होता, तो जैन-संस्कृति के प्राण प्रतिष्ठापक भगवान् महावीर धर्म के दो भेदों में क्यो गृहय धर्म की Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक धर्म गणना करते ? क्यो उच्च सदाचारी गृहस्थों को श्रमण के समान उपमा देते हुए 'समणभूए' कहते ? क्यों उत्तराध्ययन सूत्र के पंचम अध्ययन की वाणी में यह कहा जाता कि कुछ भिन्तुओं की अपेक्षा संयम की दृष्टि से गृहस्थं श्रेष्ठ है और गृहस्थ दशा में रहते हुए भी साधक सुव्रत हो जाता है। 'संति एगेहि भिक्खूहि गारस्था संजमुत्तरा ।' 'एवं सिक्खासमावन्ने गिहिवासे वि सुव्वए।' यह ठीक है कि गृहस्थ का धर्म-जीवन क्षुद्र है, साधु का जैसा महान् नहीं है। परन्तु यह तुद्रता साधु के महान् जीवन की अपेक्षा से है। दूसरे साधारण भोगासक्ति की "दलदल में फंसे संसारी मनुष्यों की अपेक्षा तो एक धर्माचारी सद्गृहस्थ का जीवन महान ही है, क्षुद्र नहीं । प्रवचन सारोद्धार ग्रन्थ में श्रावक के सामान्य गुणों का निरूपण - करते हुए कहा गया है कि "श्रावक प्रकृति से गंभीर एवं सौम्य होता है। दान, शील, सरल व्यवहार के द्वारा जनता का प्रेम प्राप्त करता है। पापों से डरने वाला, दयालु, गुणानुरागी, पक्षपात रहित मध्यस्थ, बडों का आदर सत्कार करने वाला, कृतज% किए उपकार को मानने चाला, परोपकारी एवं हिताहित मार्ग का ज्ञाता दीर्घदी होता है।" धर्म संग्रह में भी कहा है कि "श्रावक इन्द्रियों का गुलाम नहीं होता, उन्हे वश में रखता है। स्त्री-मोह मे पड़कर वह अपना अनासक्त मार्ग नहीं भूलता । महारंभ और महापरिग्रह से दूर रहता है। भयंकर से भयंकर सेंकटों के आने पर भी सम्यक्त्व से भ्रष्ट नहीं होता । लोकरूढि का सहारा लेकर वह भेड चाल नहीं अपनाता, अपितु सत्य के प्रकाश में हिताहित का निरीक्षण करता है। श्रेष्ठ एवं दोष-रहित धर्माचरण की साधना में किसी प्रकार की भी लजा एवं हिचकिचाहट नहीं करता । अपने पक्ष का मिथ्या आग्रह कभी नहीं करता । परिवार आदि का पालन पोषण करता हुश्रा भी अन्तहदय से अपने को अलग रखता है, पानी में कमल बनकर रहता है।" Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .४२ , आवश्यक दिग्दर्शन था अन्धा ! वह भटकता है, यात्रा नहीं करता। यात्री के लिए अपनी पॉखे चाहिए | वह अॉख सम्यक्त्व है । इस अॉख के बिना प्राध्यात्मिक जीवन यात्रा से नहीं की जा सकती। जब गृहस्थ . यह सम्यक्त्व की भूमिका प्राप्त कर लेता है तो कवि की प्राध्यात्मिक भाषा में भगवान् वीतराग देव का लघु पुत्र हो जाता है । यह पद कुछ कम महत्त्व पूर्ण नहीं है। बड़ी भारी ख्याति है इसकी आध्यात्मिक क्षेत्र में । ज्ञाता धर्मकथा सूत्र में सम्यक्त्व को रत्न की उपमा दी है । वस्तुतः यह वह चिन्तामणि रत्न है, जिसके द्वारा साधक जो पाना चाहे वह सब पासकता है। अनन्त काल से हीन, दीन, दरिद्र भिखारी के रूप में भटकता हुया यात्मदेव सम्यक्त्व रत्न पाने के बाद एक महान आध्यात्मिक धन का स्वामी हो जाता है। सम्यक्त्वी की प्रत्येक क्रिया. निराले ढंग की होती हैं। उसका सोचना, समझना, बोजना और करना सब कुछ विलक्षण होता है । वह संसार में रहता हुया भी संसार से निर्विरण हो जाता है, उसके अन्तर ' में शम, संवेग, निर्वेद और अनुकम्या का अमृत मागर ठाठे मारने लगता है। विश्व के अनन्तानन्त चर अचर प्राणियों के प्रति उसके कोमल हृदय से दया का झरना बहता है और वह चाहता है कि संमार के सत्र जीव सुखी हों, क्ल्याणभागी हों। सब को यात्मभान हो, ससार से विरक्ति हो ! सम्यक्त्वी का जीवन ही अनुकम्पा का जीवन है। वह विश्व को मंगलमय देखना चाहता है । वीत राग देव, निम्रन्थ गुरु और वीतराग प्ररूपित धर्म पर उसका इतना हद अास्तिक भाव होता है कि यदि संसार भर की देवी शक्तियाँ डिगाना चाहे नत्र भी नहीं दिग सकता। अला वह प्रकाश से अन्धकार में जाए तो कैसे जाए ? प्रकाश उस के लिए जीवन है और अन्धकार मृत्यु ! उसकी यात्रा सत्य से असत्य की श्रोर नहीं, अपितु असत्य से सत्य की अोर है। यह एक महान् भारतीय दार्शनिक के शब्दों में प्रतिपल प्रतिक्षण, यही भावना भाता है कि 'भसतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय ।' Pre Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक धर्म ४३. __ आध्यात्मिक विकासक्रम में सम्यक्त्व की भूमिका चतुर्थ गुणस्थान की है। जब साधक सम्यक्त्व का अजर अमर प्रकाश साथ लेकर आध्यात्मिक यात्रा के लिए अग्रसर होता है तो देशव्रती श्रावक की पंचम भूमिका पाती है। यह वह भूमिका है, जहाँ अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह भाव की मर्यादित साधना प्रारम्भ हो जाती है। सर्वथा न करने से कुछ करना अच्छा है, यह आदर्श है इस भूमिका का ! गृहस्थ का जीवन है, अतः पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय उत्तरदायित्वो का बहुत बड़ा भार है मस्तक पर ! ऐसी स्थिति में सर्वथा परिपूर्ण त्याग का मार्ग तो नहीं अपनाया जा सकता । परन्तु अपनी स्थिति के अनुकूल मर्यादित त्याग तो ग्रहण किया जा सकता है । अस्तु, इस मर्यादित एवं प्रांशिक त्याग का नाम ही आगम की भाषा मे देश-विरति है ! अभी अपूर्ण त्याग है, परन्तु अन्तर्मन में पूर्ण त्याग का लक्ष्य है। इस प्रकार के देशविरति श्रावक के बारह व्रत होते हैं । आगमसाहित्य में बारह व्रतों का बडे विस्तार के साथ वर्णन किया है । यहाँ इतना अवकाश नहीं है, और 'प्रसंग भी नहीं है । अतः भविष्य मे कही अन्यत्र विस्तार की भावना रखते हुए भी यहाँ संक्षेप में दिग्दर्शन मात्र कराया जा रहा है । १-अहिंसा व्रत सर्व प्रथम अहिंसा व्रत है। अहिंसा हमारे आध्यात्मिक जीवन की आधार भूमि है ! भगवान महावीर के शब्दो में 'अहिंसा भगवती है।' इस भगवती की शरण स्वीकार किए विना साधक आगे नहीं बढ सकता। अहिंसा की साधना के लिए प्रतिज्ञा लेनी होती है कि 'मै मन, वचन, काय से किसी भी निरपराध एवं निर्दोष त्रस प्राणी की जान बूझ कर हिंसा न स्वयं करूँगा और न दूसरों से कराऊँगा । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति रूप स्थावर जीवों की हिसा भी व्यर्थ एवं अमर्यादित रूप में न करूँगा और न कराऊँगा।' . Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक दिग्दर्शन अहिंसा व्रत की रक्षा के लिए निम्नलिखित पाँच कार्यों का त्याग अवश्य करना चाहिए (१) जीवों को मारना, पीटना, त्रास देना। (२) अग-भंग करना, विरूप एवं अपंग करना । (३) कटोर बन्धन से बाँधना, या पिंजरे आदि में रखना । (४) शक्ति से अधिक भार लादना या काम लेना । (५) समय पर भोजन न देना, भूखा-यामा रखना । २-सत्य व्रत असत्य का अर्थ है, झूट बोलना । केवल बोलना ही नहीं, झूठा सोचना और झूठा काम करना भी असत्य है । अनन्तकाल से आत्मा असत्यमय होने के कारण दुःख उठाती या रही है, क्लेश पाती या रही है । यदि इस दुःख और क्लेश की परम्परा से मुक्ति पानी है तो असत्य का त्याग करना चाहिए । भगवान् महावीर ने सत्य को भगवान् कहा है। भगवान् सत्य की सेवा में प्रात्मार्पण किए बिना अखएड आत्मस्वरूप की उपलब्धि नहीं हो सकती। ___ गृहस्थ साधक को सत्य की साधना के लिए प्रतिज्ञा लेनी होती है कि मैं जान बूझ कर झूटी माक्षी श्रादि के रूप में मोटा झूठ न स्वयं बोलूँगा, और न दूसरों से बुलवाऊँगा। सत्य व्रत की रक्षा के लिए, निम्नलिखित कार्यों का त्याग करना चाहिए (१) दूसरों पर झूठा आरोप लगाना। (२) दूसरों की गुप्त बातों को प्रकट करना । (३) पत्नी आदि के साथ विश्वासघात करना। (४) बुरी या झूटी मलाह देना । (५.) भूठी दस्तावेज बनाना, जालसाजी करना। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक धर्म । ४५ . . ३-अचौर्य व्रत ___ दूसरे की सम्पत्ति पर अनुचित अधिकार करना चोरी है। मनुष्य को अपनी आवश्यकताएँ अपने पुरुषार्थ के द्वारा प्राप्त हुए साधनों से ही पूर्ण करनी चाहिएँ । यदि कभी प्रसंगवश दूसरों से भी कुछ लेना हो तो वह सहयोग पूर्वक मित्रता के भाव से दिया हुआ ही लेना चाहिए । किसी भी प्रकार का बलाभियोग अथवा अनधिकार शक्ति का उपयोग करके कुछ लेना, लेना नहीं है, छीनना है। गृहस्थ साधक पूर्णरूप से चोरी का त्याग नहीं कर सकता तो कम से कम सेन्ध लगाना, जेब कतरना, डाका डालना इत्यादि सामाजिक एव धार्मिक दृष्टि से सर्वथा अयोग्य चोरी का त्याग तो करना ही चाहिए। अस्तेय व्रत की प्रतिज्ञा है कि मै स्थूल चोरी न स्वयं करूँगा और न दूसरों से करवाऊँगा। अस्तेय व्रत की रक्षा के लिए निम्नलिखित कार्यों का त्याग आवश्यक है (१) चोरी का माल खरीदना । (२) चोरी के लिए सहायता देना। (३) राष्ट्रविरोधी कार्य करना, कर श्रादि की चोरी करना । (४) झूठे तोल माप रखना । (५) मिलावट करके अशुद्ध वस्तु वेचना । ४-ब्रह्मचर्य व्रत स्त्री-पुरुष सम्बन्धी संभोग क्रिया में भी जैन-धर्म पाप मानता है। प्रकृतिजन्य कहकर वह इस कार्य की कभी भी उपेक्षा करने के लिए नहीं कहता। संभोग क्रिया में असंख्य सूक्ष्म जीवों की हिंसा होती है । और कामवासना स्वयं भी अपने आप में एक पाय है। यह अात्मजीवन की एक प्रमुख बहिर्मुख क्रिया है। यदि गृहस्थ पूर्णरूप से ब्रह्मचर्य धारण नहीं Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक दिग्दर्शन कर सकता तो उसको यह प्रतिज्ञा तो लेनी ही चाहिए कि 'मै 'स्वपत्नी. सन्तोष के 'अतिरिक्त अन्य सभी प्रकार का व्यभिचार न स्वयं करूँगा और न दूसरों से कराऊँगा। अपनी पत्नी के साथ भी अति संभोग नहीं करूँगा।' ब्रह्मचर्य व्रत की रक्षा के लिए निम्नलिखित कार्यों का त्याग आवश्यक है (१) किसी रखेल के साथ संभोग करना। (२) परस्त्री, अविवाहिता तथा वेश्या श्रादि के साथ संभोग करना । । (३) अप्राकृतिक संभोग करना। (४) दूसरो के विवाह-लग्न कराने में अमर्यादित भाग लेना। (५) कामभोग की तीव्र आसक्ति रखना, अति संभोग करना । ५-अपरिग्रह व्रत परिग्रह भी एक बहुत बड़ा पाप है। परिग्रह मानव-समाज की मनोभावना को- उत्तरोत्तर दूषित करता जाता है और किसी प्रकार का भी खपरहिताहित एवं लाभालाभ का विवेक नहीं रहने देता है । सामाजिक विषमता, संघर्ष, कलह एवं अशान्ति का प्रधान कारण परिग्रहवाद ही है । अतएव स्व और पर की शान्ति के लिए अमर्यादित स्वार्थवृत्ति एवं संग्रह बुद्धि पर नियंत्रण रखना आवश्यक है। - अपरिग्रह व्रत की प्रतिज्ञा के लिए निम्नलिखित वस्तुओं के अतिपरिग्रह-त्याग की उचित मर्यादा का निर्धारण करना चाहिए (१) मकान, दूकान और खेत आदि की भूमि । .' (२) सोना और चॉदी। - (३) नोकर चाकर तथा गाय, मैंस आदि द्विपद चतुष्पद । (४) मुद्रा,, जवाहिरात आदि धन और धान्य । १-स्त्री को स्वपति-सन्तोष' कहना चाहिए। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक धर्म । ४७ (५) प्रति दिन के व्यवहार में आने वाली पात्र, शयन, श्रासन श्रादि घर की अन्य वस्तुएं । ६-दिग्वत पापाचरण के लिए गमनागमनादि क्षेत्र को विस्तृत करना जैन 'गृहस्थ के लिए निषिद्ध है। बडे-बडे राजा सेनाएँ लेकर दिग्विजय को निकलते हैं और जिधर भी जाते हैं, सहार मचा देते हैं। बडे-बडे व्यापारी व्यापार करने के लिए चलते हैं और आस-पास के राष्ट्रो की गरीव प्रजा का शोषण कर डालते हैं। इसीलिए भगवान् महावीर ने दिग्वत का विधान किया है। दिव्रत में कर्मक्षेत्र की मर्यादा बॉधी जाती है अर्थात् सीमा निश्चित की जाती है । उस निश्चित सीमा के बाहर जाकर हिंसा, असत्य आदि पापाचरण का पूर्ण रूप से त्याग करना, दिग्नत का लक्ष्य है। ७-उपभोग परिभोग-परिमाण व्रत जीवन भोग से बॅग हुआ है । अतः जब तक जीवन है, भोग का सर्वथा त्याग तो नहीं किया जा सकता । हॉ, श्रासक्ति को कम करने के लिए भोग की मर्यादा अवश्य की जा सकती है। अनियंत्रित जीवन विषाक्त हो जाता है। वह न अपने लिए हितकर होता है और न जनता के लिए । न इस लोक के लिए श्रेयस्कर, होता है और न परलोक के लिए । अनियंत्रित भोगासक्ति संग्रह बुद्धि को उत्तेजित करती है। संग्रहबुद्धि परिग्रह का जाल बुनती है। परिग्रह का जाल ज्यों-ज्यों फैलता जाता है, त्यों-त्यों हिंसा, द्वेष, घृणा, असत्य, चौर्य आदि पापों की परम्परा लम्बी होती जाती है। अतएव श्रमण संस्कृति गृहस्थ के लिए भोगासक्ति कम करने और उसके लिए उपभोग परिभोग में आने वाले भोजन, पान, वस्त्र आदि पदार्थों के प्रकार एवं सख्या को मर्यादित करने का विधान करती है। यह मर्यादा एक-दो-तीन दिन आदि के रूप में सीमित काल तक या यावज्जीवन के लिए की जा सकती है । उक्त Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ ' आवश्यक दिग्दर्शन व्रत के द्वारा पञ्चम व्रत के रूप में परिमित किए गए परिग्रह : को और अधिक परिमित किया जाता है और अहिंसा की भावना को और अधिक विराट एवं प्रबल बनाया जाता है। ___यह सप्तम व्रत अयोग्य व्यापारों का निषेध भी करता है ।. गृहस्थजीवन के लिए व्यापार धधा आवश्यक है । विना उत्पादन एवं धनार्जन के गृहस्थ की गाडी कैसे अग्रसर हो सकती है ? परन्तु व्यापार करते समय यह विचार अवश्य करणीय है कि 'यह व्यापार न्यायोचित है या नहीं ? इसमे अल्पारंभ है या महारंभ ?? अस्तु, महारभ होने के कारण वन काटना, जंगल में आग लगाना, शराब और' विष प्रादि वेचना, सरोवर तथा नदी आदि को सुखाना आदि कार्य जैन-गृहस्थ के लिए वर्जित हैं । ८-अनर्थ दण्ड विरमण व्रत मनुष्य यदि अपने जीवन को विवेक शून्य एवं प्रमत्त रखता है तो विना प्रयोजन भी हिंसा आदि कर बैठता है । मन, वाणी और शरीर को सदा जागृत रखना चाहिए और प्रत्येक क्रिया विवेक युक्त ही करनी चाहिए । अप्राप्त भोगो के लिए मन में लालसा रखना, प्राप्त भोगो की रक्षा के लिए चिन्ता करना, बुरे विचार एवं बुरे संकल्प रखना, पापकार्य के लिए परामर्श देना, हाथ और मुख अादि से अभद्र चेष्टाएँ करना, काम भोग-सम्बन्धी वार्तालाप में रस लेना, बात-बात पर अभद्र गाली देने की आदत रखना, निरर्थक हिसा कारक शस्त्रों का संग्रह करना, आवश्यकता से अधिक व्यर्थं भोग-सामग्री इकट्ठी करना, तेल तथा घी आदि के पात्र विना ढके खुले मुँह रखना; इत्यादि सब अनर्थ दण्ड है । साधक को इन सब अनर्थ दण्डो से. निवृत्त रहना चाहिए । . . . ह–सामायिक व्रत जैन साधना में सामायिक व्रत का बहुत बड़ा महत्त्व है । सामायिक का अर्थ समता है। रागद्वेषवर्द्धक संसारी प्रपंचों से अलग होकर जीवन यात्रा को निष्पाप एव पवित्र बनाना ही समता है। गृहस्थ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक धर्म .४६ अाखिर गृहस्थ है। वह साधु नही है, जो यावज्जीवन के लिए सत्र पाप व्यापारों का पूर्ण रूप से परित्याग कर पवित्र जीवन बिता सके । अनः उसे प्रतिदिन कम से कम ४८ मिनट के लिए तो सामायिक व्रत धारण करना ही चाहिए। यद्यपि मुहूर्त भर के लिए पापव्यापारों का त्याग करने रूर सामायिक व्रत का काल अल्प है, तथापि इसके द्वारा अहिसा एव समता की विराट झॉकी के दर्शन होते हैं । सामायिक व्रत की साधना करते समय साधारण गृहस्थ साधक भी लगभग पूर्ण । निष्पाप जैसी ऊँची भूमिका पर आरूढ हो जाता है । श्राचार्य भद्रबाहु - स्वामी ने इस सम्बन्ध मे स्पष्ट कहा है-'सामाइयम्मि उ कए, समणो इव सावो हवइ जम्हा । अर्थात् सामायिक कर लेने पर श्रावक श्रमणजैसा हो जाता है। यह गृहस्थ की सामायिक साधु की पूर्ण सामायिक के अभ्यास की भूमिका है । यह दो घडी का प्राध्यात्मिक स्नान है, जो जीवन को पापमल से हल्का करता है एव अहिंसा की साधना को स्फूर्तिशील बनाता है। सामायिक के द्वारा किया जाने वाला पापाश्रव-निरोध एवं आत्मनिरीक्षण साधक के लिए वह अमूल्य निधि है, जिसे पाकर आत्मा परमात्मरूप की ओर असर होता है। १०-देशावकाशिक व्रत परिग्रह परिमाण और दिशा परिमाण व्रत की यावज्जीवन सम्बन्धी __ प्रतिज्ञा को और अधिक व्यापक एवं विराट बनाने के लिए देशावकाशिक " व्रत ग्रहण किया जाता है। दिशा-परिमाण व्रत में गमनागमन का क्षेत्र ___ यावज्जीवन के लिए सीमित किया जाता है । और यहाँ उस सीमित 'क्षेत्र को एक दो दिन आदि के लिए और अधिक सीमित कर लिया जाता है । देशावकाशिक व्रत की साधना में जहाँ क्षेत्रसीमा सक्नुचित • होती है, वहाँ उपभोग सामग्री की सीमा भी संक्षिप्त होती है। यदि __ साधक देशावकाशिक व्रत की प्रतिदिन साधना करे तो उस की अनारंभमय Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "५० श्रावश्यक-दिग्दर्शन अहिसा-साधना अधिकाधिक व्यापक होकर आत्म-तत्त्व अपनी स्वाभाविक . स्थिति में स्वच्छ हो जाए। ' ११-पौषध व्रत यह व्रत जीवन-संघर्ष की सीमा को और अधिक संक्षिप्त करता है। एक अहोरात्र अर्थात् रात-दिन के लिए सचित्त वस्तुओं का, शस्त्र का, पाप व्यापार का, भोजन-पान का तथा अब्रह्मचर्य का त्याग करना पौषध'व्रत है। पौषध की स्थिति साधुजीवन जैसी है। अतएव पौपध में कुरता, कमीज, कोट आदि गृहस्थोचित वस्त्र नहीं पहने जाते, पलंग आदि पर नहीं सोया जाता और स्नान भी नहीं किया जाता । सांसारिक प्रपंचो से सर्वथा अलग रह कर एकान्त मे स्वाध्याय, ध्यान तथा प्रात्म- ... चिन्तन आदि करते हुए जीवन को पवित्र बनाना ही इस व्रत का उद्देश्य है। १२-अतिथि-संविभाग व्रत । गृहस्थ जीवन मे सर्वथा परिग्रह-रहित नहीं हुआ जा सकता । यहाँ मन मे संग्रह बुद्धि बनी रहती है और तदनुसार संग्रह भी होता रहता है । परन्तु यदि उक्त संग्रह और परिग्रह का उपयोग अपने तक ही सीमित रहता है, जनकल्याण में प्रयुक्त नहीं होता है तो वह महाभयंकर पाप बन जाता है। प्रतिदिन बढ़ते हुए परिग्रह को बढ़े हुए नख की उपमा दी है । बढ़ा हुआ नाखून अपने या दूसरे - के शरीर पर जहाँ भी लगेगा, घाव ही करेगा। अतः बुद्धिमान् सभ्य मनुष्य का कर्तव्य हो जाता है कि वह बढे हुए नाखून को यथावसर काटता रहे । इसी प्रकार परिग्रह भी मर्यादा से अधिक बढ़ा हुआ अपने को तथा आस-पास के दूसरे साथियों को तंग ही करता है, अशान्ति ही बढ़ाता है। इसलिए जैन-धर्म परिग्रह-परिमाण में धर्म बताता है और उस परिमित परिग्रह में से भी नित्य प्रति दान देने का विधान करता है। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक-धर्म दान, परिग्रह का प्रायश्चित है। प्राप्त वस्तुओं का स्वार्थ बुद्धि से अकेला उपभोग करना, पाप है । गृहस्थ को उक्त पाप से बचना चाहिए। गृहस्थ के घर का द्वार जन-सेवा के लिए खुला रहना चाहिए । यदि कभी त्यागी साधु-संत पधारे तो भक्ति भाव के साथ उनको योग्य पाहार पानी अादि बहराना चाहिए और अपने को धन्य मानना चाहिए। यदि कभी अन्य कोई अतिथि आए तो उसका भी योग्य सत्कार सम्मान करना चाहिए । गृहस्थ के द्वार पर से यदि कोई व्यक्ति भूखा और निराश लौटता है तो यह समर्थं गृहस्थ के लिए पाप है। अतिथि संविभाग व्रत इसी पाप से बचने के लिए है! यह संक्षेप में जैनगृहस्थ की धर्म साधना का वर्णन है। अधिक विस्तार में जाने का यहाँ प्रसंग नहीं है, अतः संक्षिप्त रूप रेखा बता कर ही सन्तोष कर लिया गया है। धर्म के लिए वर्णन के बिस्तार की उतनी आवश्यकता भी नहीं है जितनी कि जीवन में उतारने की आवश्यकता है। धर्म जीवन में उतरने के बाद ही स्व-पर कल्याणकारी होता है । अतएव गृहस्थों का कर्तव्य है कि उक्त कल्याणकारी नियमों को जीवन में उतारें और अहिंसा एवं सत्य के प्रकाश में अपनी मुक्तियात्रा का पथ प्रशस्त बनाएँ। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-धर्म .श्रावक-धर्म से आगे की कोटि साधु-धर्म की है। साधु-धर्म के लिए हमारे प्राचीन प्राचार्यों ने ,आकाश-यात्रा शब्द का प्रयोग किया है । अस्तु; यह साधु-धर्म की यात्रा साधारण यात्रा नही है । आकाश में उड़ कर चलना कुछ सहज बात है ? और वह आकाश भी कैसा ? संयम जीवन की पूर्ण पवित्रता का आकाश । इस जड़ आकाश मे तो मक्खी -मच्छर ,भी उड लेते हैं, परन्तु संयम-जीवन की, पूर्ण- पवित्रता के चैतन्य आकाश में उडने वाले विरले, ही कर्मवीर मिलते हैं। ... साधु होने के लिए केवल बाहर से वेष बदल लेना ही काफी नहीं है, यहाँ तो अन्दर से सारा जीवन ही बदलना पडता है, जीवन का समूचा लक्ष्य ही बदलना पडता है। यह मार्ग फूलों का नहीं, कॉटों का है । नंगे पैरों जलती आग पर चलने जैसा दृश्य है साधु-जीवन का ! उत्तराध्ययन सूत्र के १६ वें अध्ययन में कहा है कि-'साधु होना, लोहे के जौ चबाना है, दहकती ज्वालाओं को पीना है, कपड़े के थैले कोहवा से भरना है, मेरु पर्वत को तराजू पर रखकर तौलना है, और महा समुद्र को भुजानो से तैरना है,। इतना ही नहीं, तलवार की नग्न धार पर नंगे पैरो चलना है।' वस्तुतः साधु-जीवन इतना ही उग्र जीवन है । वीर, धीर, गम्भीर, एवं साहसी साधक ही इस दुर्गम पथ पर चल सकते हैं-'चरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्ग पथस्तत्कवयो वदन्ति ।' जो लोग कायर Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-धर्म हैं, साहसहीन हैं, वासनाओं के गुलाम हैं, इन्द्रियों के चक्कर में हैं, . और दिन-रात इच्छाओं की लहरों के थपेड़े खाते रहते हैं, वे भला क्यों कर इस तुर-धारा के दुर्गम पथ-पर चल सकते हैं ? , साधु-जीवन के लिए भगवान् महावीर ने अपने अन्तिम प्रवचन में कहा है-"साधु को ममतारहित, निरहंकार, निःसंग, नम्र और प्राणिमात्र पर समभावयुक्त रहना चाहिए । लाम हो या हानि हो, सुख हो या दुःख हो, जीवन हो या मरण हो, निन्दा हो या प्रशंसा हो, मान हो या अपमान हो, सर्वत्र सम रहना ही साधुता है। सच्चा साधु न इस लोक में कुछ अासक्ति रखता है और न परलोक में। यदि कोई विरोधी तेज कुल्हाड़े से काटता है या कोई भक्त शीतल एवं सुगन्धित चन्दन का लेप लगाता है, साधु को दोनो पर एक जैसा ही समभाव रखना होता है। वह कैसा साधु, जो क्षण-क्षणमें राग-द्वष' की लहरों मे बह निकले । न भूख पर नियंत्रण रख सके और न भोजन पर निम्ममो निरहंकारो, निस्संगो चत्त गारवो। समो य सव्वभूएसु, ' , • . तसेसु · थावरेसु थे। लाभालाभे सुहे दुक्खे, . जीचिए मरणे सहाः। समो निंदा - पसंसास समो माणावमाणो॥ अणिस्सिो इहं लोए, . परलोए अणिस्सिओ।' . वासी - चंदणकप्पो य, .असणे अणसणे तहा ।। -उत्तरा० १६, ८६, ६०, ६२ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '. आवश्यक दिग्दर्शन , भगवान् महावीर की वाणी के अनुसार साधु-जीवन न राग का' जीवन है और न द्वेष का। वह तो पूर्णरूपेण समभाव एवं तटस्थ वृत्ति का जीवन है। साधु विश्व के लिए कल्याण एवं मङ्गल की जीवित मूर्ति है। वह अपने हृदय के कण-कण में सत्य और करुणा का अपार अमृतसागर लिए भूमण्डल पर विचरण करता है, प्राणिमात्र को विश्वमैत्री का अमर सन्देश देता है। वह समता के ऊँचे से ऊँचे प्रादर्शों पर विचरण करता है, अपने मन, वाणी एवं शरीर पर कठोर नियंत्रण रखता है । संसार की समस्त भोग वासनाओं से सर्वथा अलिप्त रहता है, और क्रोध, मान, माया एवं लोभ की दुर्गन्ध से हजार-हजार कोस की दूरी से बचकर चलता है। देवाधिदेव श्रमण भगवान् महावीर ने उपयुक्त पूर्ण त्याग मार्ग पर चलने वाले साधुओं को मेरु पर्वत के समान अप्रकंप, समुद्र के समान गम्भीर, चन्द्रमा के समान शीतल, सूर्य के समान तेजस्वी और पृथ्वी के समान सर्वसह कहा है। सूत्रकृतांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्धान्तर्गत दूसरे क्रिया स्थान नामक अव्ययन में साधु-जीवन सम्बन्धी उपमाओं की यह लम्बी शृंखला, आज भी हर कोई जिज्ञासु देख सकता है। इसी अध्ययन के अन्त मे भगवान् ने साधु जीवन को एकान्त पण्डित, प्राय; एकान्तसम्यक् , सुसाधु एवं सब दुःखो से मुक्त होने का मार्ग बताया है। 'एस.ठाणे श्रायरिए जाव सव्वदुक्खपहीण मग्गे एगंतसम्मे सुसाहू।। भगवती-सूत्र में पाँच प्रकार के देवों का वर्णन है। वहाँ भगवान् महावीर ने गौतम गणधर के प्रश्न का समाधान करते हुए साधुओं को साक्षात् भगवान् एवं धर्मदेव कहा है। वस्तुतः साधु, धर्म का जीता-जागता देवता ही है। 'गोयमा ! जे इमे अणगारा भगवंतो इरियासमिया""जाव गुत्तबंभयारी, से तेण?णं एवं वुच्चइ धम्मदेवा। -भग० १२ श० ६ उ. Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-धर्म भगवती-सूत्र के १४ वे शतक में भगवान् महावीर ने साधुजीवन के अखण्ड अानन्द का उपमा के द्वारा एक बहुत ही सुन्दर चित्र उपस्थित किया है। गणधर गौतम को सम्बोधित करते हुए भगवान् कह रहे हैं- "हे गौतम! एक मास की दीक्षा वाला श्रमण निग्रन्थ वानन्यन्तर देवों के सुख को अतिक्रमण कर जाता है। दो मास की दीक्षा वाला नागकुमार आदि भवनवासी देवो के सुख को अतिक्रमण कर जाता है। इसी प्रकार तीन मास की दीक्षा वाला असुरकुमार देवो के सुख को, चार मास की दीक्षा वाला ग्रह, नक्षत्र एवं ताराश्रो के सुख को, पाँच मास की दीक्षा वाला ज्योतिष्क देव जाति के इन्द्र चन्द्र एवं सूर्य के सुख को, छः मास की दीक्षा वाला सौधर्म एवं ईशान देवलोक के सुख को, सात मास की दीक्षा वाला सनत्कुमार एवं माहेन्द्र देवों के सुख को, पाठ मास की दीक्षा वाला ब्रह्मलोक एवं लांतक देवों के सुख को, नवमास की दीक्षा वाला पानत. एवं प्राणत देवों के सुख को, दश मास की दीक्षा वाला धारण -एवं अच्युत देवों के सुख को, ग्यारह मास की दीक्षा वाला नव वेयक देवों के सुख को तथा बारह मास की दीक्षा वाला श्रमण अनुत्तरोपपातिक देवों के सुख को अतिक्रमण कर जाता है।" -भग० १४, ६ । पाठक देख सकते हैं-भगवान् महावीर की दृष्टि मे साधुजीवन का कितना बड़ा महत्त्व है ? बारह महीने की कोई विराट साधना होती है ? परन्तु यह तुद्रकाल की साधना भी यदि सच्चे हृदय से की जाय तो उसका अानन्द विश्व के स्वर्गीय सुख साम्राज्य से बढ़ कर होता है । सर्व श्रेष्ठ यनुत्तरोपपातिक देव भी उसके समक्ष हतप्रभ, निस्तेज एवं निम्न हैं। साधुता का दंभ कुछ और है, और सच्चे साधुत्व का जीवन कुछ और ! सच्चा साधु भूमण्डल पर साक्षात् भगवत्स्वरूप स्थिति में विचरण करता है। स्वर्ग के देवता भी उस भगवदात्मा के चरणों की धूल को मस्तक पर लगाने के लिए तरसते है। वैष्णव कवि नरसी महता कहता है Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक-दिग्दर्शन ' आपा मार जगत में बैठे नहिं किसी से काम, उनमें तो कुछ अन्तर नाही, संत कहो चाहे राम, हम तो उन संतन के . हैं दास, _ जिन्होंने मन, मार लिया। . सन्त कबीर ने भी साधु को प्रत्यक्ष भगवान रूप कहा है और कहा है कि साधु की देह निराकार की आरसी है, जिसमें जो चाहे वह अलख को अपनी आँखों से देख सकता है। . निराकार की आरसी, साधू ही. की देह, लखा जो चाहे अलख को, इनही में लखि लेह । सिक्ख-सम्प्रदाय के गुरु अर्जुन देव ने कहा है कि साधु की - महिमा का कुछ अन्त ही नहीं है, सचमुच वह अनन्त है। वेचारा ___वेद भी उसकी महिमा का क्या वर्णन कर सकता है। साधु की महिमा वेद न जाने, - जेता सुनै तेता बखाने । साधु की सोभा का नहिं अंत, . साधु की सोभा सदा बे-अंत। आनन्दकन्द व्रजचन्द्र श्री कृष्णचन्द्र ने भागवत मे कहा है-सन्त ही मनुष्यों के लिए देवता हैं । वे ही उनके परम बान्धव हैं । सन्त ही उनकी आत्मा हैं । बल्कि यह भी कहे तो कोई अत्युक्ति न होगी कि - सन्त मेरे ही स्वरूप हैं, अर्थात् भगवत्स्वरूप हैं। - देवता बान्धवाः सन्तः, सन्त आत्माऽहमेव च । -भाग. ११ । २६ । ३४ । जैन-धर्म में साधु का पद बडा ही महत्त्वपूर्ण है। आध्यात्मिकविकास क्रम में उसका स्थान छठा गुण स्थान है, और यहाँ से यदि Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण धर्म निरन्तर ऊर्ध्वमुखी विकास करता रहे तो अन्त में वह चौदहवें गुणस्थान की भूमिका पर - पहुँच जाता है और फिर सदा काल के लिए अजर, अमर, सिद्ध, बुद्ध एवं मुक्त हो जाता है। जैन-साहित्य में साधुजीवन सम्बन्धी प्राचार-विचार का बड़े विस्तार के साथ वर्णन कि गया है। ऐसा सूक्ष्म एवं नियम-बद्ध वर्णन अन्यत्र मिलना असंभव है। यही कारण है कि आज के युग में जहाँ दूसरे संप्रदाय के साधुओं क नैतिक पतन हो गया है, किसी प्रकार का संयम ही नहीं रहा है, वहाँ जन-साधु अब भी अपने सयम-पथ पर चल रहा है । आज भी उसके संयम जीवन की झॉकी के दृश्य प्राचारांग, सूत्र. कृतांग, एवं दशवैकालिक आदि सूत्रों में देखे जा सकते हैं । हजारों वर्ष पुरानी परंपरा को निभाने में जितनी दृढता जैन-साधु दिखा रहा है, उसके लिए जैन-सूत्रों का नियमबद्ध वर्णन ही धन्यवादाह है। । • श्रागम-साहित्य में जन-साधु की नियमोपनियम-सम्बन्धी जीवनचय का अतीव विराट एवं तलस्पर्शी वर्णन है। विशेष जिज्ञासुनो को उसी आगम-साहित्य से अपना पवित्र सम्पर्क स्थापित करना चाहिए । यहाँ हम सक्षेप में पॉच महाव्रतों' का परिचय मात्र दे रहे हैं । श्राशा है, यह हमारा' क्षुद्र उपक्रम. भी पाठकों की ज्ञान-वृद्धि एवं सच्चरित्रता में सहायक हो सकेगा। अहिंसा महाव्रतमन, वाणी एवं शरीर से काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा भय आदि की दूषित मनोवृत्तियों के साथ किसी भी प्राणी को शारीरिक एवं मानसिक आदि किसी भी प्रकार की पीडा या हानि पहुँचाना, हिंसा है । १-आचरितानि महभिर । यच्च महान्तं प्रसाधयन्त्यर्थम् । स्वयमपि महान्ति यस्मान महाव्रतानीत्यतस्तानि।। -आचार्य शुभचन्द्र Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावश्यक दिग्दर्शन. केवल पीड़ा और-हानि पहुँचाना ही नहीं, उसके लिए किसी भी तरह की अनुमति देना भी हिंसा है। किं बहुना, प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष किसी भी रूप से किसी भी प्राणी को हानि पहुँचाना हिंसा है । इस हिंसा से बचना अहिसा है। - अहिंसा और हिंसा की आगर-भूमि अधिकतर भावना पर आधारित है। मन मे हिंसा है तो बाहर में हिंसा हो तब भी हिंसा है, और हिंसा न हो तब भी हिंसा है। और यदि मन पवित्र है, उपयोग एवं विवेक के साथ प्रवृत्ति है तो बाहर में हिसा होते हुए भी अहिसा है। मन में द्वेष न हो, घृणा न हो, अपकार की भावना न हो, अपितु प्रेम हो, करुणा की भावना हो, कल्याण का संकल्प हो तो शिक्षार्थ उचित ताडना देना, रोग-निवारणार्थ कटु -महापुरुषो द्वारा आचरण में लाए गए हैं, महान् अर्थ मोक्ष का प्रसाधन करते हैं, और स्वयं भी व्रतो में सर्व महान् हैं, अतः मुनि के अहिंसा आदि व्रत महाव्रत कहे जाते हैं। योग-दर्शन के साधनपाद में महाव्रत की व्याख्या के लिए ३१ वॉ सूत्र है-'जातिदेशकालसमयानवच्छिन्ना महावतम् ।' इसका भावार्थ है-जाति, देश, काल और समय की सीमा से रहित सब अवस्थाओं में पालन करने योग्य यम महाव्रत कहलाते हैं। जाति द्वारा संकुचित-गौआदि पशु अथवा ब्राह्मण की हिंसा नकरना। देश द्वारा सकुचित गंगा, हरिद्वार आदि तीर्थ भूमि में हिंसा नकरना। काल द्वारा संकुचित-एकादशी, चतुर्दशी श्रादि तिथियों में हिंसा नहीं करना । समय द्वारा संकुचित-देवता अथवा ब्राह्मण आदि के प्रयोजन की सिद्धि के लिए हिसा करना, अन्य प्रयोजन से नहीं। समय का अर्थ यहाँ प्रयोजन है। इस प्रकार की संकीर्णता से रहित सब जातियों के लिए सर्वत्र, -सर्वदा, सर्वथा अहिंसा, सत्य आदि पालन करना महावत है । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '५६ श्रमण-धर्म औषधि देना सुधारार्थ या प्रायश्चित्त के लिए दण्ड देना हिंसा नहीं है ।... परन्तु जब ये ही द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह एवं भय आदि की दूषित वृत्तियों से मिश्रित,हों तो हिसा हो जाती है। मन में किसी भी प्रकार का दूषित भाव लाना हिंसा है। यह दुषित भाव अपने मन में हो, अथवा संकल्प पूर्वक अपने निमित्त से किसी दूसरे के मन में पैदा किया हो, सर्वत्र हिंसा है । इस हिसा से बचना प्रत्येक साधक का परम कर्तव्य है। जैन-साधु अहिंसा का सर्वश्रेष्ठ साधक है । वह मन, वाणी और शरीर में से हिंसा के तत्त्वों को निकाल कर बाहर फेकता है, और जीवन के कण-कण में अहिंसा के अमृत का संचार करता है । उसका चिन्तन करुणा से ओत-प्रोत होता है, उसका भाषण दया का रस बरसाता है, उसकी प्रत्येक शारीरिक प्रवृत्ति में अहिंसा की झनकार निकलती है। वह अहिंसा का देवता है । अहिंसा भगवती उसके लिए 'ब्रह्म के समान उपास्य है । हिंस्य और हिंसक दोनो के कल्याण के लिए ही वह हिंसा से निवृत्ति करता है, अहिंसा का प्रण लेता है । सब काल मे सब प्रकार से सब प्राणियों के प्रति चित्त में अणुमात्र भी द्रोह न करना ही अहिंसा का सच्चा स्वरूप है । और इस स्वरूप को जैन-साधु न दिन में भूलता है और न रात में, न जागते में भूलता है और न सोते मे, न एकान्त में भूलता है और न जन समूह मे । जैन-श्रमण की अहिंसा, व्रत नहीं, महाव्रत है। महावत का अर्थ है महान् व्रत, महान् प्रण । उक्त महाव्रत के लिए भगवान् महावीर 'सव्वारे पाणाइवायाो विरमण' शब्द का प्रयोग करते हैं, जिसका अर्थ है मन वचन और कर्म से न स्वयं हिंसा करना, न दूसरों से करवाना और न हिंसा करने वाले दूसरे लोगों का अनुमोदन ही करना । अहिंसा का यह कितना ऊंचा आदर्श है ! हिंसा को प्रवेश करने के लिए १-'अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमम्' -प्राचार्य समन्तभद्र Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ६० आवश्यक दिग्दर्शन कहीं छिद्रमात्र भी नहीं रहा है । हिंसा तो क्या, हिंसा की गन्ध भी प्रवेश नहीं पा सकती । एक जैनाचार्य ने बालजीवो को हिंसा का मर्म समझाने के लिए प्रथम महाव्रत के ८१ भंग वर्णन किये हैं । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, और पंचेन्द्रिय-- ये नौ प्रकार के संसारी जीव हैं । उनकी न मन से हिंसा करना, न मन से हिंसा कराना, न मन से हिंसा का अनुमोदन करना । इस प्रकार २७ भंग होते हैं । जो बात मन के सम्बन्ध में कही गई है, वही बात वचन और शरीर कें के सम्बन्ध में भी समझ लेनी चाहिये । 'हॉ, तो मन के २७, वचन २७, और शरीर के २७, सब मिल कर ८१ भंग हो जाते हैं । जैन साधु की हिंसा का यह एक संक्षिप्त एवं लघुतम वर्णन है । परन्तु यह वर्णन भी कितना महान् और विराट है ! इसी वर्णन के आधार पर जैन साधु न कच्चा जल पीता है, न अग्नि का स्पर्श करता है, न सचित्त वनस्पति का ही कुछ उपयोग करता है। भूमि पर चलता है तो नंगे पैरों चलता है, और आगे साढे तीन हाथ परिमाण भूमि को देखकर फिर कदम उठाता है । मुख के उष्ण श्वास से भी किसी वायु आदि सूक्ष्म जीव को पीडा न पहुँचे, इस के लिए मुख पर मुखस्त्रिका का प्रयोग करता है। जन साधारण इसे क्रिया काण्ड में एक विचित्र अटपटेपन की अनुभूति है । परन्तु हिंसा के साधक को इस में हिंसा भगवती के सूक्ष्म रूप की झाँकी मिलती है । 1 सत्य महाव्रत 2 वस्तु का यथार्थ ज्ञान ही सत्य है । उक्त सत्य का शरीर से काम में लाना शरीर का सत्य है, वाणी से कहना वाणी का सत्य है, और विचार में लाना मन का सत्य है । जो जिस समय जिसके लिए जैसा यथार्थ रूप से करना, कहना एवं समझना चाहिए, वही सत्य है । इनके विपरीत जो भी सोचना, समझना, कहना और करना है, वह सत्य है । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' श्रमण-धर्म : ६१ सत्य, अहिंसा का ही विराट रूपान्तर है । सत्य का व्यवहार केवल -वाणी से ही नहीं होता है, जैसा कि सर्व-साधारण जनता समझती है । उसका मूल उद्गम-स्थान मन है। अर्थानुकूल वाणी और मन का व्यवहार होना ही मत्य है। 'अर्थात् जैसा देखा हो, जैसा सुना हो, जैसा अनुमान किया हो, वैसा ही वाणी से कथन करना और मन मे धारण करना, सत्य है । वाणी के सम्बन्ध में यह बात अवश्य ध्यान में रखनी चाहिए कि केवल सत्य कह देना ही सत्यं नहीं है, अपितु सत्य कोमल एवं मधुर भी' होना चाहिए। सत्य के लिए अहिंसा मूल है। अतः यथार्थ ज्ञान के द्वारा यथार्थ रूप में अहिंसा के लिए जो कुछ विचारना, कहना एव करना है, वही सत्य है। दूसरे व्यक्ति को अपने . बोध के अनुसार ज्ञान कराने के लिए प्रयुक्त हुई वाणी धोखा देने वाली और भ्रान्ति मे डालने वाली न हो; जिससे किसी प्राणी को पीडा तथा हानि न हो, प्रत्युत सब प्राणियों के उपकार के लिए हो, वही श्रेष्ठ सत्य है । जिस वाणी में प्राणियों का हित न हो, प्रत्युत प्राणियों का नाश हो तो वह सत्य होते हुए भी सत्य-नही है । उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति द्वेष से दिल- दुखाने के लिए अधे को तिरस्कार के साथ अन्धा कहता है तो यह असत्य है; क्योंकि यह एक हिंसा है। और जहाँ हिंसा है, वह सत्य भी असत्य है; क्योंकि हिंसा सदा असत्य है। कुछ अविवेकी पुरुष दूसरो के हृदय - को पीडा पहुँचाने वाले दुर्वचन कहने में ही अपने सत्यवादी होने का गर्व करते हैं, उन्हें ऊपर के विवेचन पर ध्यान देना चाहिए । जैन-श्रमण सत्यव्रत का पूर्णरूपेण पालन करता है, अतः उसका सत्य व्रत सत्य महाव्रत कहलाता है। वह मन, वचन और शरीर से न स्वय असत्य का आचरण करता है, न दूसरे से करवाता है, और न कभी असत्य का अनुमोदन ही करता है। इतना ही नही, किसी तरह का सावध वचन भी नही बोलता है । पापकारी वचन बोलना भी असत्य ही है। अधिक बोलने में असत्य की आशंका रहती है, अतः' Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावश्यक-दिग्दर्शन , जैन-श्रमण अत्यन्त मितभाषी होता है। उसके प्रत्येक वचन से स्व-परकल्याण की भावना टपकती है, अहिंसा का स्वर गूंजता है। जन-साधु के लिए हॅसी में भी झूठ बोलना निषिद्ध है। प्राणों पर संकट-उपस्थित होने पर भी सत्य का आश्रय नहीं छोड़ा जा सकता । सत्य महाव्रती की वाणी में अविचार, अज्ञान, क्रोध, मान, माया, लोभ, परिहास आदि किसी भी विकार का अंश नहीं होना चाहिए । यही कारण है कि साधु दूर से पशु आदि को लैंगिक दृष्टि से अनिश्चय होने पर सहसा कुत्ता, बैल, पुरुष आदि के रूप में निश्चयकारी भाषा नहीं बोलता। ऐसे प्रसंगों पर वह कुत्ते की जाति, बैल की जाति, मनुष्य की जाति, इत्यादि जातिपरक भाषा का प्रयोग करता है। इसी प्रकार वह ज्योतिष, मंत्र, तंत्र आदि का भी उपयोग नहीं करता। ज्योतिष आदि की - प्ररूपणा में भी हिंसा एवं असत्य का संमिश्रण है। - जैन-साधु जब भी बोलता है, अनेकान्तवाद को ध्यान में रखकर '' बोलता है । वह 'ही' का नहीं, 'भी' का प्रयोग करता है । अनेकान्तवाद का लक्ष्य रखे विना सत्य की वास्तविक उपासना भी नहीं हो सकती । जिस वचन के पीछे 'स्यात् लग जाता है, वह असत्य भी सत्य हो जाता है। क्योंकि एकान्त असत्य है, और अनेकान्त सत्य । स्यात् शब्द अनेकान्त का द्योतक है, अतः यह एकान्त को अनेकान्त बनाता है, दूसरे शब्दो में कहें तो असत्य को सत्य बनाता है। प्राचार्य सिद्धसेन की दार्शनिक एवं श्रालंकारिक वाणी में यह स्यात् वह अमोघ स्वर्णरस है, जो लोहे को सोना बना देता है । 'नयास्तव स्यात्पदलाल्छिता इमे, रसोपदिग्धा इव लोहधातवः। एक श्राचार्य सत्य महाव्रत के ३६ भंगो का निरूपण करते है। क्रोध, लोभ, भय और हास्य इन चार कारणों से झूठ बोला जाता है। अस्तु, उक्त चार कारणो से न स्वयं मन से असत्याचरण करना, न मन से दूसरों से कराना, न मन से अनुमोदन करना, इस प्रकार मनो Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-धर्म .६३ योग के १२ भंग हो जाते हैं। इसी प्रकार वचन के १२ और शरीर १२, सब मिलकर सत्य महाव्रत के ३६ भंग होते हैं। . अचौर्य महाव्रत • अचौर्य, अस्तेय एवं अदत्तादानविरमण सब एकार्थक हैं । अचौर्य, अहिसा और सत्य का ही विराट रूप है । केवल छिपकर या बलात्कार-' पूर्वक किसी व्यक्ति की वस्तु एवं धन का हरण कर लेना ही स्तेय नहीं है, जैसा कि साधारण मनुष्य समझते हैं। अन्यायपूर्वक किसी व्यक्ति, समाज या राष्ट्र का अधिकार हरण करना भी चोरी है। जैन-धर्म का यदि सूक्ष्म निरीक्षण करे तो मालूम होगा कि भूख से तंग आकर उदरपूर्त के लिए चोरी करने वाले निधन एवं असहाय व्यक्ति स्तेय पाप के उतने अधिक अपराधी नहीं हैं जितने कि निम्न श्रेणी के बड़े माने जाने वाले लोग। (१) अत्या वारी राजा या नेता, जो अपनी प्रजा के न्यायप्राप्त राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा नागरिक अधिकारो का अपहरण करता है। (२) अपने को धर्म का ठेकेदार समझने वाले संकीर्ण हृदय, समृद्धिशाली, ऊँची जाति के सवर्ण लोग; भ्रान्तिवश जो नीची जाति के कहे जाने वाले निर्धन लोगों के धार्मिक, सामाजिक तथा नागरिक अधिकारों का अपहरण करते हैं। (३) लोभी जमींदार, जो गरीब किसानो का शोषण करते हैं, उन पर अत्याचार करते हैं। (४) मिल और फैक्ट्रियों के लोभी मालिक, जो मजदूरों को पेट-भर अन्न न देकर सबका सब नफा स्वयं हडप जाते हैं। (५) लोभी साहूकार, जो दूना-तिगुना सूद लेते हैं और ग़रीब लोगों की जायदाद आदि अपने अधिकार में लाने के लिए सदा सचिन्त रहते हैं। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक-दिग्दर्शन (६) धूर्त व्यापारी, जो वस्तुओं में मिलावट करते हैं, उचित मूल्य से ज्यादा दाम लेते हैं, और कम तोलते हैं । (७) घुसखोर न्यायाधीश तथा अन्य अधिकारी गण; जो वेतन पाते हुए भी अपने कर्तव्य-पालन में प्रमाद करते हैं और रिश्वत लेते हैं । . (८) लोभी वकील, जो केवल फीस के लोभ से झूठे मुकदमे लडाते हैं श्रौ जानते हुए भी निरपराध लोगों को दण्ड दिलाते हैं। (६) लोभी वैद्य, जो रोगी का, ध्यान न रखकर केवल फीस का लोभ रखते है और ठीक औषधि नहीं देते हैं। (१०) वे सब लोग, जो अन्याय पूर्वक किसी भी अनुचित रीति से, किसी व्यक्ति का धन, वस्तु, समय, श्रम और शक्ति का अपहरण एवं अपव्यय करते हैं। अहिंसा, सत्य एवं अचौर्य व्रत की साधना करने वालों को उक्त सब पाप व्यापारो से बचना है, अत्यन्त सावधानी से बचना है। जरासा भी यदि कहीं चोरों का छेद होगा तो आत्मा का पतन अवश्यंभावी है । जन-गृहस्थ भी इस प्रकार की चोरी से बचकर रहता है, और जैन-श्रमण तो पूर्णरूप से चोरी का त्यागी होता ही है। वह मन, वचन और कर्म से न स्वयं किसी प्रकार की चोरी करता है, न दूसरों से करवाता है, और न चोरी का अनुमोदन ही करता है । और तो क्या, वह दाँत कुरेदने के लिये तिनका भी विना अाज्ञा ग्रहण नहीं कर सकता है। यदि साधु कहीं जंगल मे हो, वहाँ तृण, कंकर, पत्थर अथवा • वृक्ष के नीचे छाया में बैठने और कहीं शौच जाने की आवश्यकता हो तो शास्त्रोक्त विधि के अनुसार उसे इन्द्रदेव की ही श्राज्ञा लेनी होती है। अभिप्राय यह है कि विना अाज्ञा के कोई भी वस्तु न ग्रहण की जा सकती है और न उसका क्षणिक उपयोग ही किया जा सकता है। पाठक इसके लिए अत्युक्ति का भ्रम करते होगे। परन्तु साधक को इस रूप में व्रत पालन के लिए सतत जागृत रहने की स्फूर्ति मिलती Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-धर्म है। व्रतपालन के क्षेत्र में तनिक सा शथिल्य (ढील) किसी भी भारी अनर्थ का कारण बन सकता है। आप लोगों ने देखा होगा कि तम्बू की प्रत्येक रस्सी खूटे से कस कर बॉधी जाती है। किसी एक के भी थोडी सी ढीली रह जाने से तम्बू मे पानी श्रा जाने की सम्भावना घनी रहती है। अस्तु, अचौर्य व्रत की रक्षा के लिए साधु को बार-बार प्राज्ञा ग्रहण करने का अभ्यास रखना चाहिए | गृहस्थ से जो भी चीज ले, श्राज्ञा से ले। जितने काल के लिए ले, उतनी देर ही रक्खे, अधिक नहीं । गृहस्थ आज्ञा भी देने को तैयार हो, परन्तु वस्तु यदि साधु के ग्रहण करने के योग्य न हो तो न ले। क्योंकि ऐसी वस्तु लेने से देवाधिदेव तीर्थकर भगवान की चोरी होती है। गृहस्थ श्राज्ञा देने वाला हो, वस्तु भी शुद्ध हो, परन्तु गुरुदेव की श्राज्ञा न हो तो फिर भी ग्रहण न करे । क्योकि शास्त्रानुसार यह गुरु अदत्त है, अर्थात् गुरु की चोरी है। एक प्राचार्य तीसरे अचौर्य महाव्रत के ५४ भंगो का निरूपण करते हैं । अल्प - थोडी वस्तु, बहु-अधिक वस्तु, अणु = छोटी वस्तु, स्थूल-स्थूल वस्तु, सचित्त % शिष्य प्रादि, अचित्त = वस्त्र पात्र श्रादि । उक्त छः प्रकार की वस्तुओं की न स्वयं मन से चोरी करे, न मन से चोरी कराए, न मन से अनुमोदन करे। ये मन के १८ भंग हुए । इसी प्रकार वचन के १८, और शरीर के १८, सब मिलकर ५४ भंग होते हैं । अचौर्य महाव्रत के साधक को उक्त सब भगों का दृढता से पालन करना होता है। ब्रह्मचर्य महात्रत ब्रह्मचर्य अपने आप में एक बहुत बड़ी आध्यात्मिक शक्ति है। शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक आदि सभी ब्रह्मचर्य पर निर्भर हैं। ब्रह्मचर्य वह श्राध्यात्मिक स्वास्थ्य है, जिसके द्वारा मानव-समाज पूर्ण सुख और शान्ति को प्राप्त होता है। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक दिग्दर्शन ब्रह्मचर्य की महत्ता के सम्बन्ध में भगवान् महावीर कहते है कि देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और किन्नर आदि सभी देवी शक्तियाँ ब्रह्मचारी के चरणों में प्रणाम करती हैं, क्योंकि ब्रह्मचर्य की साधना बड़ी ही कठोर साधना है। जो ब्रह्मचर्य की साधना करते हैं, वस्तुतः वे एक बहुत बड़ा दुष्कर कार्य करते हैं देव-दाणव-गंधव्वा, जक्ख-रक्खस-किन्नरा। बंभयारिं नमसंति, दुक्करं जे करेंति ते ॥ -उत्तराध्ययन-सूत्र भगवान महावीर की उपयुक्त वाणी को आचार्य श्री शुभचन्द्र भी प्रकारान्तर से दुहरा रहे हैंएकमेव व्रतं श्लाघ्यं, ब्रह्मचर्य जगत्त्रये। यद्-विशुद्धिं समापन्नाः, पूज्यन्ते पूजितैरपि ॥ -ज्ञानार्णव ब्रह्मचर्य की साधना के लिए काम के वेग को रोकना होता है। यह वेग बडा ही भयंकर है। जब आता है तो बड़ी से बड़ी शक्तियाँ भी लाचार हो जाती हैं । मनुष्य जब वासना के हाथ का खिलौना बनता है तो बडी दयनीय स्थिति में पहुँच जाता है। वह अपनेपन का कुछ भी भान नहीं रखता, एक प्रकार से पागल-सा हो जाता है। धन्य हैं वे महापुरुष, जो इस वेग पर नियंत्रण रखते हैं और मन को अपना दास बना कर रखते हैं। महाभारत में व्यास की वाणी है कि'नो पुरुष वाणी के वेग को, मन के वेग को, क्रोध के वेग को, काम Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-धर्म करने की इच्छा के वेग को, उदर के वेग को, उपस्थ (कामवासना) के वेग को रोकता है, उसको मै ब्रह्मवेत्ता मुनि समझता हूँ। वाचो वेगं, मनसः क्रोध-वेगं, चिधित्सा-वेगमुदरोपस्थ-वेगम् । एतान् वेगान् यो विषहेदुदीर्णास् तं मन्येऽहं ब्राह्मणं वै मुनिं च। । (महा० शान्ति० २६६ । १४) ब्रह्मचर्य का अर्थ केवल सम्भोग में वीर्य का नाश न करते हुए उपस्थ इन्द्रिय का संयम रखना ही नहीं है। ब्रह्मचर्य का क्षेत्र बहुत व्यापक क्षेत्र है। अतः उपस्थेन्द्रिय के संयम के साथ-साथ अन्य इन्द्रियो का निरोध करना भी आवश्यक है। वह जितेन्द्रिय साधक ही पूर्णब्रह्मचर्य पाल सकता है, जो ब्रह्मचर्य के नाश करने वाले उत्तेजक पदार्थों के खाने, कामोद्दीपक दृश्यों के देखने, और इस प्रकार की वार्तायों के सुनने तथा ऐसे गन्दे विचारो को मन में लाने से भी बचता है। आचार्य शुभचन्द्र ब्रह्मचर्य की साधना के लिए निम्नलिखित दश प्रकार के मथुन से विरत होने का उपदेश देते हैं(१) शरीर का अनुचित संस्कार अर्थात् कामोत्तेजक शृङ्गार आदि करना। (२) पौष्टिक एवं उत्तेजक रसों का सेवन करना । (३) वासनामय नृत्य और गीत श्रादि देखना, सुनना। (४) स्त्री के साथ ससर्ग-घनिष्ठ परिचय रखना । (५) स्त्री सम्बन्धी संकल्प रखना । (६) स्त्री के मुख, स्तन यादि अंग-उपांग देखना। (७) स्त्री के अंग दर्शन सम्बन्धी संस्कार मन में रखना। (८) पूर्व भोगे हुए काम भोगों का स्मरण करना । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावश्यक दिग्दर्शन (६) भविष्य के काम भोगी की चिन्ता करना। (१०) परस्पर रतिकर्म अर्थात् सम्भोग करना । जैन भितु उक्त सब प्रकार के मैथुनो का पूर्ण त्यागी होता है। यह मन, वचन और शरीर से न स्वयं मैथुन का सेवन करता है, न दूसरों से सेवन करवाता है, और न अनुमोदन ही करता है। जैन भिन्तु, एक दिन की जन्मी हुई बच्ची का भी स्पर्श नहीं कर सकता। उस के स्थान पर रात्रि को कोई भी स्त्री नहीं रह सकती। भिक्षु की माता और बहन को भी रात्रि में रहने का अधिकार नहीं है। जिस मकान में स्त्री के चित्र हों उसमें भी भिन्तु नहीं रह सकता है। यही बात साध्वी के लिए पुरुषों के सम्बन्ध में है। __एक प्राचार्य चतुर्थ ब्रह्मचर्य महाव्रत के २७ मंग बतलाते हैं । देवता सम्बन्धी, मनुष्य-सम्बन्धी और तिर्यञ्च-सम्बन्धी तीन प्रकार का मैथुन है । उक्त तीन प्रकार का मथुन न मन से सेवन करना, न मन से सेवन करवाना, न मन से अनुमोदन करना, ये मनः सम्बन्धी ६ भंग होते हैं । इसी प्रकार वचन के ६, और शरीर के ६, सब मिलकर २७ भंग होते हैं । महाव्रती साधक को उक्त सभी भंगो का निरतिचार पालन करना होता है। अपरिग्रह महाव्रत धन, सम्पत्ति, भोग-सामग्री आदि किसी भी प्रकार की वस्तुओं का ममत्व-मूलक संग्रह करना परिग्रह है। जब मनुष्य अपने ही भोग के लिए स्वार्थ बुद्धि से आवश्यकता से अधिक संग्रह करता है तो यह परिग्रह बहुत ही भयंकर हो उठता है । आवश्यकता की यह परिभाषा है कि आवश्यक वह वस्तु है, जिसके विना मनुष्य की जीवन यात्रा, सामाजिक मर्यादा एवं धार्मिक क्रिया निर्विघ्नता-पूर्वक न चल सके । अर्थात् जो सामाजिक, आध्यात्मिक एवं नैतिक उत्थान में साधन-रूप से आवश्यक हो। जो गृहस्थ इस नीति मार्ग पर चलते हैं, वे तो स्वयं भी सुखी Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-धर्म रहते हैं और जनता में भी सुख का प्रवाह बहाते हैं । परन्तु जब उक्त व्रत का यथार्थ रूप से पालन नहीं होता है तो समाज मे बडा भयंकर हाहाकार मचजाता है । अाज समाज की जो दयनीय दशा है, उसके मूल में यही आवश्यकता से अधिक संग्रह का विष रहा हुआ है। आज मानव-समाज मे जीवनोपयोगी सामग्री का उचित पद्धति से वितरण नहीं है । किसी के पास सैकडों मकान खाली पड़े हुए हैं तो किसी के पास रात में सोने के लिए एक छोटी-सी झोपडी भी नहीं हैं। किसी के पास अन्न के सकडों कोठे भरे हुए हैं तो कोई दाने-दाने के लिए तरसता भूखा मर रहा है। किसी के पास सदूको में बंद सैकडों तरह के वस्त्र सड रहे हैं तो किसी के पास तन ढॉपने के लिए भी कुछ नहीं है । श्राज की सुख सुविधाएँ मुट्ठी भर लोगों के पास एकत्र हो गई हैं और शेष समाज प्रभाव से ग्रस्त है । न उसकी भौतिक उन्नति ही हो रही है और न आध्यात्मिक । सब ओर भुखमरी की महामारी जनता का सर्व ग्रास करने के लिए मुंह फैलाए हुए है। यदि प्रत्येक मनुष्य के पास केवल उसकी आवश्यकताओं के अनुरूप ही सुख-सुविधा की साधन-सामग्री रहे तो कोई मनुष्य भूखा, गृहहीन एवं असहाय न रहे । भगवान् महावीर का अपरिग्रहवाद ही मानव जाति का कल्याण कर सकता है, भूखी जनता के ऑसू पोंछ सकता है। भगवान् महावीर ने गृहस्थो के लिए मर्यादित अपरिग्रह का विधान किया है, परन्तु भिक्षु के लिए पूर्ण अपरिग्रही होने का । भित्तु का जीवन एक उत्कृष्ट धर्म जीवन है, अतः वह भी यदि परिग्रह के जाल में फैसा रहे तो क्या खाक धर्म की साधना करेगा ? फिर गृहस्थ ओर भिक्षु मे अन्तर ही क्या रहेगा? । जैन धर्म ग्रन्थों में परिग्रह के निम्न लिखित नौ भेद किए हैं। गृहस्थ के लिए इनकी अमुक मर्यादा करने का विधान है और भिक्षु के लिए पूर्ण रूप से त्याग करने का। (१) क्षेत्र-जगल मे खेती बाड़ी के उपयोग में आने वाली धान्य Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० अावश्यक दिग्दर्शन भूमि को क्षेत्र कहते हैं । यह दो प्रकार का है-सेतु और केतु । नहर, कूत्रा आदि कृत्रिम साधनों से सींची जाने वाली भूमि को सेतु कहते हैं और केवल वर्षा के प्राकृतिक जल से सींची जाने वाली भूमि को केतु । (२) वास्तु-प्राचीन काल में घर को वास्तु कहा जाता था। यह तीन प्रकार का होता है-खात, उच्छ्रित और खातोच्छित । भूमिगृह अर्थात् तलघर को 'खात' कहते हैं । नींव खोदकर भूमि के ऊपर बनाया हुआ महल आदि उच्छ्रित' और भूमिगृह के ऊपर बनाया हुया भवन 'खातोच्छित' कहलाता है। (३) हिरण्य-श्राभूषण आदि के रूप में गढ़ी हुई तथा विना गढ़ी हुई चॉदी। (४) सुवर्ण-गढ़ा हुआ तथा विना गढ़ा हुआ सभी प्रकार का स्वर्ण । हीरा, पन्ना, मोती आदि जवाहरात भी इसी में अन्तभूत हो जाते हैं। (५) धन-गुड, शक्कर आदि । (६) धान्य-चावल, गेहूँ बाजरा आदि । (७) द्विपद-दास, दासी श्रादि । (८) चतुष्पद-हाथी, घोडा, गाय आदि पशु । (१) कुष्य-धातु के बने हुए पात्र, कुरसी, मेज श्रादि घरगृहस्थी के उपयोग में आने वाली वस्तुएँ । जैनश्रमण उक्त सब परिग्रहों का मन, वचन और शरीर से न स्वयं संग्रह करता है, न दूसरों से करवाता है और न करने वालों का अनुमोदन ही करता है। वह पूर्णरूपेण असंग, अनासक्त, अकिंचन वृत्ति का धारक होता है। कौडीमात्र परिग्रह भी उसके लिए विष है। और तो क्या, वह अपने शरीर पर भी ममत्त्व भाव नहीं रख सकता । वस्त्र, पात्र, रजोहरण आदि जो कुछ भी उपकरण अपने पास रखता है, वह सब संयम-यात्रा के सुचारू रूप से पालन करने के निमित्त ही आदि पशु । कथा के उपयोग में ना के बने हुए Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-धर्म रखता है, ममत्त्वबुद्धि से नहीं। ममत्त्व बुद्धि से रक्खा हुश्रा उपकरण जैनसंस्कृति की भाषा में उपकरण नहीं रहता, अधिकरण हो जाता है, अनर्थ का मूल बन जाता है। कितना ही अच्छा सुन्दर उपकरण हो, जैनश्रमण न उस पर मोह रखता है, न अपनेपन का भाव लाता है, न उसके खोए जाने पर प्रातध्यान ही करता है। जैन भिक्षु के पास वस्तु केवल वस्तु बनकर रहती है, वह परिग्रह नहीं बनती । क्योंकि परिग्रह का मूल मोह है, मूर्छा है, आसक्ति है, ममत्व है । साधक के लिए यही सबसे बडा परिग्रह है। प्राचार्य शय्यंभव दशवकालिक सूत्र में भगवान् महावीर का सन्देश सुनाते हैं-'मुच्छा परिग्गहो वुत्तो नाइपुत्त ण ताइणा ।' प्राचार्य उमास्वाति कहते हैं-'मूर्छा परिग्रहः ।' मूर्छा का अर्थ आसक्ति है। किसी भी वस्तु में, चाहे वह छोटी, बडी, जड, चेतन, बाह्य एवं प्राभ्यन्तर श्रादि किसी भी रूप में हो, अपनी हो या पराई हो, उसमें आसक्ति रखना, उसमें बंध जाना, एवं उसके पीछे पडकर अपना प्रात्म-विवेक खो बैठना, परिग्रह है। बाह्य वस्तुओं को परिग्रह का रूप यह मूर्छा ही देती है। यही सबसे बडा विष है। अत: जैनधर्म भिक्षु के लिए जहाँ बाह्य धन, सम्पत्ति आदि परिग्रह के त्याग का विधान करता है, वहाँ ममत्त्व भाव आदि अन्तरंग परिग्रह के त्याग पर भी विशेष बल देता है। अन्तरंग परिग्रह के मुख्य रूपेण चौदह भेद हैं-मिथ्यात्व, स्त्रीवेद, पुरुष वेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा, क्रोध, मान, माया और लोभ । प्राचार्य शुभचन्द्र कहते हैंमिथ्यात्व-वेदरागा दोषा हास्यादयोऽपि षट् चैव । चत्वारश्च कषायाश् , चतुर्दशाभ्यन्तरा ग्रन्थाः ॥ जैनश्रमण का एक बहुत सुप्रसिद्ध नाम- निग्रन्थ है । आचार्य हरिभद्र के शब्दों में निर्ग्रन्थ का अर्थ है-अन्थ अर्थात् गॉठ से रहित । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ श्रावश्यक दिग्दर्शन "निगतो ग्रन्थान् निर्ग्रन्थः ।' परिग्रह ही गॉठ है। जो भी साधक इस गॉठ को तोड़ देता है, वही आत्म-शान्ति प्राप्त कर सकता है, अन्य नहीं। । एक प्राचार्य अपरिग्रह महाव्रत के ५४ अंगों का निरूपण करते हैं-अल्प, बहु, अणु, स्थूल, सचित्त और अचित्त-यह संक्षेप मे छ: प्रकार का परिग्रह है। उक्त छः प्रकार के परिग्रह को भित्तु न मन से स्वयं रखे, न मन से रखवाए, और न रखने वालो का मन से अनुमोदन करे । इस प्रकार मनोयोग सम्बन्धी १८ भंग हुए। मन के समान ही वचन के १८, और शरीर के १८, सब मिलकर ५४ भग हो जाते हैं। जैन भिक्षु का पाचरण अतीव उच्चकोटि का आचरण है। उसकी तुलना पास-पास में अन्यत्र नहीं मिल सकती। वह वस्त्र, पात्र आदि उपधि भी अत्यन्त सीमित एवं संयमोपयोगी ही रखता है। अपने वस्त्र पात्रादि वह स्वयं उठा कर चलता है । संग्रह के रूप में किसी गृहस्थ के यहाँ जमा करके नहीं छोड़ता है। सिक्का, नोट एवं चेक आदि के रूप में किसी प्रकार की भी धन संपत्ति नहीं रख सक्ता । एकबार का लाया हुआ भोजन अधिक से अधिक तीन पहर ही रखने का विधान है, वह भी दिन में ही । रात्रि में तो न भोजन रखा जा सकता है और न खाया जा सकता है । और तो क्या, रात्रि में एक पानी की बूंद भी नहीं पी सकता । मार्ग में चलते हुए भी चार मील से अधिक दूरी तक आहार पानी नहीं लेजा सकता । अपने लिए बनाया हुआ न भोजन ग्रहण करता है और न वस्त्र, पात्र, मकान आदि । वह सिर के बालों को हाथ से उखाडता है, लोंच करता है । जहाँ भी जाना होता है नंगे पैरों पैदल जाता है, किसी भी सवारी का उपयोग नहीं करता। यहाँ अधिक लिखने का प्रसंग नहीं है । विशेष जिज्ञासु आचारांग सूत्र, दसर्व-कालिक सूत्र आदि जैन आचार ग्रन्थों का अध्ययन कर सकते हैं। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'श्रमण' शब्द का निर्वचन भारत की प्राचीन संस्कृति, 'श्रमण' और 'ब्राह्मण' नामक दो धारात्रों में बहती आ रही है। भारत के प्रति समृद्ध भौतिक जीवन का प्रतिनिधित्व ब्राह्मण धारा करती है और उसके उच्चतम आध्यात्मिक जीवन का प्रतिनिधित्व श्रमण-धारा । यही कारण है कि जहाँ ब्राह्मणसंस्कृति ऐहिक सुखसमृद्धि, भोग एवं स्वर्गीय सुख की कल्पनाश्रो तक ही अटक जाती है, वहाँ श्रमण सस्कृति त्याग के मार्ग पर चलती है, मन की वासनानो का दलन करती है, स्वर्गीय सुखो के प्रलोभन तक को ठोकर लगाती है, और अपने बन्धनों को तोडकर पूर्ण, सच्चिदानन्द, अजर, अमर, परमात्मपद को पाने के लिए संवर्ष करती है । ब्राह्मणसंस्कृति का त्याग भी भोग-मूलक है और श्रमण संस्कृति का भोग भी त्याग-मूलक है । ब्राह्मण सस्कृति के त्याग मे भोग की ध्वनि ही ऊँची रहती है और श्रमण संस्कृति के भोग मे त्याग की ध्वनि । संक्षेप में यह भेद है श्रमण और ब्राह्मण सस्कृति का, यदि हम तटस्थ वृत्ति से कुछ विचार कर सके। लेखक, भिक्षु होने के नाते श्रमण संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता है, अतः उसकी महत्ता की डींग मारता है, यह बात नहीं है । ब्राह्मण सस्कृति का साहित्य भी इसका साक्षी है। ब्राह्मण साहित्य का मूल वेद है। वह ईश्वरीय वाणी के रूप में परम पवित्र एवं मूल सिद्धान्त माना Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ श्रावश्यक दिग्दर्शन हैं। देखिए, उसके सम्बन्ध में भगवद्गीता का दूसरा अध्याय क्या कहता है ? त्रैगुण्य-विपया वेदा निस्वैगुण्यो भवार्जुन! निर्द्वन्द्वो नित्य-सत्त्वस्थो, निर्योगक्षम आत्मवान् ॥४॥ -'हे अर्जुन ! सब के सब वेद तीन गुणों के कार्यरूप समस्त भोगो एवं उनके साधनो का प्रतिपादन करने वाले हैं, इसलिए तू उन भोगों एवं उनके साधनो में अलिप्त रहकर, हर्ष शोकादि द्वन्द्वों से रहित, नित्य परमात्मस्वरूप में स्थित, योगक्षेम की कल्पनाओं से परे आत्मवान् होकर विचरण कर। यावानर्थ उदपाने, सर्वतः समजुतोदके। तावान् सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ।।४६|| --'सब ओर से परिपूर्ण विशाल एवं अथाह जलाशय के प्राप्त हो जाने पर तुद्र जलाशय में मनुष्य का जितना प्रयोजन रहता है, प्रात्मस्वरूप को जानने वाले ब्राह्मण का सब वेदो में उतना ही प्रयोजन रह जाता है, अर्थात् कुछ प्रयोजन नहीं रहता है।। पाठक ऊपर के दो श्लोकों पर से विचार सकते हैं कि ब्राह्मणसंस्कृति का मूलाधार क्या है ? ब्राहाण संस्कृति के मूल वेद हैं और वे प्रकृति के भोग और उनके साधनों का ही वर्णन करते हैं । आत्मतत्त्व की शिक्षा के लिए उनके पास कुछ नही है । भगवद्गीता वेदो को तुद्र जलाशय की उपमा देती है। वेदो का क्षुद्रत्व इसी बात में है कि वे यज्ञ, यागादि क्रिया काण्डों का ही विधान करते हैं, ऐहिक भोग-विलास एवं मुखों का संकल्प ही मानव के सामने रखते हैं, आत्म-विद्या का नहीं। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'श्रमण' शब्द का निर्वचन ७५ यह निष्कर्ष हम ही नहीं निकाल रहे हैं, अपित सनातन धर्म के सुपसिद्ध भक्तराज जयदयालजी गोयनका भी गोरखपुर से प्रकाशित गीतांक मे लिखते हैं-'सत्त्व, रज और तम-इन तीनों गुणो के कार्य को 'गुण्य' कहते हैं । अतः समस्त भोग और ऐश्वर्य मय पदार्थों और उनकी प्राप्ति के उपायभूत समस्त कर्मों का वाचक यहाँ 'गुण्य' शब्द है। उन सब का अङ्ग-प्रत्यङ्गों सहित वर्णन जिन (ग्रन्थों) में वर्णन हो, उनको 'गुण्यविषयाः' कहते हैं । यहाँ वेदों को 'गुण्यविषयाः, बतला कर यह भाव दिखलाया है कि वेदों में कर्मकाण्ड का वर्णन अधिक होने के कारण वेद 'गुण्यविषय' हैं।" केवल वेद ही नहीं, अन्यत्र भी आपको अनेकों ऐसे प्रसंग मिलेगे, जहाँ ब्राह्मण संस्कृति के भौतिक वाद का मुक्त समर्थन मिलता है। श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध में ईश्वरीय अवतार कहे जानेवाले श्रीकृष्णचन्द्रजी के जीवन का वर्णन कितना भोग-प्रधान है, कितना नग्न शृगारमय है, इसे हर कोई पाठक देख-सुन सकता है । जब कि ईश्वरीय रूप रखने वालों की यह स्थिति है, तब साधारण जनता की क्या स्थिति होनी चाहिए, यह स्वयं निर्णय किया जा सकता है। ___ अधिक लिखने का यहाँ प्रसग नहीं है । अतः अाइए, प्रस्तुत की चर्चा करे । श्रमण सस्कृति का मूलाधार स्वयं 'श्रमण' शब्द ही है। लाखों-करोडो वर्षों की श्रमण संस्कृति-सम्बन्धी चेतना आप अकेले श्रमण । शब्द मे ही पा सकते हैं । श्रमण का मूल प्राकृत 'समण' है । समण के संस्कृत रूपान्तर तीन होते हैं श्रमण, समन और शमन । 'समण' संस्कृति का वास्तविक मूलाधार इन्ही तीन संस्कृत रूपों पर से व्यक्त होता है । प्राचीन ग्रन्थों की लबी चर्चा न करके श्रीयुत इन्द्रचन्द्र एम. ए वेदान्ताचार्य के सक्षिप्त शब्दों मे ही हम भी अपना विचार प्रकट कर रहे हैं (१) श्रमण' शब्द 'श्रम्' धातु से बना है। इसका अर्थ है श्रम करना । यह शब्द इस बात को प्रकट करता है कि व्यक्ति अपना विकास Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ श्रावश्यक दिग्दर्शन अपने ही परिश्रम द्वारा कर सकता है । सुख-दुःख, उत्थान-पतन सभी के लिए वह स्वयं उत्तर दायी है । (२) समन का अर्थ है- समता भाव, अर्थात् सभी को आत्मवत् समझना, सभी के प्रति समभाव रखना । दूसरों के प्रति व्यवहार की कसौरी ग्रात्मा है । जो बात अपने को बुरी लगती है, वह दूसरों के लिए भी बुरी है। 'प्रात्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् -~यही हमारे व्यवहार का आधार होना चाहिए । समाज-विज्ञान का यही मूलतत्त्व है कि किसी के प्रति राग था द्वेष न करना, शत्रु और मित्र को बराबर समझना, जात पात तथा अन्य भेदो को न मानना । (३) शमन का अर्थ है अपनी वृत्तियो को शान्त रखना। [ मनुष्य का जीवन ऊँचा-नीचा अपनी वृत्तियो के अनुसार ही होता है । अकुशल वृत्तियाँ यात्मा का पतन करती हैं और कुशल वृत्तियाँ उत्थान | अकुशल अर्थात् दुवृत्तियों को शान्त रखना, और कुशल वृत्तियों का विकास करना ही श्रमण साधना का परम उद्देश्य है-लेखक] ___ इस प्रकार व्यक्ति तथा समाज का कल्याण श्रम, सम, और शम इन तीनों तत्वों पर आश्रित है । यह 'समण' संस्कृति का निचोड है। श्रमण संस्कृति इसका संस्कृत मे एकाङ्गी रूपान्तर है।" . अनुयोग द्वार सूत्र के उपक्रमाधिकार में भाव-सामायिक का निरूपण करते हुए श्रमण शब्द के निर्वचन पर भी प्रकाश डाला है। इस • प्रसंग की गाथाएँ बडी ही भावपूर्ण हैंजह मम न पियं दुक्खं। जारिणय एमेव सव्व-जीवाणं । न. हणइ न हणावेइ य, सममणइ तेण सो समणो ॥१॥ -~-~-'जिस प्रकार मुझे दुःख अच्छा नहीं लगता, उसी प्रकार संसार __ के अन्य सब जीवों को भी अच्छा नहीं लगता है।' यह समझ कर जो Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'श्रमण' शब्द का निर्वचन ७७ न स्वयं हिंसा करता है, न दूसरों से करवाता है और न किसी प्रकार का हिंसा का अनुमोदन ही करता है, अर्थात् सभी प्राणियों में समत्व-बुद्धि रखता है, वह श्रमण है। मूल-सूत्र में 'सममणइ' शब्द पाया है, उसकी व्याख्या करते हुए मलधारगच्छीय प्राचार्य हेमचन्द्र लिखते हैं-सममणति ति-सर्वजीवेषु तुल्यं वर्तते यतस्तेनासौ समणइति ।' अण धातु वर्तन अर्थ में है, और सम् उपसर्ग तुल्यार्थक है । अतः जो सब जीवों के प्रति सम् अर्थात् समान श्रणति अर्थात् वर्तन करता है, वह समण कहलाता है। स्थि य से कोइ वेसो पित्रो अ सव्वेसु चेव जीवेसु । एएण होइ समणो, एसो अन्नो वि पज्जाओ ।।२।। • -जो किसी से द्वष नहीं करता, जिसको सभी जीव समानभाव से प्रिय हैं, वह श्रमण है । यह श्रमणं का दूसरा पर्याय है। आचार्य हेमचन्द्र उक्त गाथा के 'समण' शब्द का निर्वचन 'सममन' करते हैं। जिसका सब जीवो पर सम अर्थात् समान मन अर्थात् हृदय हो वह सममना कहलाता है। आप प्रश्न कर सकते हैं कि यहाँ तो मूल मे 'समण' शब्द है, एक मकार कहाँ चला गया ? प्राचार्य उत्तर देते हैं कि निरुक्त विधि से सममन के एक मकार का लोप हो गया है। प्राचार्य श्री के शब्दो में ही देखिए, प्रस्तुत गाथा की व्याख्या का उत्थान और उपसंहार । तदेव सर्वजीवेयु समत्वेन सममणतीति समण इत्येक पर्यायो दर्शितः। एवं समं मनोऽस्येति सममना इत्यन्योऽपि पर्यायो भवत्येवेति दर्शयन्नाह ..........." सर्वेष्वपि जीवेषु सममनस्त्वाद, अनेन भवति स मनोऽस्येति निरुक्रविधिना समना इत्येषोऽन्योपि पर्यायः तो समणो जइ सुमणो, . . . भावेण जइ ण होइ पाव-मणो । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ आवश्यक दिग्दशन सयणे य जणे य समो, समो अ माणावमाणेसु ।।३।। -श्रमण सुमना होता है, वह कभी भी पापमना नहीं होता। अर्थात् जिसका मन सदा प्रफुल्लित रहता है, जो कभी भी पापमय चिन्तन नहीं करता, जो स्वजन और परजन में तथा मान और अपमान में बुद्धि का उचित सन्तुलन रखता है, वह श्रमण है।। आचार्य हरिभद्र दशवकालिक सूत्र के प्रथम अध्ययन की तीसरी गाथा का मर्मोद्घाटन करते हुए श्रमण का अर्थ तपस्वी करते हैं । अर्थात् जो अपने ही श्रम से तप.साधना से मुक्ति लाभ करते है वे श्रमण कहलाते हैं-'श्राम्यन्तीति श्रमणाः तपस्यन्तीत्यर्थः ।' प्राचार्य शीलांक भी सूत्रकृतांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्धान्तर्गत १६ । अध्ययन में श्रमण शब्द की यही श्रम और सम सम्बन्धी अमर घोषणा कर रहे हैं-'श्राम्यति तपसा खिद्यत इति कृत्वा श्रमणो वाच्योऽथवा समं तुल्यं मित्रादिषु मन:-अन्तःकरणं यस्य सः सममनाः सवत्र वासीचन्दनकल्प इत्यर्थः ।। सूत्रकृताङ्ग सूत्र के प्रथम श्रुत स्कन्धान्तर्गत १६ वें गाथा अध्ययन मे भगवान् महावीर ने साधु के माहन' (ब्राह्मण), श्रमण, भितु और निग्रन्थ3 इस प्रकार चार सुप्रसिद्ध नामों का वर्णन किया है । साधक के १ किसी भी प्राणी का हनन न करो, यह प्रवृत्ति जिसकी है, वह माहन है। 'माहणत्ति प्रवृत्तिर्यस्याऽसौ माहनः। श्राचार्य शीलांक, सूत्र कृतांग वृत्ति १।१६। २ जो शास्त्र की नीति के अनुसार तपः साधना के द्वारा कर्मबन्धनों का भेदन करता है, वह भिक्षु है। 'यः शास्त्रनीत्या तपसा कर्म भिनत्ति स भिन्नुः। श्राचार्य हरिभद्र, दशवकालिक वृत्ति दशम अध्ययन । ३ जो ग्रन्थ अर्थात् बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह से रहित होता है, कुछ भी छुपाकर गाँठ बाँधकर नही रखता है, वह निग्रन्थ है। 'निर्गतो ग्रन्थाद् निर्ग्रन्थः । प्राचार्य हरिभद्र, दशवकालिक वृत्ति प्रथम अध्ययन । - - - Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'श्रमण' शब्द का निवचन ७६ प्रश्न करने पर भगवान् ने उक्त शब्दों की विभिन्न रूप से अत्यन्त सुन्दर भाव-प्रधान व्याख्या की है । . लेखक का मन उक्त सभी नामों पर भगवान् की वाणी का प्रकाश डालना चाहता है, परन्तु यहाँ मात्र श्रमण शब्द के निर्बचन का ही प्रसंग है, अतः इनमें से केवल श्रमण शब्द की भावना ही भगवान् महावीर के प्रवचनानुसार स्पष्ट की जा रही है। -"जो साधक शरीर आदि मे श्रासक्ति नहीं रखता है, किसी प्रकार की सांसारिक कामना नहीं करता है, किसी प्राणी की हिंसा नहीं करता है, झूठ नहीं बोलता है, मथुन और परिग्रह के विकार से भी रहित है, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष आदि जितने भी कर्मादान और श्रात्मा के पतन के हेतु हैं, सब से निवृत्त रहता है, इसी प्रकार जो इन्द्रियों का विजेता है, संयमी है, मोक्ष मार्ग का सफल यात्री है, शरीर के मोह ममत्त्व से रहित है, वह श्रमण कहलाता है।" १ भगवान महावीर ने अपने अन्तिम प्रवचन स्वरूप उत्तराध्ययन सूत्र में भी यही कहा है कि केवल मुण्डित होने मात्र से श्रमण नहीं होता, श्रमण होता है समता की साधना से । 'न वि मुदिएण समणो' 'समयाए समणो होइ ।। करुणा मूर्ति तथागत बुद्ध ने भी धम्म पद के धम्मट्ठ वग्ग में श्रमण शब्द के निर्वचन पर कुछ ऐसा ही प्रकाश डाला है न मुण्डकेन समणो अब्बतो अलिक भणं । इच्छालोभसमापन्नो समणो कि भविस्सति ॥॥ -जो व्रत-हीन है, जो मिथ्याभापी है, वह मुण्डित होने मात्र से भमण नहीं होता । इच्छालोभ से भरा (मनुष्य) क्या श्रमण बनेगा ? यो च समेति पापानि अणु थूलानि सब्बसो। समितत्ता हि पापानं समणो' ति पवुच्चति ॥ १०॥ -जो सब छोटे-बड़े पाप का शमन करता है, उसे पापों का शमन-कर्ता होने के कारण से श्रमण कहते हैं। - Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .८० आवश्यक दिग्दर्शन एत्थ वि समणे अणिस्सिए, अणियाणे, श्रादाणं च, अंतिवाये च, मुसावायं च, बहिद्धं च, कोहं च, माणं च, मायं च, लोहं च, पिज्ज च, दोसं च, इच्चेव जो जो श्रादाणं अप्पणो पदोसहेऊ, तो तो श्रादाणातो पुर्व पडिविरते पाणाइवाया सिया दंते, दविए, वोसट्टकाए समणे त्ति वच्चे। [सूत्र कृतांग १ । १६ । २] जैन संस्कृति की साधना का समस्त सार इस प्रकार अकेले श्रमण शब्द में अन्तर्निहित है । यदि हम इधर-उधर न जाकर अकेले श्रमण शब्द के समत्व भाव को ही अपने आचरण में उतार लें तो अपना और विश्व का कल्याण हो जाय । जैन सस्कृति की साधना का श्रम केवल विचार में ही नहीं, आचरण में भी उतरना चाहिए, प्रतिपल एवं प्रति क्षण उतरना चाहिए । सम भाव की प्राप्ति के लिए किया जाने वाला श्रम मानव जीवन में कभी न बुझने वाला अमर प्रकाश प्रदान करता है । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक का स्वरूप मानव हृदय की ओर से एक प्रश्न है-श्रावश्यक किसे कहते हैं ? उसका क्या स्वरूप है ? उत्तर में निवेदन है कि जो क्रिया, जो कर्तव्य, जो साधना अवश्य करने योग्य है, उसका नाम श्रावश्यक है। इस पर भी प्रश्न है कि उक्त स्वरूप-निर्णय से तो आवश्यक बहुत-सी चीजे ठहरती हैं ? शौचादि शारीरिक क्रियाएँ अवश्य करने योग्य हैं, अतः वे भी आवश्यक कहलाएँगी ? दुकानदार के लिए प्रतिदिन दुकान पर जाना आवश्यक है, नौकर के लिए नौकरी पर पहुँचना आवश्यक है, कामी के लिए कामिनी-सेवन करना आवश्यक है ? अस्तु, यह निर्णय करना शेष है कि श्रावश्यक से क्या अर्थ ग्रहण किया गय? आपका कहना ठीक है। ऊपर जो सांसारिक क्रियाएँ बताई गयी हैं, वे भी अावश्यक-पदवाच्य हो सकती हैं। परन्तु किस के लिए? बाह्यदृष्टि वाले, संसारी, मोह माया संलग्न एवं विषयी प्राणी के लिए। सामान्य रूप से शरीरधारी मानव प्राणी दो प्रकार के माने गए हैं-(१) बहिष्टि और (२) अन्तष्टि । बहिष्टि मनुष्यों के लिए ससार और उसका भोग-विलास ही सब कुछ है। इसके अतिरिक्त अन्य आध्यात्मिक साधना के मार्ग उन्हें अरुचिकर प्रतीत होते हैं। दिन-रात दाम ही दाम और काम ही काम में उनके जीवन के अमूल्य Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. आवश्यक दिग्दर्शन क्षण गुजरते चले जाते हैं। उनके लिए सांसारिक कंचन कामिनी आदि विषय ही आवश्यक हैं। परन्तु जो अन्तष्टि हैं, जिनके विचारो का आत्मा की ओर झुकाव है, जो क्षणिक वैषयिक सुख में मुग्ध न होकर स्थायी आत्म-कल्याण के लिए सतत सचेष्ट हैं। उनका आवश्यक प्राध्यात्मिक-साधना रूप है। ___अन्तष्टि वाले सजन साधक कहलाते हैं, उन्हें कोई भी जडपदार्थ अपने सौन्दर्य से नहीं लुभा सकता; अस्तु उनका आवश्यक कर्म वही हो सकता है, जिसके द्वारा आत्मा सहज स्थायी सुख का अनुभव 'करे, कर्म-मल को दूर कर सहज स्वाभाविक निर्मलता प्राप्त करे, सदा काल के लिए सब, दुःखों से छूट कर अन्त में अजर अमर पद प्राप्त करे। यह अजर, अमर, सहज, स्वाभाविक अनन्त सुख तभी जीवात्मा को प्राप्त हो सकता है, जबकि आत्मा मे सम्यग्दर्शन, सम्यगज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप अध्यात्म-ज्योति का पूर्णतया विकास हो। और इस अध्यात्म-ज्योति का विकास विना आवश्यक क्रिया के कथमपि नहीं हो सकता । प्रस्तुत , प्रसंग में इसी आध्यात्मिक आवश्यक का वर्णन करना अभीष्ट है और संक्षेप में इस आध्यात्मिक आवश्यक का स्वरूप-परिचय इतना ही है कि सम्यगज्ञान आदि गुणों का पूर्ण विकास करने के लिए, जो क्रिया अर्थात् साधना अवश्य करने योग्य है, वही आवश्यक है। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक का निर्वचन निर्वचन का अर्थ है-सयुक्त पद को तोड कर अर्थ का स्पष्टीकरण करना । उदाहरण के लिए पकज शब्द को ही लीजिए । पंकज का शाब्दिक निर्वचन है- पंकाज्जायते इति पंकजा। 'जो पंक से उत्पन्न हो, वह कमल ।' इसी. निर्वचन की दृष्टि को लेकर प्रश्न है कि आवश्यक का शाब्दिक निर्वचन क्या है ? श्रावश्यक का निर्वचन अनेकों प्राचार्यों ने किया है। अनुयोगद्वारसूत्र के सुप्रसिद्ध टीकाकार प्राचार्य मलधारी हेमचन्द्र, आवश्यक सूत्र के टीकाकार प्राचार्य हरिभद्र और मलयगिरि, और विशेषावश्यक महाभाष्य के टीकाकार प्राचार्य कोटि इस सम्बन्ध में बहुत ही सुन्दर वर्णन करते हैं। पाठकों की जानकारी के लिए हम यहाँ कोट्याचार्य के द्वारा विशेषावश्यकटीका मे बताये गए निर्वचन उपस्थित करते हैं। (१) अवश्य करणाद् आवश्यकम् ।' जो अवश्य किया जाय वह आवश्यक है। साधु और श्रावक दोनो ही नित्य प्रति अर्थात् प्रति दिन क्रमशः दिन और रात्रि के अन्त में सामायिक श्रादि की साधना करते हैं, अतः वह साधना श्रावश्यक-पद-वाच्य है। उक्त निर्वचन अनुयोगद्वार-सूत्र की निम्नोक्त गाथा से सहमत है : समणेण सावएण या अवस्स कायव्वयं हवइ जम्हा । १ 'अवश्यंकर्तव्यमावश्यकम् । श्रमणादिभिरवश्यम् उभयकालं क्रियत इति भावः।-प्राचार्य मलयगिरि । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावश्यक दिग्दर्शन अन्तो अहो-निसस्स य तम्हा आवस्सयं नाम । (२) भापाश्रयो वा इदं गुणानाम्, प्राकृतशैल्या पावस्सय । प्राकृत भाषा में आधार वाचक श्रापाश्रय शब्द भी 'श्रावस्सय' कहलाता है। जो गुणों की अाधार भूमि हो, वह प्रावस्सय-यापाश्रय है । आवश्यक श्राध्यात्मिक समता, नम्रता, अात्मनिरीक्षण प्रादि सद्गुणों का अाधार है; अतः वह पापाय भी कहलाता है। (३) गुणानां वश्यमात्मानं करोतीति ।' जो अात्मा को दुगुणों से हटा कर गुणों के आधीन करे, वह आवश्यक है। श्रावश्य, श्रावश्यक । (४) गुणशून्यमात्मानं गुणरावासयतीति श्रावासकम् । गुणों से शुन्य श्रात्मा को जो गुणों से वासित करे, वह यावश्यक है । प्राकृत मे श्रावासक भी 'श्रावस्सय' बन जाता है । गुणों से श्रात्मा को वासित ' - करने का अर्थ है-गुणों से युक्त करना। - १'ज्ञानादिगुणानाम् आसमन्ताद् वश्या इन्द्रिय-कपायादिभावशत्रवो यस्मात् तद् श्रावश्यकम् । प्राचार्य मलयगिरि कहते हैं कि इन्द्रिय और कपाय श्रादि भाव-शत्रु जिस साधना के द्वारा ज्ञानादि गुणो के वश्य किए जायें, अर्थात् पराजित किए जायें, वह श्रावश्यक है । अथवा ज्ञानादि गुण समूह और मोक्ष पर जिस साधना के द्वारा अधिकार किया जाय, वह आवश्यक है । 'ज्ञानादि गुण कदम्बकं मोक्षो वा श्रासमन्ताद् वश्यं क्रियतेऽनेन इत्यावश्यकम् ।। ‘दिगंबर जैनाचार्य बहकेर मूलाचार में कहते हैं कि जो साधक राग, द्वेष, विषय, कषायादि के वशीभूत न हो वह अवश कहलाता है, उस अवश का जो श्राचरण है, वह आवश्यक है। 'ण वसो अवसो, अवसस्स कम्ममावासयत्ति बोधवा ।' Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . , आवश्यक का निर्वचन । . . ५.. (२) गुणैर्वा आवासक = अनुरजकं वस्त्रधूपादिवत् । श्रावस्सय का ' सस्कृत रूप जो श्रावासक होता है, उसका अर्थ है-'अनुरंजन करना। जो आत्मा को ज्ञानादि गुणों से अनुरंजित करे, वह श्रावासक। - (१) गुणैर्वा प्रात्मानं पावासयति-आच्छादयति, इति भावासकम् । वस् धातु का अर्थ आच्छादन करना भी होता है । अतः नो ज्ञानादि गुणों के द्वारा श्रात्मा को आवासित - श्राच्छादित करे, वह श्रावासक है। जब आत्मा ज्ञानादि गुणों से आच्छादित रहेगा तो दुर्गुण-रूप धूल श्रात्मा पर नहीं पड़ने पाएगी। श्रावस्सय 'आवश्यक' के ऊपर जो निर्वचन दिए गए हैं, उनकी श्राधार-भूमि, जिन भद्रं गणी क्षमाश्रमण का विशेषावश्यक भाष्य है। जिज्ञासु पाठक ८७७ और ८७८ वीं गाथा देखने की कृपा करें। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक के पर्याय पर्याय, अर्थान्तर का नाम है । एक पदार्थ के अनेक नाम परस्पर पर्यायवाची कहलाते हैं, जैसे-जल के वारि, पय, सलिल, नीर, तोय आदि पर्याय हैं । प्रस्तुत में प्रश्न है कि आवश्यक के कितने पर्याय हैं ? अनुयोग द्वार-सूत्र में आवश्यक के अवश्य-करणीय, ध्रुव-निग्रह, विशोधि, न्याय, अाराधना, मार्ग आदि पर्याय बताए गए हैं 'श्रावस्सयं अवस्स-करणिज्ज, धुवनिग्गहो पिसोही य । अज्मयण-छक्कवग्गो, नाओ आराहणा मग्गो।' १. आवश्यक अवश्य करने योग्य कार्य आवश्यक कहलाता है। सामायिक आदि की साधना साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका के द्वारा अवश्य रूप से करने योग्य है, अतः आवश्यक है। 'अवश्यं क्रियते श्रावश्यकम् । ___२. अवश्यकरणीय-मुमुक्षु साधकों के द्वारा नियमेन अनुष्ठेय होने के कारण अवश्य करणीय है। ३. ध्रुवनिग्रह-अनादि होने के कारण कर्मों को ध्रुव कहते हैं । कर्मों का फल जन्म जरा मरणादि संसार भी अनादि-है, अतः वह भी Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावश्यक के पर्याय . ८७ ध्रुव कहलाता है। अस्तु, जो कम और कर्मफलस्वरूप संसार का निग्रह करता है, वह ब्रुव निग्रह है। ____४. विशोधि-कर्ममलिन आत्मा की विशुद्धि का हेतु होने से आवश्यक विशोधि कहलाता है। ५. अध्ययन पटकवर्ग-आवश्यक सूत्र के सामायिक आदि छह अध्ययन हैं, अतः अध्ययन षटक वर्ग है। ६. न्याय-अभीष्ट अर्थ की सिद्धि का सम्यक् उपाय होने से न्याय है । अथवा आत्मा और कर्म के अनादिकालीन सम्बन्ध का अपनयन करने के कारण भी न्याय कहलाता है । आवश्यक की साधना आत्मा को कम-बन्धन से मुक्त करती है। ७.अाराधना-मोक्ष की आराधना का हेतु होने से प्राराधना है।। ८. मार्ग मोक्षपुर का प्रापक होने से मार्ग है। मार्ग का अर्थ उपाय है। उपयुक्त पर्यायवाची शब्द थोडा-सा अर्थ भेद रखते हुए भी मूलतः समानार्थक हैं। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य और भाव आवश्यक , जैन-दर्शन में द्रव्य और भाव का बहुत गंभीर एवं सूक्ष्म चिन्तन किया गया है। यहाँ प्रत्येक साधना एवं प्रत्येक विचार को द्रव्य और भाव के भेद से देखा जाता है। बहिष्टि वाले लोग द्रव्य प्रधान होते हैं, जब कि अन्तदृष्टि वाले लोग भाव प्रधान होते हैं । द्रव्य आवश्यक का अर्थ है-अन्तरंग उपयोग के विना, केवल पर- , परा के श्राधार पर, पुण्य-फल की इच्छा रूप द्रव्य आवश्यक होता है । द्रव्य का अर्थ है-प्राणरहित शरीर । विना प्राण के शरीर केवल दृश्य वस्तु है, गति शील नहीं। यावश्यक का मूल पाठ विना उपयोगविचार के बोलना, अन्यमनस्क होकर स्थूल रूप मे उठने बैठने की विधि करना, अहिंसा, सत्य आदि सद्गुणों के प्रति निरादर भाव रखकर केवल अहिंसा ,यादि शब्दों से चिपटे रहना, द्रव्य अावश्यक है। दिन और रात बे-लगाम घोडों की तरह उछलना, निरंकुश हाथियों की तरह जिनाज्ञा से बाहर विचरण करना, और फिर प्रातः सायं श्रावश्यक सूत्र के पाटों की रटन क्रिया में लग जाना, द्रव्य नहीं तो क्या है ? विवेकहीन साधना अन्त जीवन में प्रकाश नहीं देसकती। यह द्रव्य आवश्यक साधना-क्षेत्र में उपयोगी नहीं होता । अतएव अनुयोग द्वार सूत्र में कहा है "जे इमे समणगुणमुक्कजोगी, छक्काय निरुणुकंपा, हया इव बहामा, गया व निरंकुना, घट्टा, मट्ठा, तुप्पोट्टा, पंडुरपडपाउरणा, Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - द्रव्य और भाव अावश्यक ८६ जिणाणमणाणाए सच्छंदं हिरिऊण उभनो कालं आवस्सयस्स उवहाति; से तं लोगुत्तरियं दवावस्सयं ।" भाव अावश्यक का अर्थ है-अन्तरंग उपयोग के साथ, लोक तथा परलोक की वासना रहित, यश कीर्ति सम्मान श्रादि की अभिलाषा से शून्य, मन वचन शरीर को निश्चल, निष्प्रकम्प, एकाग्र बना कर, श्रावश्यक की मूल भावना मे उतर कर, दिन और रात्रि के जीवन मे जिनाशा के अनुसार विचरण कर आवश्यक सम्बन्धी मूल-पाठों के अर्थों पर चिन्तन, मनन, निदिध्यासन करते हुए, केवल निजात्मा को कर्ममल से विशुद्ध बनाने के लिए जो दोनों काल सामायिक, आदि की साधना की जाती है, वह भाव आवश्यक होता है। ____ यह भाव आवश्यक ही यहाँ आवश्यकत्वेन अभिमत है । इसके विना श्रावश्यक क्रिया प्रात्म-विशुद्धि नहीं कर सकती । यह भाव अावश्यक-ही वस्तुतः योग है। योग का अर्थ है-'मोसेए योजनाद् योगः ' वाचक यशो विजय जी, ज्ञान सार में कहते हैं जो मोक्ष के साथ योजनसम्बन्ध कराए, वह योग कहलाता है। भाव आवश्यक में हम साधक लोग, अपनी चित्तवृत्ति को ससार से हटा कर मोक्ष की ओर केन्द्रित करते है, अतः वह ही वास्तविक योग है । प्राणायाम आदि हठयोग के हथकंडे केवल शारीरिक व्यायाम है, मनोरंजन है, वह हमें मोक्ष स्वरूप की झॉकी नहीं दिखा सकता। भाव अावश्यक का स्वरूप, अनुयोग द्वार सूत्र में देखिए : "नं णं इमे समणों वा समणी वा, सावो वा, साविया वा तच्चित्ते, तम्मणे, तल्लेसे, तदभवसिए, तत्तिव्यज्झरसाणे, तदहोवउत्ते, तदप्पियकरणे, तभावणाभारिए, अन्नत्य कथइ म अकरमाणे उभो काल श्रावस्सायं करेंति से तं लोगुत्तरियं भावावस्सयं।" Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक के छः प्रकार ___ जैन-संस्कृति में जिसे आवश्यक कहा जाता है, वैदिक संस्कृति में उसे नित्य-कर्म कहते हैं । वहाँ ब्राहाण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के अलग-अलग कर्म बताए गए हैं । ब्राह्मण के छः कर्म हैं-दान लेना, दान देना, यज्ञ करना, यज्ञ कराना, स्वयं पढ़ना, और दूसरो को पढ़ाना । इसी प्रकार रक्षा करना आदि क्षत्रिय के कर्म हैं । व्यापार करना, कृषि करना, पशु पालन करना श्रादि वैश्यकर्म हैं । ब्राह्मण आदि उच्च वर्ग की सेवा करना शूद्रकर्म है। ___ मैं पहले लिख कर आया हूँ कि ब्राह्मण-संस्कृति ससार की भौतिकव्यवस्था में अधिक रस लेती है, अतः उस के नित्यकर्मों के विधान भी उसी रंग में रंगे हुए हैं । उक्त आजीविका मूलक नित्यकर्म का यह परिणाम पाया कि भारत की जनता ऊँचे नीचे जातीय भेद भावों की दलदल में फंस गई। किसी भी व्यक्ति को अपनी योग्यता के अनुसार,जीवनोपयोगी कार्य-क्षेत्र में प्रवेश करना कठिन हो गया । प्रायः प्रत्येक दिशा में अनादि अनन्त काल के लिए ठेकेदारी का दावा किया जाने लगा। परन्तु जैन-संस्कृति मानवता को जोडने वाली संस्कृति है। उसके यहाँ किसी प्रकार की भी ठेकेदारी का विधान नहीं है । अत एव जैनधर्म के षडावश्यक मानव मात्र के लिए एक जैसे हैं । ब्राह्मण हों, क्षत्रिय हों, वैश्य हों, शूद हो, कोई भी हों सब सामायिक कर सकते हैं, वन्दन कर सकते हैं, प्रतिक्रमण कर सकते हैं। छहों ही आवश्यक विना किसी जाति और वर्ग भेद के सब के लिए आवश्यक हैं। केवल गृहस्थ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . श्रावश्यक के छः प्रकार और केवल साधु ही नहीं, अपितु दोनों ही षडावश्यक का समान अधिकार रखते हैं । अतः जैन आवश्यक की साधना मानव मात्र के लिए कल्याण एवं मंगल की भावना प्रदान करती है। अनुयोग द्वार सूत्र में आवश्यक के छः प्रकार बताए गए हैं'सामाइयं, चउवीसत्थो, वंदणयं, पडिक्कमणं, काउस्सग्गो, पच्चक्खाणं ।। १सामायिक-समभाव, समता। २ चतुर्विशतिस्तव-वीतराग देव की स्तुति।। ३ वन्दन-गुरुदेवों को वन्दन । ४ प्रतिक्रमण-संयम में लगे दोपों की आलोचना । ५ कायोत्सर्ग-शरीर के ममत्व का त्याग । ६ प्रत्याख्यान-श्राहार आदि की आसक्ति का त्याग। अनुयोग द्वार सूत्र मे प्रकारान्तर से भी छः आवश्यकों का उल्लेख किया गया है । यह केवल नाम भेद है, अर्थ-भेद नहीं। सावज्जजोग-विरई, , उक्कित्तण गुणवत्रो य पडिवत्ती। खलियस्स निदणा, वणतिगिच्छ गुणधारणा चेव ॥ (१) सावद्ययोगविरति-प्राणातिपात, असत्य आदि सावध योगो का त्याग करना । अात्मा में अशुभ कमजल का आश्रव पापरूप प्रयत्नो द्वारा होता है, अतः सावध व्यापारो का त्याग करना ही सामायिक है। (२) उत्कीर्तन-तीर्थंकर देव स्वयं कर्मों को क्षय करके शुद्ध हुए हैं और दूसरो को प्रात्मशुद्धि के लिए सावद्ययोगविरति का उपदेश दे गए हैं, अतः उनके गुणों की स्तुति करना उत्कीर्तन है। यह चतुर्विशतिस्तव आवश्यक है। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ श्रावश्यक दिग्दर्शन . (३) गुणवत्प्रतिपत्ति-अहिंसादि पाँच महाव्रतो के धर्ता संयमी गुणवान् हैं, उनकी वन्दनादि के द्वारा उचित प्रतिपत्ति करना, गुणवत्प्रतिपत्ति है । यह वन्दन आवश्यक है। (४) स्खलित निन्दना-संयम-क्षेत्र में विचरण करते हुए साधक से प्रमादादि के कारण स्खलनाएँ हो जाती हैं, उनकी शुद्ध बुद्धि से संवेग की परमोत्तम भावना में पहुँच कर निन्दा करना, स्खलितनिन्दना है। दोप को दोष मान लेना ही वस्तुतः प्रतिक्रमण है। (५) व्रणचिकित्सा-कायोत्सर्ग का ही दूसरा नाम व्रणचिकित्सा है। स्वीकृत चारित्र-साधना में जब कभी अतिचाररूप दोष लगता है तो वह एक प्रकार का भावव्रण (घाव) हो जाता है। कायोत्सर्ग एक प्रकार का प्रायश्चित्त है, जो उस भावव्रण पर चिकित्सा का काम देता है। (६)गुणधारणा-प्रत्याख्यान का दूसरा पर्याय गुणधारणा है। कायोत्सर्ग के द्वारा भावव्रण के ठीक होते ही साधक का धर्म-जीवन अपनी उचित स्थिति में आ जाता है। प्रत्याख्यान के द्वारा फिर उस शुद्ध स्थिति को परिपुष्ट किया जाता है, पहले की अपेक्षा और भी अधिक बलवान बनाया जाता है। किसी भी त्यागरूप गुण को निरतिचार रूप से धारण करना गुणधारणा है। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १२ : सामायिक आवश्यक 'सम्' उपसर्गपूर्वक 'गति' अर्थ वाली 'इण धातु से 'समय' शब्द बनता है ।' सम् का अर्थ एकीभाव है और अय का अर्थ गमन है, अस्तु जो एकी भावरूप से बाह्य परिणति से वापस मुड कर आत्मा की ओर गमन किया जाता है, उसे समय कहते हैं। समय का भाव सामायिक होता है।" उपर्युक्त निर्वचन का सक्षेप में भाव यह है कि-श्रात्मा को मन, पचन, काय की पापवृत्तियों से रोक कर आत्मकल्याण के एक निश्चित ध्येय की ओर लगा देने का नाम सामायिक है। सामायिक करने वाला साधक, बाह्य सांसारिक दुवृत्तियों से हट कर आध्यात्मिक केन्द्र की ओर मन को वश में कर लेता है, वचन को वश में कर लेता है, काय को वश में कर लेता है, कषायों को सर्वथा दूर करता है, राग-द्वप के दुर्भावो को हटाकर शत्रु मित्र को समान दृष्टि से समझता है, न शत्रु पर क्रोध करता है और न मित्र पर अनुराग करता है । हाँ तो वह महल और मसान, मिट्टी और स्वर्ण सभी अच्छे बुरे सांसारिक द्वन्द्वों में ___१ सम्' एकीभांचे वर्तते । तद्यथा, संगतं घृतं संगतं तैलमित्युच्यत एकीभूतमिति गम्यते । एकत्वेन अयनं गमनं समयः, समय एब सामायिकम् । समयः प्रयोजनमस्येति वा विगृध सामायिकम् ।' -सर्वार्थ सिद्धि ७।११ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावश्यक दिग्दर्शन समभाव धारण कर लेता है फलत: उसका जीवन सर्वथा निर्द्वन्द्व होकर शांति एवं समभाव की लहरो में बहने लगता है । जस्स सामाणिओ अप्पा, संजम नियमे तवे । तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलि - भासियं ॥ जो समो सव्वभूएसु, तसेसु थावरेसु य । तस्स सामाइयं होइ, इइ केपलि-भासियं ।' -अनुयोग द्वार सूत्र सम + अाय अर्थात् समभाव का पाना सामायिक है। जिस प्रकार हम अपने आप को देखते हैं, अपनी सुख-सुविधाओं को देखते हैं, अपने पर स्नेह सद्भाव रखते हैं, उसी प्रकार दूसरी श्रात्मानो के प्रति भी सदय एवं सहृदय रहना, सामायिक है । बाह्य दृष्टि का त्याग कर अन्तदृष्टि अपनाइए, आत्मनिरीक्षण में मन को जोडिए, विषमभाव का त्याग कर -समभाव में, स्थिर बनिए, पौद्गलिक पदार्थों का ममत्व हटाकर आत्म स्वरूप में रमण कीजिए, आप सामायिक के उच्च आदर्श पर पहुँच जायँगे। यह सामायिक समस्त धर्म-क्रियायो, साधनाओं, उपासनाओं, सदाचरणो के प्रति उसी प्रकार आधारभूत है, जिस प्रकार कि आकाश और पृथ्वी चराचर प्राणियों के लिए आधारभूत हैं। १-जिसकी आत्मा संयम में, नियम में तथा तप में लीन है, वस्तुतः ___ उसी का सच्चा सामायिक व्रत है, ऐसा केवल ज्ञानियों ने कहा है। -जो त्रस और स्थावर सभी प्राणियो पर समभाव रखता है, मैत्री भावना रखता है, वस्तुतः उसी का सच्चा सामायिक व्रत है, ऐसा केवल ज्ञानियों ने कहा है।' Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक आवश्यक . 'समभावरूप सामायिक के धारण करने से मानव-जीवन कष्टमय नहीं होता, क्यों कि संसार में जो कुछ भी मन, वचन, एव शरीरका कष्ट होता है, वह सब. विषमभाव से ही उत्पन्न होता है। और वह विषमभाव सामायिक में नहीं होता है। नाम, स्थापना, द्रव्य, काल, क्षेत्र और भाव-उक्त छह भेदों से साम्यभावरूप सामायिक धारण किया जाता है: (१) नाम सामायिक-चाहे कोई शुभनाम हो, अथवा अशुभ नाम हो, सुनकर किसी भी प्रकार का राग-द्वेष नहीं करना, नाम सामायिक है। सामायिकधारी आत्मा शुभाशुभ नामो के प्रयोग पर, स्तुति-निन्दा के शब्दों पर, विचारता है कि किसी ने शुभ नाम अथवा अशुभ नाम का प्रयोग किया तो क्या हुआ? आत्मा तो शब्द की सीमा से अतीत है। अतएव मै व्यर्थ ही राग द्वेष के संकल्पों में क्यों फंसू? (२) स्थापना सामायिक-जिस किसी स्थापित पदार्थ की सुरूपता अथवा कुरूपता को देखकर रागद्वेप नहीं करना, स्थापना सामायिक है। सामायिक धारी आत्मा विचारता है कि जो कुछ यह स्थापित पदार्थ है वह मैं नहीं हूँ, अतः मुझे इसमें रागद्वेष क्यों करना चाहिए ? मै पात्मा हूँ, मेरा इम से कुछ भी हानि-लाभ नहीं है। (३) द्रव्य सामायिक-चाहे सुवर्ण हो, चाहे मिट्टी हो, इन सभी अच्छे बुरे पदार्थों मे समदर्शी भाव रखना, द्रव्य सामायिक है। सामायिक धारी आत्मा विचारता है कि यह पुद्गल द्रव्य स्वतः सुन्दर तथा असुन्दर कुछ भी नहीं हैं। अपना मन ही सुन्दरता, असुन्दरता, वहुमूल्यता, अल्पमूल्यता आदि की कल्पना करता है। श्रात्मा की दृष्टि से तो स्वर्ण भी मिट्टी है, मिट्टी भी मिट्टी है । हीरा और ककर दोनो ही जड पदार्थ की दृष्टि से समान हैं। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावश्यक दिग्दर्शन (४) क्षेत्र सामायिक-चाहे कोई सुन्दर बाग हो, या कॉटों से भरी हुई ऊसर भूमि हो, दोनों में समभाव रखना, क्षेत्र सामायिक है। ____सामायिक-धारी आत्मा विचारता है कि चाहे राजधानी हो, चाहे जंगल हो, दोनों ही पर क्षेत्र हैं । मेरा क्षेत्र तो केवल श्रात्मा है, अतएव . मेरा उनमें रागद्वेष करना, सर्वथा अयुक्त है। अनात्मदर्शी ही अपना निवास स्थान गॉव या जंगल समझते हैं, आत्मदर्शी के लिए तो-अपना श्रात्मा ही अपना निवास स्थान है। निश्चय नय की दृष्टि में प्रत्येक ' पदार्थ अपने में ही केन्द्रित है। जड, जड में रहता है, और आत्मा, श्रात्मा में रहता है। (५) काल सामायिक चाहे वर्षा हो, शीत हो, गर्मी हो तथा अनुकूल वायु से सुहावनी वमन्त-ऋतु हो, या भयंकर ऑधी बवंडर हो, किन्तु सब अनुकूल तथा प्रतिकूल परिस्थितियों में समभाव रखना काल सामायिक है। सामायिक धारी प्रात्मा विचारता है कि ठण्डक, गरमी, वसन्त, वर्धा आदि सब पुद्गल के विकार हैं। मेरा तो इन से स्पर्श भी नहीं हो सकता । मैं अमूर्त हूँ, अरूप हूँ। मुझसे भिन्न सभी भाव वभाविक हैं, अतः मुझे इन परभावजनित वैभाविक भावों में किसी प्रकार का भी राग-द्वेष नहीं करना चाहिए । (६) भाव सामायिक-समस्त जीवों पर मैत्रीभाव धारण करना, किसी से किसी प्रकार का भी वर विरोध नही रखना भाव सामायिक है। __ प्रस्तुत भाव सामायिक ही वास्तविक उत्तम सामायिक है। पूर्वोक्त सभी सामायिकों का इसी में अन्तर्भाव हो जाता है। आध्यात्मिक संयमी जीवन की महत्ता के दर्शन इसी सामायिक में होते हैं । भाव सामायिकधारी आत्मा विचारता है कि मै अजर, अमर, चित्चमत्कार चैतन्य{ स्वरूप हूँ । वैभाविक भावों से मेरा कुछ भी बनता-बिगड़ता नहीं है । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक आवश्यक श्रतएव जीने में, मरने में, लाभ में, अलाभ में, संयोग में, वियोग में, चन्धु मे, शत्रु में, सुख में, दुःख में क्यों हर्ष शोक करूँ ? मुझे तो अच्छे-बुरे सभी प्रसंगों पर समभाव ही रखना चाहिए । हानि और लाभ, जीवन और मरण, मान और अपमान, शत्रु और मित्र श्रादि सभी कर्मोदयजन्य विकार हैं। वस्तुतः निश्चय नय की दृष्टि से इनके साथ मेरा कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। भाव-सामायिक के सम्बन्ध में भगवान् महावीर एवं प्राचीन जैनाचार्यों ने बडा ही सुन्दर निरूपण किया है। विस्तार में जाने का तो इधर अवकाश नहीं है, हॉ, संक्षेप में उनके विचारों की झॉकी दिखा देना आवश्यक है। 'आया सामाइए, आया सामाइयस्स अट्ट ।' -भगवती सूत्र १ ।। वस्तुतः अपने शुद्ध स्वरूप में रहा हुआ आत्मा ही सामायिक है। सामायिक का प्रयोजन भी शुद्ध, बुद्ध, मुक्त चिच्चमत्कार स्वरूप प्रापतत्त्व की प्राप्ति ही है। सावज - जोग - चिरओ तिगुत्तो छसु संजओ। उपउत्तो जयमाणो आया सामाइयं होई॥ -आवश्यक नियुक्ति -जब साधक सावद्य योग से विरत होता है, छ: काय के जीवों के प्रति संयत होता है, मन, वचन एवं काय को एकाग्र करता है, स्व-स्वरूप मे उपयुक्त होता है, यतनर में विचरण करता है, वह (नात्मा) सामायिक है। 'सममेकत्वेन श्रात्मनि श्रायः भागमन परद्रव्येभ्यो निवृत्य उपयोगस्य आत्मनि प्रवृत्तिा समाया, आत्मविषयोपयोग Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक दिग्दर्शन इत्यर्थः।""अथवा सम् समे रागद्वाषाभ्यामनुपहते ., मध्यस्थे आत्मनि प्रायः उपयोगस्य प्रवृत्तिः समायः, स प्रयोजनमस्येति .. सामायिकम् । गोम० जीव० टीका गा० ३६८ .-पर द्रव्यों से निवृत्त होकर साधक की ज्ञान-चेतना जब आत्म-. स्वरूप में प्रवृत्त होती है, तभी भाव सामायिक होती है। रागद्वेष से रहित माध्यस्थ्यभावापन्न अात्मा सम कहलाता है, उस सम में गमन करना ही भाव सामायिक हैं। 'भावसामायिक सर्वजीवेपु मैत्रीभावोऽशुभपरिणामवर्जनं वा ।' -अनगार धर्मामृत टीका ८ । १६ । संसार के सब जीवो पर मैत्रीभाव रखना, अशुभ परिणति का त्याग कर शुभ एवं शुद्ध परिणति में रमण करना, भावसामायिक है। प्राचार्य जिनभद्र गणी क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यक-भाष्य में तो बड़े ही विस्तार के साथ भाव सामायिक का निरूपण किया है, विशेष जिज्ञासु भाष्य का अध्ययन कर आनन्द उठा सकते हैं । प्राचार्य भद्रबाहु आवश्यक नियुक्ति की ७६६ वी गाथा, मे। सामायिक के तीन भेद बतलाते हैं-(१) सम्यक्त्व सामायिक, (२) श्रुत सामायिक, (३) और चारित्र सामायिक । समभाव की साधना के लिए सम्यक्त्व, श्रुत और चारित्र ही प्रधान साधन हैं । सम्यक्त्व से विश्वास की शुद्धि होती है, श्रुत से विचारो की शुद्धि होती है, चारित्र १-सामाइयं च तिविहं, सम्मत्त सुयं तहा चरित्तं च । ___ , दुविहं चेव चरित्त, अगारमणगारियं चेव ॥ . -आवश्यक नियुक्ति ७६६ . Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक प्रोवश्यक से प्राचार की शुद्धि होती है। तीनों मिलकर प्रात्मा को पूर्ण विशुद्ध निमल बनाते हैं और उसे परमात्मा की कोटि में पहुंचा देते है। चारित्र सामायिक के अधिकारी-भेद से दो प्रकार है-(१) देश, और (२) सर्व। गृहस्थों की प्राचार साधना को देशचारित्र कहते हैं । देश का अर्थ है-'अश' । गृहस्थ अहिंसा आदि प्राचार-साधना का पूर्ण रूप से पालन न करता हुआ अशत पालन करता है । साधुओं की प्राचार-साधना को सर्वचारित्र कहते हैं। सर्व का अर्थ है-' 'समग्र, पूर्ण । पॉच महाव्रतधारी साधु, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की साधना को मन, वचन, और काय के द्वारा पूर्णतया पालन करने के लिए कृतप्रयत्न रहता है। सामायिक की साधना बहुत ऊँची है। आत्मा का पूर्ण विकास सामायिक के विना सर्वथा असम्भव है | धर्मक्षेत्र की जितनी भी अन्य साधनाएँ हैं, सबका मूल सामायिक मे ही रहा हुआ है। जैन-आगमसाहित्य सबका सब सामायिक की चर्चा से ही ध्वनित है। अतएवं वाचक यशोविजयजी सामायिक को सम्पूर्ण द्वादशाङ्गीरूप जिनवाणी का सार बतलाते हैं "सकलद्वादशाङ्गोपनिषद्भूतसामायिकसूत्रवत्" । . . . --तत्त्वार्थ वृत्ति १-१ आचार्य जिनभद्र विशेषावश्यक भाष्य में सामायिक को चौदह पूर्व का अर्थ-पिण्ड कहते है'सामाइयं संखेवो, चोदसपुव्वथपिडो त्ति ।' 'गा० २७६६ जैन-संस्कृति समप्रधान संस्कृति है। उसके यहाँ तपश्चरण एवं उग्र क्रियाकाण्ड का कुछ महत्त्व अवश्य है, परन्तु वास्तविक महत्त्व संयम का है, समता का है, सामायिक का है। जबतक समभाव रूप सामायिक न हो, तबतक 'कोटि-कोटि वर्ष तप करने वाला अविवेकी साधक भी कुछ नही कर पाता है। संथार पइन्ना में कहा है: Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावश्यक दिग्दशन जं अन्नाणी कम्म, खवेइ बहुयाहि वासकोडीहि । तं नाणी तिहिं गुत्तो, खवेइ ऊसास - मेत्तेण ॥ -अज्ञानी एवं असंयमी साधक करोडों वर्षों में तपश्चरण के द्वारा जितने कर्म नष्ट करता है, उतने कर्म त्रिगुप्तिधारी संयमी एवं विवेकी साधक एक साँस लेने भर जैसे अल्प काल में नष्ट कर डालता है। संयम-शून्य तप, तप नहीं होता, वह केवल देह-दण्ड होता है। यह देहदण्ड नारकी जीव भी सागरों तक सहते रहते हैं, परन्तु उनकी कितनी श्रात्मशुद्धि होती है ? भगवती सूत्र के छठे शतक मे प्रश्न है कि 'सातवीं नरक के नैरयिक जीवों के कर्मों की अधिक निर्जरा होती है अथवा संयमी श्रमण निग्रन्थ के कर्मों की ? भगवान् महावीर ने उत्तर में कहा है कि "संयम की साधना करता हुआ श्रमण तपश्चरण आदि के रूप मे थोडासा भी कष्ट सहन करता है तो कमों की वडी भारी निजरा करता है। सूखे घास का गहा अमि में डालते ही कितनी शीघ्रता से भस्म होता है ? श्राग से जलते हुए लोहे के तवे पर जल-बिन्दु किस प्रकार सहसा नाम-शेष हो जाता है ? इसी प्रकार संयम की साधना भी वह जलती हुई अमि है, जिसमें प्रतिक्षण कर्मों के दल के दल सहसा नष्ट होते रहते हैं।" आचार्य हरिभद्र अावश्यक-नियुक्ति पर व्याख्या करते समय तप से पहले संयम के उल्लेख का स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं कि-'संयम , भविष्य में होने वाले कर्मों के प्रास्रव का निरोध करने वाला है, अतः वह मुख्य है । संयम-पूर्वक ही तप वस्तुतः सफल होता है, अन्यथा नही।' 'संयमस्य प्रागुपादानमपूर्वकर्मागमनिरोधोपकारेण प्राधान्यल्यापनार्थम् । तत्पूर्वकं च वस्तुतः सफलं तपः।' संयम और तप के अन्तर को समझने के लिए एक उदाहरण दे रहा हूँ। किसी गृहस्थ के घर पर चोरों का आक्रमण होता है। कुछ चोर Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक आवश्यक घर के अन्दर घुस आते हैं और कुछ घर के बाहर घुसने की तैयारी में खड़े रहते हैं । ऐसी स्थिति में गृहस्थ का क्या कर्तव्य हो जाता है ? वह अन्दर घुसे हुए चोरों से लड़े या पहले घर का दरवाजा बंद करे ? यदि पहले दरवाजा बंद न करके सीधा चोरों से उलझ जाए तो बाहर खड़े चोरों का दल अन्दर आ सकता है, इस प्रकार चोरों की शक्ति घटने की अपेक्षा बढ़ती ही जाएगी। समझदारी का काम यह है कि पहले दरवाजा बन्द करके बाहर के चोरों को अन्दर आने से रोका जाय और फिर अन्दर के चोरों से संघर्ष किया जाय । संयम, भावी पापाश्रव को रोकता है और तपश्चरण पहले के सचिन कर्मों को क्षय करता है। जहाँ दूसरे धर्म केवल तप पर बल देते हैं वहां जैन-धर्म संयम को अधिक महत्त्व देता है। जैनधम की सामायिक वह संयम की साधना है, जो भविष्य में आनेवाले पापाश्रव को रोक कर फिर अन्दर मे कर्मों से लड़ने की कला है। यह युद्ध-कला ही वस्तुतः मुक्ति के साम्राज्य पर अधिकार करा सकती है। सामायिक का बहुत बड़ा महत्त्व है। वह आवश्यक का प्रादिमगल है । अखिल मंगल का मूल निर्वाण है, और यह निर्वाण सामायिक के द्वारा ही प्राप्त होता है। अतः सामायिक मङ्गल है। प्राचार्य जिनदास कहते हैं-'आदिमंगलं सामाइयज्मयणं ।'"सव मंगलनिहाणं निव्वा पाविहितित्तिकाऊण सामाइयज्मयणं मंगलं भवति ।-आवश्यक चूर्णि। सामायिक विश्व के सब प्राणियों के प्रति समता की साधना है। और यह समता ही वस्तुतः सब मंगलों का निधान है। अस्तु, समभाव की दृष्टि से भी सामायिक श्रादिमंगल है। 'जो य समनावो सो कह सव्वमंगलनिधा ण भविस्सति -आवश्यक चूर्णि । सामायिक की उत्कृष्ट साधना का तो कहना ही क्या है ? यदि जघन्यरूर से भी सामायिक रूप समभाव का स्पर्श कर लिया जाय तो साधक संसार का अन्त कर देता है, सात आठ जन्म से अधिक जन्म नहीं ग्रहण करता है। 'सत्तभवग्गहणाई पुण नाइक्कमइ ।' Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ आवश्यक-दिग्दर्शन. भगं०.८। १० । क्या हम प्रभु महावीर के उक्त प्रवचन पर श्रद्धारखते हैं ? यदि रखते हैं तो सामायिक से .पराड्भुख होना, हमारे लिए किसी क्षण भी हितावह नहीं है। हमारे जीवन की सॉस-सॉस पर सामायिक की अन्तर्वीणा का नाद झकृत-रहना चाहिए, तभी हम अपने जीवन को मंगलमय बना सकते हैं। . . जैन-धर्म का सामायिक-धर्म बहुत विराट एवं व्यापक धर्म है। यह आत्मा का धर्म है, अतः सामायिक ने किसी की जात पूछता है, न देश पूछता है, न रूप-रंग पूछता है, और न मत एवं पंथ ही । जैनधर्म का सामायिक साधक से विशुद्ध जैनत्व की बात पूछता है, उस जैनत्व की, जो जात पॉत, देश और पंथ से ऊपर की भूमिका है। यही कारण है कि माता मरुदेवी ने हाथी पर बैठे हुए सामायिक की साधना की, ओर मोक्ष में पहुंच गई । इला-पुत्र एक नट था, जो बाँस पर चढ़ा हुअा नाच रहा था। उसके अन्तर्जीवन में समभाव की एक नन्ही सी लहर पैदा हुई, वह फैली और इतनी फैली कि अन्तमुहूर्त मे ही बॉस पर चढ़े-चढ़े केवल ज्ञान हो गया। यह चमत्कार है सामायिक का! सामायिक किसी अमुक वेष-विशेष में ही होता है, अन्यत्र नहीं, यह जैनधर्म की मान्यता नहीं है । सामायिक रूप जैनत्व वेष मे नहीं, समभाव में है, माध्यस्थ्य भाव मे है । राग-द्वेष के प्रसंग पर मध्यस्थ रहना ही सामायिक है, और यह मध्यस्थता अन्तर्जीवन की ज्योति है। इस ज्योति को किसी वेष-विशेष मे बॉधना सामायिक का अपमान करना है। और यह सामायिक का अपमान स्वयं जैन-धर्म का अपमान है। भगवती-सूत्र में इसी चर्चा को लेकर एक महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर है । वह द्रव्यलिंग की अपेक्षा भावलिंग को अधिक महत्त्व देता है । द्रव्यलिंग कोई भी हो, सामायिक की ज्योति प्रस्फुरित हो सकती है। हॉ, भावलिंग कषायविजय-रूप जैनत्व सर्वत्र एक रस, होना चाहिए । इसके विना सब शून्य है, अन्धकार है। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक आवश्यक १०३ * सामाइयसंजएणं भंते ! किं सलिगे होज्जा, अन्नलिंगे होन्ज़ा, गिहिलिगे होज्जा? दवलिंग पडुच्च सलिंगे वा होज्जा, अन्नलिंगे वा होज्जा, गिहिलिंगे वा होज्जा । भावलिंगं पड़च्च नियमा सलिंगे होज्जा। . भग० २५-1-७॥ सामायिक के सम्बन्ध में अाजकल एक बहुत भ्रान्तिपूर्ण मत चल रहा है। वह यह कि सामायिक की साधना केवल अभावात्मक साधना है । उसमे हिंसा नहीं करना, इस प्रकार 'न' के ऊपर ही बल दिया गया है। अतः सामायिक की साधना करने वाला गृहस्थ तथा साधु किसी की रक्षा के लिए, किसी जीव को मरने से बचाने के लिए, कोई. विधानात्मक प्रवृत्ति नहीं कर सकता । यह प्रश्न व्यर्थ ही उठ खडा हुआ है ! यदि जैन-आगम-साहित्य का भली भॉति अवलोकन किया जाता तो इस प्रश्न की. उत्पत्ति के लिए अवकाश ही न रहता। कोई भी विधि-मार्ग अर्थात् साधना-पथ अभावात्मक नही हो सकता | निषेध के साथ विधि अवश्य ही रहती है। झूठ नहीं बोलना, इस वाक्य का अर्थ होता है-असत्य का निषेध और सत्य का विधान । अब आप समझ सकते हैं-सत्य की साधना केवल निषेधात्मक नहीं है, प्रत्युत विधानात्मक भी है। इसी प्रकार अहिंसा आदि की साधना का अर्थ भी समझ लेना चाहिए। सामायिक मे पापाचार का निषेध किया है, धर्माचार का नहीं । किसी जीव को मरने से बचाना धर्माचार है, अतः सामायिक में उसका निषेध नही । आवश्यक-अवचूरि में सामायिक का निर्वचन करते हुए कहा है "सामाइयं नाम सावज्जजोगपरिवजणं, निरवज - जोग - पडिसेवणं च ।" -'सावध योगों का त्याग करना और निरवद्य योगों मे प्रवृत्ति करना ही सामायिक है।' Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ श्रावश्यक-दिग्दर्शन ___ मैं पूछता हूँ किसी भी दुर्बल की रक्षा करना, किसी गिरते हुए जीच को सहारा देकर बचा लेना, किसी मारते हुए सबल को रोककर निर्बल की हत्या न होने देना, इस में कौन-सा सावध योग है ? कौन-सा पापकर्म है ? प्रत्युत मन में निस्वार्थ करुणा-भाव का संचार होने से यह तो सम्यक्त्व की शुद्धि का मार्ग है, मोक्ष का मार्ग है ! अनुकम्मा हृदय क्षेत्र की वह पवित्र गंगा है, जो पापमल को बहाकर साफ कर देती है। अनुकम्मा के विना सामायिक का कुछ भी अर्थ नहीं है। अनुकम्पा के प्रभाव में सामायिक की स्थिति ठीक वैसी ही है जैसे जमोतिहीन दीपक की स्थिति । ज्योतिहीन दीपक, दीपक नहीं, मात्र मिट्टी का पिंड है। सामायिक का सच्चा अधिकारी ही वह होता है, जो अनुकम्पा के अमृतरस से भरपूर होता है । प्राचार्य हरिभद्र आवश्यक बृहदवृत्ति मे लिखते हैं--'अनुकम्पाप्रवणचित्तो जीयः सामायिकं लभते, शुभपरिणामयुक्रत्वादु वैद्यवत् ।' प्राचार्य भद्रबाहु स्वामी ने आवश्यक नियुक्ति में सामायिक के सामायिक, समयिक, सम्य वाद आदि आठ नामों का उल्लेख किया है। उसमें से समयिक शब्द का अर्थ भी सब जीवों पर सम्यका से दया करना है। प्राचार्य हरिभद्र समयिक की व्युत्पत्ति करते हैं'समिति सम्यक शब्दार्थ उपसर्गः, सम्यगअयः समयः-सम्यग दयापूर्वक जीवेषु गमनमित्यर्थः। समयोऽस्यास्तीति, अत इनि ठना (पा० ५-२-११५) विति ठन् समयिकम् । सामायिक के सम्बन्ध में बहुत लम्बा लिख चुके हैं। इतना लिखना आवश्यक भी था। अधिक जिज्ञासा वाले सज्जन लेखक का सामायिव-सूत्र देख सकते हैं। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशतिस्तव आवश्यक सामायिक आवश्यक को सावद्ययोग-विरति भी कहते है । अनुयोगद्वार सूत्र मे इस नाम का उल्लेख किया गया है। परन्तु प्रश्न है कि यह सावद्ययोग से निवृत्ति शीघ्रतया कैसे प्राप्त हो सकती है? सावध योग से शीघ्रातिशीघ्र निवृत्त होने के लिए, समभाव पर पूर्ण प्रगति प्राप्त करने के लिए, साधक को किसी तदनुरूप ही महत्त्वशाली उच्च पालम्बन की आवश्यकता होती है। किसी वस्तु से निवृत्त होने के लिए उससे निवृत्त होने वालों को अपने समक्ष उपस्थित करने की एक मनोवैज्ञानिक अावश्यकता है। जब तक कोई महान् आदर्श साधक के सामने उपस्थित न हो तब तक उसका किसी वस्तु से निवृत्त होना कठिन है। ___हॉ तो, सावध योग से निवृत्त होने का उपदेश कौन देते हैं ? सावध योग की निवृत्ति किन के जीवन में पूर्णतया उतरी है ? समभाव रूप सामायिक के ससार मे कौन सब से बड़े प्रतिनिधि हैं ? अाध्यात्मिकसाधना-क्षेत्र पर नजर दौडाने के बाद उत्तर है कि 'तीर्थकर भगवान् , वीराग देव ! १ जिस साधना के द्वारा संसार सागर पार किया जाता है, वह तीर्थ है । 'संसार सागरं तरन्ति येन तत्तीर्थम् । -नन्दीसूत्र-वृत्ति । तीर्थ धर्म को कहते हैं, अतः जो धर्म का आदिकर्ता है, प्रवर्तक है, वह तीर्थकर है। 'तीर्थमेव धर्मः, तस्यादिकारस्तीर्थकराः ।। आवश्यक-चूर्णि। - Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ आवश्यक दिग्दर्शन यह चतुर्विशतिस्तव आवश्यक, जिसका दूसरा नाम अनुयोग द्वार सूत्र में उत्कीर्तन भी है; सामायिक साधना के लिए आलम्बन-स्वरूप है। चौबीस तीर्थकर, जो कि त्याग-वैराग्य के, संयम-साधना के महान् आदर्श हैं, उनकी स्तुति करना, उनके गुणों का कीर्तन करना, चतुर्विशतिस्तव आवश्यक कहलाता है । तीर्थकर देवों की स्तुति से साधक को महान् आध्यात्मिक बल मिलता है, साधना का मार्ग प्रशस्त होता है, जड एवं मृत श्रद्धा संजीव एवं स्फूर्तिमती होती है, त्याग तथा वैराग्य का महान् आदर्श आँखो के सामने देदीप्यमान हो उठता है । तीर्थकरों की भक्ति के द्वारा साधक अपने औद्धत्य तथा अहंकार का नाश करता है, सद्गुणों के प्रति अनुराग की वृद्धि करता है, फलतः प्रशस्त भावों की, कुशल परिणामो की उपलब्धि करके संचित कर्मों को उसी प्रकार नष्ट कर देता है, 'जिस प्रकार अग्नि की नन्ही-सी जलती वर्तमान-काल-चक्र में भगवान् ऋषभदेव से लेकर भगवान् महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थकर हुए हैं। चतुर्विशतिस्तव के लिए आजकल 'लोगस्स उज्जोयगरे' नामक स्तुति पाठ का प्रयोग किया जाता है। १ आचार्य भद्रबाहु स्वामी ने कहा है'भत्तीइ जिणवराणं, खिज्जती पुव्वसंचिया कम्मा ।' -आवश्यक नियुक्ति, १०७६ पाप-पराल को पुञ्ज बण्यो अति, . .. - मानो मेरु प्राकारो। ते -तुम नाम हुताशन सेती, सहज ही प्रजलत सारो। पदमप्रभु पावन नाम तिहारो॥ -विनयचन्द्र चौबीसी। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ चतुर्विंशतिस्तव अावश्यक हुई चिनगारी घास के ढेर को भस्म कर डालती है। कमों का नाश हो जाने के बाद अात्मा जब पूर्ण शुद्ध निर्मल हो जाता है, तब वह भक्त की कोटि से भगवान की कोटि में पहुँच जाता हैं। जैन-धर्म का आदर्श है कि प्रत्येक आत्मा अपने अन्तरंग स्वरूप की दृष्टि से परमात्मा ही है, भगवान् ही है । यह कर्म का, मोहमाया का परदा ही आत्माओं के अखण्ड तेज को अवरुद्ध किए हुए है। जब यह परदा उठा दिया गया तो फिर कुछ भी अन्तर नहीं रहता। शङ्का हो सकती है कि तीर्थकर वीतराग देवों के स्मरण तथा स्तुति से हम पापों के बन्धन कैसे काट सकते हैं ? किस प्रकार प्रात्मा से परमात्मा के पद पर पहुँच सकते हैं ? शंका जितनी गूढ है, उतनी ही अानन्दप्रद भी है। श्राप देखते हैं बालक नगे सिर गली में खेल रहा है। वह अपने विचारों के अनुसार जिस बालक को अच्छा समझता है, जिस खेल को ठीक जानता है, उसी का अनुकरण करने लगता है । दूसरे बच्चों को जो कुछ करते देखता है, उसी अोर उमके हाथ पैर भी चचल हो उठते हैं । बालक बडा हुआ, पाठशाला गया, वहाँ अपने सहपाठियों में से किसी को आदर्श विद्यार्थी जान कर उसका अनुकरण करने लगता है। यह देखी हुई बात है कि छोटी श्रेणियों के लिए बडी श्रोणियो के विद्यार्थी प्राचार-व्यवहार में नेता होते हैं। आगे चल कर बडे लडको के लिए उनके अध्यापक आदर्श बनते हैं । मनुष्य, विना किसी मानसिक श्रादर्श के क्षण भर भी नहीं रह सकता। मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन, मानसिक श्रादशों के प्रति ही गतिशील है, और तो क्या मरते समय भी मनुष्य के जैसे संकल्प होते हैं वैसी ही गति आगे मिलती है । यह लोकोक्ति अक्षरशः सत्य है कि मनुष्य जैसा सोचता है वैसा ही बन जाता है। 'श्रद्धामयोऽयं पुरुप यो यच्छद्धः स एव सः।' हॉ तो, इसी प्रकार उपासक भी अपने अन्तहृदय मे यदि त्यागमूर्ति तीर्थकर देवों का स्मरण करेगा तो अवश्य ही उसका प्रान्मा भी अपूर्व अलौकिक त्याग-वराग्य की भावनाओं से आलोकित हो Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरपा १०८ श्रावश्यक-दिग्दर्शन उठेगा। आध्यात्मिक शक्तिशाली महान् आत्माओ का स्मरण करना, वस्तुतः अाध्यात्मिक बल के लिए अपनी आत्मा के किवाड खोल देना है । तीर्थकर देव ज्ञान की अपार ज्योति से ज्योतिमय हैं, जो भी साधक इनके पास आयगा, इन्हें स्मृति में लायगा, वह अवश्य ज्योतिर्मय बन जायगा । संसार की मोह माया का अन्धकार उसके निकट कदापि कथ'मपि नहीं फटक सकेगा । 'याहशी दृष्टि स्तादृशी सृष्टिः ।। __ भगवत्स्तुति अंतःकरण का स्नान है। उससे हमें स्फूर्ति, पवित्रता और बल मिलता है। भगवत्स्तुति का अर्थ है उच्चनियमों, सद्गुणों एवं उच्च श्रादशों का स्मरण । ___एक बात यहाँ स्पष्ट करने योग्य है । वह यह कि जैन धर्म वैज्ञानिक धर्म है। उसमें काल्लनिक श्रादों के लिए जरा भी स्थान नहीं है । अतः यहाँ प्रार्थना का लम्बा चौड़ा जाल नहीं बिछा हुआ है। और न जैन धर्म का विश्वास ही है कि कोई महापुरुष किसी को कुछ दे सकते हैं । हम महापुरुषो को केवल निमित्त मात्र मानते हैं। उनसे हमें केवल आध्यात्मिक विकास के लिए प्रेरणा मिलती है । ऐसा नहीं होता कि हम स्वयं कुछ न करें और केवल प्रार्थना से सन्तुष्ट परमात्मा हमे अभीष्ट सिद्धि प्रदान करदे । जो लोग भगवान् के सामने गिडगिड़ा कर प्रार्थना करते हैं कि-'भगवन् ! हम पापी हैं, दुराचारी हैं, तू हमारा उद्धार कर, तेरे बिना हम क्या करें ?? वे जैन धर्म के प्रति निधि नही हो सकते । स्वयं उठने का यत्न न करके केवल भगवान् से उठाने की प्रार्थना करना सर्वथा निरर्थक है। इस प्रकार की विवेकशून्य प्रार्थनाओं ने तो मानव जाति को सब प्रकार से हीन, दीन एवं नपुंसक बना दिया है। सदाचार की मर्यादा को ऐसी प्रार्थनामो से बहुत गहरा धक्का लगा है। हजारो लोग इन्हीं प्रार्थनाओं के भरोसे परमात्मा को अपना भावी उद्धारक समझ कर मोद मनाते रहते हैं और कभी भी स्वयं पुरुषार्थ के भरोसे सदाचार के पथ पर अग्रसर नहीं होते । अतएव जैन धर्म क्रियात्मक साधना पर जोर देता है। वह भगवान के स्मरण को Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशतिस्तव श्रावश्यक १०६ बहुत ऊंची चीज मानता है, परन्तु उसे ही सब कुछ नहीं मानता। जैन धर्म की दृष्टि में भगवत्स्तुति हमारी प्रसुप्त अन्तर चेतना को जागृत करने के लिए सहकारी साधन है । हम स्वयं सदाचार के पथ पर चल कर उसे जगाने का प्रयत्न करते हैं। और भगवान की स्तुति हमें श्रादर्श प्रदान कर प्रेरणास्वरूप बनती है। जैन-धर्म के सुप्रसिद्ध विद्वान आचार्य जिनदास गणी ने इस सम्बन्ध मे स्पष्टतः कहा है कि केवल तीर्थकर देवों की स्तुति करने मात्र से ही मोक्ष एवं समाधि आदि की प्राप्ति नही होती है । भक्ति एवं स्तुति के साथ-साथ तप एवं संयम की साधना मे उद्यम करना भी अतीव आवश्यक है। न केवलाए तिस्थगरथुतीए एताणि (आरोग्गादीणि) लन्मति, किंतु तब-संजमुजमेण । --श्रावश्यक चूर्णि Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्दन आवश्यक देव के बाद गुरु का नम्बर है । तीर्थकर देवो के गुणों का उत्कीर्तन करने के बाद अब -साधक 'गुरुदेव को वन्दन करने की ओर झुकता है। गुरुदेव को वन्दन करने का अर्थ है-गुरुदेव का स्तवन और अभिवादन मन, वचन, और शरीर का वह प्रशस्त व्यापार, जिस के द्वारा गुरुदेव के प्रति भक्ति और बहुमान प्रकट किया जाता है, वन्दन कहलाता है । प्राचीन आवश्यक नियुक्ति आदि ग्रन्थो में वन्दन के चितिकर्म, कृतिकर्म, पूजाकर्म श्रादि पर्याय प्रसिद्ध हैं। १-संस्कृत एवं प्राकृत भाषा में 'गुरु' भारी को कहते हैं, अतः जो अपने से अहिंसा, सत्य आदि महाव्रतरूप गुणों में भारी हो, वजनदार हो, वह सर्व विरति साधु, भले वह स्त्री हो या पुरुष, गुरु कहलाता है । इस कोटि में गणधर से लेकर सामान्य साधु साध्वी सभी संयमी जनो का अन्तर्भाव हो जाता है। आचार्य हेमकीर्ति ने कहा है कि जो सत्य धर्म का उपदेश देता है, वह गुरु है। 'गृणाति-कथयति सद्धर्मतत्वं स गुरुः ।' तीर्थंकर देवो के नीचे गुरु ही सद्धर्म का उपदेष्टा है। २ 'वदि' अभिवानस्तुत्योः, इति कायेन अभिवादने वाचा स्तवने ।' -आवश्यक चूर्णि Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ वन्दन आवश्यक. वन्दन आवश्यक की शुद्धि के लिए यह जान लेना आवश्यक है कि वन्दनीय कैसे होने चाहिएँ ? वे कितने प्रकार के हैं ! अथच अवन्दनीय कौन है ? अवन्दनीय लोगों को वन्दन करने से क्या दोष होता है ? वन्दन करते समय किन-किन दोपो का परिहार करना जरूरी है ? जब तक साधक उपयुक्त विषयो की जानकारी न कर लेगा, तब तक वह कथमपि वन्दनावश्यक के फल का अधिकारी नहीं हो सकता। मानव मस्तक बहुत उत्कृष्ट वस्तु है । वह व्यर्थ ही हर किसी के. चरणों में रगडने के लिए नहीं है । सबके प्रति नम्र रहना और चीज है, और पूज्य समझ कर सर्वात्मना आत्मसमर्पण कर वन्दना करना, दूसरी चीज है । जैनधर्म गुणों का पूजक है । वह पून्य व्यक्ति के. सद्गुण देख कर ही उसके श्रागे शिर झुकाता है। आध्यात्मिक क्षेत्र की-तो. बात दूसरी है। यहाँ जैन इतिहास में तो साधारण सासारिक गुणहीन. व्यक्ति को वन्दन करना भी पाप समझा जाता है। असंयमी को, पतित को वन्दन करने का अर्थ है-पतन को और अधिक उत्तेजन देना । जो. समाज इस दिशा में अपना विवेक खो देता है, वह पापाचार, दुराचार को निमत्रण देता है। प्राचार्य भद्रबाहु आवश्यक नियुक्ति मे कहते. है कि-'जो मनुष्य गुणहीन अवद्य व्यक्ति को वन्दन करता है, न तो उस के कर्मों की निर्जरा होती है और न कीर्ति ही। प्रत्युत असयम का, दुरागर का अनुमोदन करने से कर्मों का बन्ध होता है। वह बन्दन व्यर्थ का कायक्लेश-है.।' | पासस्थाई वंदमाणस्स नेव कित्ती न निज्जरा होई। काय:किलेसं एमेव • कुणई तह कम्मबंधं च ॥११०८।। अवन्ध को वन्दन करने से वन्दन करने वाले को ही दोष होता है और वन्दन कराने वाले को कुछ पाप नही लगता, यह बात नही है। प्राचार्य भद्रबाहु स्वामी आवश्यक नियुक्ति मे कहते हैं कि यदि, । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ श्रावश्यक दग्दशन अवन्दनीय व्यक्ति गुणी पुरुषों द्वारा वन्दन कराता है तो वह असंयम में और भी वृद्धि करके अपना अधःपतन करता है।' जैन धर्म के अनुसार द्रव्य ओर भाव दोनों प्रकार के चारित्र से संपन्न त्यागी, विरागी प्राचार्य, उपाध्याय, स्थविर एवं गुरु देव आदि ही वन्दनीय हैं । इन्हीं को वन्दना करने से भव्य साधक अपना आत्मकल्याण कर सकता है , अन्यथा नहीं । साधक के लिए वही आदर्श उपयोगी हो सकता है जो बाहर में भी पवित्र एवं महान हो और अन्दर में भी। न केवल बाह्य जीवन की पवित्रता साधारण साधकों के लिए अपने जीवन-निर्माण में आदर्श रूपेण सहायक हो सकती है , और न केवल अंतरंग पवित्रता एवं महत्ता ही । साधक को तो ऐसा गुरुदेव चाहिए, जिस का जीवन निश्चय और व्यवहार दोनों दृष्टियों से पूर्ण हो । प्राचाय भद्रबाहु स्वामी आवश्यक नियुक्ति की ११३८ वीं गाथा में इस सम्बन्ध में मुद्रा अर्थात् सिक्के की चतुर्भगी का बहुत ही महत्त्वपूर्ण एव संगत दृष्टान्त देते हैं: (१) चॉदी यद्यपि शुद्ध हो, किन्तु उस पर मुहर ठीक न लगी होतो वह सिका ग्राह्य नहीं होता । इसी प्रकार भाव चारित्र से युक्त किन्तु द्रव्य लिग से रहित प्रत्येक बुद्ध आदि मुनि साधकों के द्वारा वन्दनीय नहीं होते। १-जे बंभचेर - भट्ठा, ___ पाए उड्डति बंभयारीणं। तेहोति कुंट मुंटा, बोही य सुदुल्लहा तेसिं ॥११०६ -आवश्यक नियुक्ति -~-जो पार्श्वस्थ श्रादि ब्रह्मचर्य अर्थात् संयम से भ्रष्ट हैं, परन्तु अपने को गुरु कहलाते हुए सदाचारी सज्जनों से वन्दन कराते हैं, वे अगले जन्म में अपंग, रोगी, हूँट मूंट होते हैं, और उनको धर्ममार्ग का मिलना अत्यन्त कठिन हो जाता है। - Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घन्दन अावश्यक ११३ (१) जिस सिक्के पर मुहर तो ठीक लगी हो, परन्तु मूलतः चॉदी अशुद्ध हो, वह सिक्का भी ग्राह्य नही माना जाता, उसी प्रकार भावचारित्र से हीन केवल द्रव्य लिङ्गी साधु, वस्तुतः कुसायु ही है, अतः वे साधक के द्वारा सर्वथा अवन्दनीय होते हैं। मूल ही नहीं तो व्याज कैसा ? अन्तरङ्ग मे भावचारित्र के होने पर ही बाह्य द्रव्य क्रिया काण्ड एवं वेष आदि उपयोगी हो सकते हैं, अन्यथा नहीं। (३) जिस सिक्के की चॉदी भी अशुद्ध हो और मुहर भी ठीक न हो, वह निक्का तो बाजार में किञ्चित् भी आदर नहीं पाता, प्रत्युत दिखाते ही फेक दिया जाता है, उसी प्रकार जो व्यक्ति न भावचारित्र की साधना करता हो और न बाह्य की ही, वह भी आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में अादरणीय नहीं माना जाता । (४) जिस सिक्के की चाँदी भी शुद्ध हो, और उस पर मुहर भी बिल्कुल ठीक लगी हो, वह सिक्का सर्वत्र अव्याहत गति से प्रसार पता है, उसका कहीं भी निरादर तथा तिरस्कार नहीं होता। इसी प्रकार जो मुनि द्रव्य तथा भाव दोनों प्रकार के चारित्र से सम्पन्न हों, जो अपनी यात्मसाधना के लिए अन्दर तथा बाहर से एकरूप हों, वे मुनि ही साधना-जगत में अभिवंदनीय माने गये हैं। उन्हीं से साधक कुछ यात्म कल्याण की शिक्षा ग्रहण कर सकता है। वन्दन आवश्यक की साधना के लिए ऐसे ही गुरुदेवों को वन्दन करने की आवश्यकता है। सुट्टतरं नासंती अपाणं जे चरित्तपन्भवा । गुरुजण वंदाविती सुसमण जहुत्तकारि च ॥१११०॥ --जो चारित्रभ्रष्ट लोग अपने को यथोक्तकारी, गुणश्रेष्ठ साधक से धन्दा कराते हैं और सद् गुरु होने का ढोंग रचते हैं, वे अपनी आत्मा पा सर्वथा नाश कर डालते हैं। पन सर्वथान और सद् गुरुहान को यथोक्तकारी, मावश्यक नियुक्ति Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अावश्यक-दिग्दर्शन वन्दन आवश्यक का यथाविधि पालन करने से विनय' की प्राप्ति होती है, अहंकार अर्थात् गर्व का (आत्म गौरव का नहीं) नाश होता है, उच्च आदर्शों की झॉकी का स्पष्टतया भान होता है, गुरुजनों की पूजा होती है, तीर्थकरों की आज्ञा का पालन होता है, और श्रुत धर्म की आराधना होती है। यह भ्रत धर्म की आराधना आत्मशक्तियों का क्रमिक विकास करती हुई अन्ततोगत्वा मोक्ष का कारण बनती है। भगवती सूत्र में रतलाया गया है कि--'गुरुजनो का सतसंग करने से शास्त्र श्रवण का लाभ होता है। शास्त्र श्रवण से ज्ञान होता है, ज्ञान से विज्ञान होता है, और फिर क्रमशः प्रत्याख्यान, संयम, अनाश्रय, तप, कर्मनाश, अक्रिया अथच सिद्धि का लाभ होता है।' सवणे णाणे य विएणाणे, पच्चक्खाणे य संजमे । अणएहए तवे चेष, वोदाणे अकिरिया सिद्धी ।। -[भग० २।५ । ११२] गुरु वन्दन की क्रिया बड़ी ही महत्त्वपूर्ण है। साधक को इस ओर उदासीन भाव न रखना चाहिए । मन के कण-कण मे भक्ति भावनाका विमल स्रोत बहाये बिना वन्दन द्रव्य वन्दन हो जाता है, और वह साधक के जीवन में किसी प्रकार की भी उत्क्रान्ति नहीं ला सकता। जिस वन्दन की पृष्ठ भूमि मे भय हो, लज्जा हो, ससार का कोई स्वार्थ हो, वह कभी-कभी आत्मा का इतना पतन करता है कि कुछ पूछिए नहीं। १-विण ओवयार माणस्स भंजणा पूयणा गुरुजणस्त । तित्थयराण य आणा, . सुयधम्मागहणा 5 किरिया ॥ -आवश्यक नियुक्ति १२१५ ।। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्दन आवश्यक - इसी लिए द्रव्य वन्दन का जैन धर्म में निषेध किया गया है। पवित्र भावना के द्वारा उपयोग पूर्वक किया गया भाव वन्दन ही तीसरे आवश्यक का प्राण है। प्राचार्य मलयगिरि आवश्यक वृत्ति मे द्रव्य और भाव-वन्दन की व्याख्या करते हुए कहते हैं-'द्रव्यतरे मिथ्यादृष्टेरनुपयुक्त सम्यग दृष्टेच, भावतः सम्यग दृष्टरुपयुक्तस्य ।' __ आचार्य जिनदास गणी ने आवश्यक चूर्णि में द्रव्य वन्दन और भाव वन्दन पर दो कथानक दिए हैं। एक कथानक भगवान् अरिष्ट नेमि का समय है। भगवान नेमि के दर्शनों के लिए वासुदेव कृष्ण. और उनके मित्र वीरककौलिक पहुँचे। श्री कृष्ण ने भगवान् नेमि और अन्य साधुत्रों को बडे ही पवित्र श्रद्धा एवं उच्च भावों से वन्दन किया। वीरककौलिक भी श्रीकृष्ण की देखा देखी उन्हें प्रसन्न करने के लिए पीछे-पीछे वन्दन करता रहा । चन्दन फल के प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् नेमि ने कहा कि 'कृष्ण ! तुमने भाव वन्दन किया है, अतः तुमने क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त किया है और तीर्थकरगोत्र की शुभ प्रकृति का बन्ध । इतना ही नहीं, तुमने सातवी, छठी, पाँचवीं और चौथी नरक का बन्धन भी तोड दिया है। परन्तु वीरक ने देखा देखी भावना शून्य वन्दन किया है, अतः उसका वन्दम द्रव्यवन्दन होने से निष्फल है । उसका उद्देश्य तुम्हें प्रसन्न करना है, और कुछ नहीं।' दूसरा कथानक भी इसी युग का है । श्री कृष्णचन्द्र के पुत्रो में से शाम्ब और पालक नामक दो पुत्र वन्दना के इतिहास मे सुविश्रुत है। शाम्ब बडा ही धर्म श्रद्धालु एवं उदार प्रकृति का युवक था । परन्तु पालक बडा ही लोभी एवं अभव्य प्रकृति का स्वामी था। एक दिन प्रसगवश श्रीकृष्ण ने कहा कि 'जो कल प्रातः काल में सर्व प्रथम भगवान् नेमिनाथ जी के दर्शन करेगा, वह जो मॉगेगा, दूंगा ।' प्रातः काल होने पर शाम्ब ने जागते ही शय्या से नीचे उतर कर भगवान् को भाववन्दन कर लिया। परन्तु पालक राज्य लोभ की मूर्छा से घोड़े पर सवार होकर जहाँ भगवान् का समवसरण था वहाँ वन्दन करने के Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावश्यक दिग्दर्शन लिए पहुँचा। ऊपर से वन्दन करता रहा, किन्तु अन्दर में आक्रोश की श्राग जल रही थी। सूर्योदय के पश्चात् श्रीकृष्ण ने पूछा कि 'भगवन् ! आज आप को पहले वन्दना किसने की ? भगवान् ने उत्तर दिया'द्रव्य से पालक ने और भाव से शाम्ब ने उपहार शाम्ब को प्राप्त हुआ। पाठक उक्त कथानकों पर से द्रव्य वन्दन और भाव वन्दन का अन्तर समझ गए होंगे | द्रव्य वन्दन अंधकार है तो भाववन्दन प्रकाश है । भाववन्दन ही आत्मशुद्धि का मार्ग है। केवल द्रव्य वन्दन तो अभव्य भी कर सकता है। परन्तु अकेले द्रव्य वन्दन से होता क्या है ? द्रव्यबन्दन में जबतक भाव का प्राण न डाज्ञा जाय तब तक आवश्यकशुद्धि का मार्ग प्रशस्त नहीं हो सकता । वन्दन क्रिया का उद्देश्य अपने में नम्रता का भाव प्राप्त करना है। जैनधर्म के अनुसार अहंकार नीच गोत्र का कारण है और नम्रता उच्च गोत्र का । वस्तुतः जो नम्र हैं, बड़ों का श्रादर करते हैं, सद्गुणों के प्रति बहुमान रखते हैं, वे ही उच्च हैं, सर्वश्रेष्ठ हैं। जैनधर्म मे विनय एवं नम्रता को तप कहा है। विनय जिनशासन वा मूल है'विणो जिणसासणमूलं ।' आचार्य भद्रबाहु ने श्रावश्य नियुक्ति मे कहा है कि-'जिनशासन का मूल विनय है । विनीत साधक ही सच्चा संयमी हो सकता है । जो विनय से हीन है, उसको कैसा धर्म और कैसा तप विणो सासणे मुलं, विणीओ संजो भवे। विण्याउ विप्पमुक्कस्स, को धम्मो को तवो ॥ -आवश्यक नियुक्ति, १२१६ । दशवैकालिक सूत्र में भी विनय का बहुत अधिक गुणगान किया गया है। एक समूचा अध्ययन ही इस विषय के गम्भीर प्रतिपादन के Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्दन आवश्यक ११ लिए रक्खा गया है। विनयाध्ययन मे वृक्ष का रूपक देते हुए कहा है कि-'जिस प्रकार वृक्ष के मूल से स्कन्ध, स्कन्ध से शाखाएँ, शाखाओं से प्रशाखाएँ, और फिर क्रम से पत्र, पुष्प एवं फल उत्पन्न होते हैं, इसी प्रकार धर्म वृक्ष का मून विनय है और उसका अन्तिम फल मोक्ष है। एवं धम्मस्स विणो, मूलं परमो से मोक्खो । जेण कित्ती सुयं सिग्छ, निस्सेसं चाभिगच्छ॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १५ : प्रतिक्रमण आवश्यक जो पापमन से, वचन से और काय से स्वयं किए जाते हैं, दूसरों से कराए जाते हैं, एवं दूसरों के द्वारा किए हुए पापों का अनुमोदन किया जाता है, इन सब पानों की निवृत्ति के लिए कृत पापों की आलोचना करना, निन्दा करना प्रतिक्रमण है। प्राचीन जैन-परम्परा के अनुसार प्रतिक्रमण का व्याकरणसम्मत निर्वचन है कि-'प्रतीपं क्रमणं प्रतिक्रमणम्, अयमर्थः-शुभयोगेभ्योऽशुभयोगान्तरं क्रान्तस्य शुभेषु एव क्रमणात्प्रतीपं क्रमणम् ।' आचार्य हेमचन्द्र ने योग शास्त्र के तृतीय प्रकाश की स्वोपज्ञ वृत्ति में यह व्युत्पत्ति की है। इस का भाव यह है कि शुभयोगों से अशुभ योगों में गए हुए अपने आपको पुनः शुभयोगो में लौटा लाना, प्रतिक्रमण है। प्राचार्य हरिभद्र ने भी आवश्यक सूत्र की टीका में प्रतिक्रमण की व्याख्या करते हुए तीन महत्वपूर्ण प्राचीन श्लोक कथन किए हैं: स्वस्थानाद् यत्परस्थानं, प्रमादस्य वशाद् गतः। तत्रैव क्रमणं भूयः प्रतिक्रमणमुच्यते ॥ -प्रमादवश शुभ योग से गिर कर अशुभयोग को प्राप्त करने के बाद फिर से शुभयोग को प्राप्त करना, प्रतिक्रमण है। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५११९ प्रतिक्रमण यावश्यक क्षायोपशमिकाद् भावादौदयिकस्य वशं गतः। तत्रापि च स एवार्थः, प्रतिकूलगमात्स्मृतः॥ . रागद्वेषादि औदयिक भाव संसार का मार्ग है और समता, क्षमा, दया, नम्रता आदि क्षायोपशमिक भाव मोक्ष का मार्ग है। अस्तु, क्षायोपशमिक भाव से औदायिक भाव मे परिणत हुआ साधक जब पुनः प्रौदयिक भाव से क्षायोपशमिक भाव में लौट आता है, तो यह भी प्रतिकूल गमन के कारण प्रतिक्रमण कहलाता है। प्रति प्रति वर्तनं वा, शुभेषु योगेषु मोक्षफलदेषु । - नि: शल्यस्य यतेर्यत् , तद्वा ज्ञयं प्रतिक्रमणम् ।। -अशुभयोग से निवृत्त होकर निःशल्य भाव से उत्तरोत्तर प्रत्येक शुभ योग मे प्रवृत्त होना ही प्रतिक्रमण है। साधना क्षेत्र मे मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और अप्रशस्त योग ये चार दोष बहुत भयंकर माने गए हैं। प्रत्येक साधक को इन चार दोपों का प्रतिक्रमण करना आवश्यक है। मिथ्यात्व को छोड कर सम्यक्त्व में आना चाहिए,' अविरति का त्याग कर विरति को स्वीकार १-मिथ्यास प्रतिक्रमण का यह भाव है कि-'ज्ञात या अज्ञात रूप में यदि कभी मिथ्यात्व का प्रतिपादन किया हो, मिथ्यात्व मे परिणति की हो तो उसकी आलोचना कर पुनः शुद्ध सम्यक्त्व भाव में उपस्थित होना। श्राचार्य भद्रबाहु ने १२५१ वी गाथा में ससार प्रतिक्रमण का भी उल्लेख किया है, उसका यह भाव है-नरकादि गति के कारणभूत महारंभ आदि हेतुत्रो की आलोचना निन्दा गर्हणा करना ।' कुमनुष्य और कुदेव गति के हेतुओं की आलोचना ही करणीय है, शुभ मनुष्य और शुभ देवगति के हेतुओं की नहीं। क्योंकि विनयादि गुण हेय नहीं हैं। 'नवरं शुभनरामरायुहेतुभ्यो मायाचनासेवनादिलक्षणेम्यो निराशंसेनैव अपवर्गाभिलाषिणापि न प्रतिक्रान्तव्यम् ।' -प्राचार्य हरिभद्र Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावश्यक दिग्दर्शन करना चाहिए, कषाय का परिहार कर क्षमा आदि धारण करना चाहिए, और संसार की वृद्धि करने वाले अशुभ व्यापारों को छोड़ कर शुभ योगों को अपनाना चाहिए: मिच्छत्त-पडिक्कमणं, तहव असंजमे य पडिक्कमणं। कसायाण पडिक्कमणं, जोगाण य अध्पसस्थाणं ॥१२५०।। --आवश्यक नियुक्ति प्राचार्य भद्रबाहु स्वामी, आवश्यक नियुक्ति में प्रतिक्रमण के सम्बन्ध में बहुत गम्भीर विचार धारा उपस्थित करते हैं। उन्होंने साधक के लिए चार विषयों का प्रतिक्रमण बतलाया है। प्राचार्यश्री के ये चार कारण सूक्ष्म दृष्टि से चिन्तन करने योग्य हैं (१) हिसा, असत्य आदि जिन पार कर्मों का श्रावक तथा साधु के लिए प्रतिषेध किया गया है। यदि कभी भ्रान्तिवश वे कर्म कर लिए जायँ तो प्रतिक्रमण करना चाहिए। (२) शास्त्र रवाध्याय, प्रतिलेखना, सामायिक आदि जिन कार्यों के करने का शास्त्र में विधान किग है, उनके न किए जाने पर भी प्रतिक्रमण करना चाहिए। कर्तव्य कर्म को न करना भी एक पाप ही है। (३) शास्त्र प्रतिपादित आत्मादि तत्वों की सत्यता के विषय में सन्देह लाने पर, अर्थात् अश्रद्धा उत्पन्न होने पर प्रतिक्रमण करना चाहिए । यह मानसिक शुद्धि का प्रतिक्रम,ए है। (४.) आगमविरुद्ध विचारों का प्रतिपादन करने पर, अर्थात् हिमा आदि के समर्थक विचारों की प्ररूपणा, करने पर भी अवश्य प्रतिक्रमण करना चाहिए । यह वचन शुद्धि का प्रतिक्रमण है। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्रति क्रमण आवश्यक १२१ पडिसिद्धाणं करणे, किच्चाणमकरणे पडिक्कमणं । असदहणे य तहा, विवरीयपरूवणाए अ॥ १२६८॥ सामान्यरूप से प्रतिक्रमण दो प्रकार का है-द्रव्य प्रतिक्रमण और भाव प्रतिक्रमण | मुमुक्षु साधकों के लिए भाव प्रतिक्रमण ही उपादेय है, द्रव्य प्रतिक्रमण नहीं । उपयोग शून्य प्रतिक्रमण, द्रव्य प्रतिक्रमण है । इसी प्रकार केवल यश आदि के लिए दिखावे के रूप में किया जाने वाला प्रतिक्रमण भी द्रव्य प्रतिक्रमण ही है। दोषों का एक बार प्रतिक्रमण करने के बाद पुनः-पुनः उन दोषों का सेवन करना और फिर उन दोषों की शुद्धि के लिए बराबर प्रतिक्रमण करते रहना, यथार्थ प्रतिक्रमण नहीं माना जाता । इस प्रकार के प्रतिक्रमण से आत्म-शुद्धि • होने के बदले धृष्टता द्वारा दोषों की वृद्धि ही होती है, न्यूनता नहीं। जो साधक बार-बार दोष सेवन करते हैं और फिर बार-बार उनका प्रतिक्रमण करते हैं, उनकी स्थिति ठीक उस तुल्लक साधू जैसी हैजो कंकर का निशाना मार कर बार बार कुम्हार के चाक से उतरते हुए कच्चे बर्तनों को फोडता था और कुम्हार के कहने पर बार-बार 'मिच्छामि दुक्कड़' कह कर क्षमा मॉग लेता था। अस्तु, सयम मे लगे हुए दोषों की सरल भावो से प्रतिक्रमण द्वारा शुद्धि करना, और भविष्य में उन दोपों का सेवन न करने के लिए सतत जागरूक रहना ही प्रतिक्रमण का वास्तविक उद्देश्य है । प्रतिक्रमण का अर्थ है पापों से भीति रखना। यदि पापों से डर ही नहीं हुआ, आत्मा पहले की भाँति ही स्वच्छन्द दोषो की ओर प्रधावित होता रहा तो फिर वह प्रतिक्रमण ही क्या हुआ ? भावप्रतिक्रमण त्रिविधं त्रिविधेन होता है, अतः उसमे दोष-प्रवेश के लिए अणुमात्र भी अवकाश नहीं रहता । पापाचरण का सर्वथा भावेन प्रायश्चित हो जाता है, और आत्मा पुनः अपनी शुद्ध स्थिति में पहुंच जाता है । भाव प्रतिक्रमण के लिए Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ आवश्यक दिग्दर्शन अाच यं जिनदास कहते हैं-'भावपडिक्कमणं जं सम्मदंसणाइगुणजुतस्स पडिक्कमणं ति ।' आचार्य भद्रबाहु कहते हैं भाव-पडिक्क्रमणं पुण, - तिविह तिविहेण नेयत्व ॥१२५१|| प्राचार्य हरिभद्र ने उक्त नियुक्ति गाथा पर विवेचन करते हुए एक गाथा- उद्धृत की है, जिसका यह भाव है कि मन, वचन एवं काय से मिथ्यात्वं, काय आदि दुर्भावो में न स्वयं गमन करना, न दूसरों को गमन कराना, न गमन करने वालो का अनुमोदन करना ही भाव प्रतिक्रमण है। "मिच्छत्ताइ ण गच्छइ, ण य गच्छावेइ णाणुजाणेई। . जं मण वय - काएहि, त भणियं भावपडिक्कमणं ।।" आचार्य भद्रबाहु ने आवश्यक नियुक्ति में काल के भेद से प्रतिक्रमण तीन प्रकार का बताया है: (१) भूत काल में लगे हुए दोषो की आलोचना करना । (२) वर्तमान काल मे लगने वाले दोषो से संवर द्वारा बचना । (३) प्रत्याख्यान द्वारा भावी दोपो को अवरुद्ध करना । ., उपयुक्त प्रतिक्रमण की त्रिकाल-विषयता पर प्रश्न है कि-प्रति क्रमण तो भूतकालिक माना जाता है, वह त्रिकाल विषयक कैसे हो सकता है ? उत्तर में निवेदन है कि प्रतिक्रमण शब्द का मौलिक अर्थ अशुभयोग की निवृत्ति है । प्राचार्य हेमचन्द्र योगशास्त्र की स्वोपज्ञ वृत्ति में यही भाव व्यक्त करते हैं-'प्रतिक्रमण शब्दोऽशुभयोग निवृत्तिमात्रार्थः ।' अस्तु निन्दा द्वारा भूतकालिक अशुभयोग की निवृत्ति होती है, अतः यह अतीत प्रतिक्रमण है। संवर के द्वारा वर्तमान कालविषयक अशुभयोगों की निवृत्ति होती है, अतः यह वर्तमान प्रतिक्रमण है।। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रति क्रमण अावश्यक १२३ प्रत्याख्यान के द्वारा भविष्यत्कालीन अशुभ योगो की निवृत्ति होती है. अतः यह भविष्यकालीन प्रति क्रमण माना जाता है। भगवती , सूत्र में भी कहा है "अइयं पडिक्कमेइ, पडुप्पन्नं संवरेइ, अणागयं पञ्चक्खाइ। विशेषकाल की अपेक्षा से प्रतिक्रमण के पॉच भेद भी माने गए है-दवसिक, रात्रिक पाक्षिक, चातुर्मासिक, और सांवत्सरिक । (१) देवसिक-प्रतिदिन सायंकाल के समय दिन भर के पापो की आलोचना करना। (२) रात्रिक-प्रतिदिन प्रातःकाल के समय रात्रि भर के पापों की आलोचना करना। (३) पाक्षिक-महीने मे दो बार अमावस्या और पूर्णिमा के दिन पक्ष भर के पापों की आलोचना करना। (४) चातुर्मासिक-चार चार महीने के बाद कार्तिकी पूर्णिमा, ' फाल्गुनी पूर्णिमा, श्राषाढी पूर्णिमा को चार महीने भर के पापो की आलोचना करना। (५) सांवत्सरिक-प्रत्येक वर्ष प्रतिक्रमणकालीन आषाढ़ी पूर्णिमा से पचास दिन बाद भाद्रपदशुक्ला पंचमी के दिन वर्ष भर के पापों की आलोचना करना । एक प्रश्न है कि जब प्रतिदिन प्रातः सायं दो बार तो प्रतिक्रमण हो ही जाता है, फिर ये पाक्षिक आदि प्रतिक्रमण क्यो किए जाते हैं ? .देवसिक और रात्रिक ही तो अंतिचार होते हैं, और उनकी शुद्धि प्रतिदिन देवसिक तथा रात्रिक प्रतिक्रमण के द्वारा हो ही जाती है ? - ---'प्रतिक्रमण-शब्दो हि अत्राशुभयोगनिवृत्तिमात्रार्थः सामान्यतः परिगृह्यते, तथा च सत्यतीतविषयं प्रतिक्रमणं निन्दाद्वारेण अशुभयोग निवृत्तिरेवेति, प्रत्युत्पन्न विषयमपि संवरद्वारेण अशुभयोग निवृगिरेवं, अनागतविषयमपि प्रत्यारयानद्वारेण अशुभयोगनिवृत्ति -प्राचार्य हरिभद्र रेवेति-न दोषयमपि प्रत्यासवरद्वारेण अशा Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ आवश्यक दिग्दर्शन । प्रश्न सुन्दर है। उत्तर में निवेदन है कि गृहस्थ लोग प्रति दिन अपने घरों में झाडू लगाते हैं और कूडा साफ करते हैं । परन्तु कितनी ही सावधानी से झाडू दी जाय, फिर भी थोडी बहुत धूल रह ही जाती है, जो किसी विशेष पर्व अर्थात् त्योहार आदि के दिन साफ की जाती है । इसी प्रकार प्रति दिन प्रतिक्रमण करते हुए भी कुछ भूलों का ' प्रमार्जन करना बाकी रह ही जाता है, जिसके लिए पाक्षिक प्रतिक्रमण किया जाता है । पक्षभर की भी जो भूलें रह जायें उनके लिए चातुर्मासिक प्रतिक्रमण का विधान है। चातुर्मासिक प्रतिक्रमण से भी अवशिष्ट रही हुई अशुद्ध, सांवत्सरिक क्षमापना के दिन प्रतिक्रमण करके दूर की जाती है। __ स्थानाङ्ग सूत्र के षष्ठ स्थान के ५३८ वें सूत्र में छह प्रकार का प्रतिक्रमण बतलाया है : (१) उच्चार प्रतिक्रमण-उपयोगपूर्वक बड़ी नीत का पुरीष का त्याग करने के बाद ईयर्या का प्रतिक्रमण करना, उच्चार प्रतिक्रमण है। (२) प्रश्रवण प्रतिक्रमण-उपयोगपूर्वक लघुनीत अर्थात् पेशाब करने के बाद ईयों का प्रतिक्रमण करना, प्रश्रवण प्रतिक्रमण है। (३) इत्वर प्रतिक्रमण-देवसिक तथा रात्रिक आदि स्वल्पकालीन प्रतिक्रमण करना, इत्वर प्रतिक्रमण है। (४) यावत्कथिक प्रतिक्रमण-महाव्रत आदि के रूप में यावजीवन के लिए पाप से निवृत्ति करना, यावत्कथिक प्रतिक्रमण है। - -'णणु देवसियं रातियं पडिक्कतो किमितिपक्खिय-चाउम्मासिय-सवत्सरिएसु विसेसेणं पडिक्क्रमति ? .."जया लोगे गेहं दिवसे दिवसे पमिजिजंतं पि पक्षादिसु अभधितं "उचलेवणपमजणादीहि सन्जिजति । एवमिहा वि वसोहण विसेसे कीरति त्ति । -भावश्यक चूणि Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रति क्रमण आवश्यक (५) यत्किंचिन्मिथ्या प्रतिक्रमण-संयम में सावधान रहते , हुए भी साधु से यदि प्रमादवश तथा आवश्यक प्रवृत्तिवश असंयमरूप कोई आवरण हो जाय तो-अपनी भून को स्वीकार करते हुए उसी समय पश्चात्ताप पूर्वक 'मिक्छामि दुक्कडं' देना, यक्तिचिन्मिथ्या प्रतिक्रमण है । (६) स्वप्नान्तिक प्रतिक्रमण-सोकर उठने पर किया जाने ! वाला प्रतिक्रमण स्वप्नान्तिक प्रतिक्रमण है । अथवा विकारवासना रूप कुस्वान देखने पर उसका प्रतिक्रमण करना स्वप्नान्तिक प्रतिक्रमण है। ' आचार्य भद्रबाहु ने आवश्यक नियुक्ति मे प्रतिक्रमण के प्रतिचरणा श्रादि पाठ पर्याय कथन किए हैं। यद्यपि आठों पर्याय शब्द-रूप में पृथक् पृथक् हैं, परन्तु भाव की दृष्टि से प्रायः एक ही हैं । पडिकमणं पडियरणा, परिहरणा वारणा नियत्ती य । निन्दा गरिहा सोही पडिकमणं अट्ठहा होइ ॥१२३३।। (१) प्रतिक्रमण-'प्रति' उपसर्ग है 'क्रमु' धातु है। प्रति का अर्थ प्रतिकूल है, और क्रम् का अर्थ पदनिक्षेत्र है। दोनों का मिलकर अर्थ होता है कि जिन कदमो से बाहर गया है उन्ही कदमों से वापस लौट आए । जो साधक किसी प्रमाद के कारण सम्यग दर्शन, सम्धग ज्ञान और सम्यक् चारित्ररूप स्वस्थान से हटकर मिथ्यात्व, अज्ञान एवं असंयमरूप पर स्थान मे चला गया हो, उसका पुनः स्वस्थान मे लौट आना प्रतिक्रमण है। पापक्षेत्र से वापस आत्म शुद्धि क्षेत्र में लौट पाने को प्रतिक्रमण कहते हैं। प्राचार्य जिनदास कहते हैं-'पडिक्क्रमणं पुनरावृत्तिः । (२)प्रतिचरणा-अहिंसा, सत्य आदि संयमक्षेत्र में भली प्रकार विचरण करना, अग्रसर होना, प्रतिचरणा है । अर्थात् असंयम क्षेत्र से दूर-दूर बचते हुए सावधानतापूर्वक संयम को विशुद्ध एवं निर्दोष पालन Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ - आवश्यक दिग्दर्शन करना, प्रतिचरणा है । आचार्य जिनदास कहते हैं-'अत्यादरात्चरणा पडिचरणा कार्य-परिहारः कार्यप्रवृत्तिश्च । (३) परिहरणा-सत्र प्रकार से अशुभ योगों का, दुर्थ्यानों का, दुराचरणों का त्याग करना, परिहरणा है। सयममार्ग पर चलते हुए आसपास अनेक प्रकार के प्रलोभन आते हैं, विप्न आते हैं, यदि साधक परिहरणा न रखे तो ठोकर खा सकता है, पथ भ्रष्ट होसकता है। (४) वारणा-वारणा का अर्थ निषेध है। महासार्थवाह वीतराग देव ने साधकों को विषय भोग रूप विष वृक्षों के पास जाने से रोका है। अतः जो साधक इस निषेधाज्ञा पर चलते हैं, अपने को विषयभोग से बचाकर रखते हैं, वे सकुशल संसार वन को पार कर मोक्षपुरी में पहुंच जाते हैं । 'आत्म निवारणा वारणा । (५) निवृत्ति-अशुभ अर्थात् पापाचरण रूप अकार्य से निवृत्त होना, निवृत्ति है। साधक को कभी भी प्रमाद नहीं करना चाहिए । यदि कभी प्रमाद दशा मे चला भी जाए तो शीघ्र ही अप्रमाद भाव में लौट आना चाहिए। प्राचार्य जिनदास कहते हैं-'असुभभावनियत्तणं नियत्ती । (६) निन्दा-अपने आत्मदेव की साक्षी से ही पूर्वकृत अशुभ श्रोचरणों को बुरा समझना, उसके लिए पश्चात्ताप करना निदा है। पाप को बुरा समझते हो तो चुपचाप क्यों रहते हो? अपने मन में ही उस अशुभ संकल्प एवं अशुभ आचरण को धिक्कार दो, ताकि वह मन का मैल धुलकर साफ हो जाय । साधनाकाल में संसार की ओर से बडी भारी पूजा प्रतिष्ठा मिलती है। इस स्थिति में साधक यदि श्रहंकार के चक्र में पड गया तो सर्वनाश है । अतः साधक को प्रतिदिन विचारना है और अपने आत्मा से कहना है कि-'तू वही नरक तिर्यञ्च आदि कुगति मे भटकने वाला पामर प्राणी है। यह मनुष्य जन्म बडे पुण्योदय से मिला है । और यह सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रय का ही प्रताप है कि तू इस उच्च स्थिति में है। देखना, कहीं भटक न जाना ! तू ने अमुक-अमुक Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रति क्रमण अावश्यक ' १२७ . भृले की है और फिर भी यह साधुता का गर्व है ? धिक्कार है तेरी इस नीच मनोवृत्ति पर ।' (७) गह-गुरुदेव तथा किसी भी अन्य अनुभवी साधक के समक्ष अपने पापो की निन्दा करना गर्दा है । गर्दा के द्वारा मिथ्याभिमान चूर-चूर हो जाता है । दूसरो के समक्ष अपनी भूल प्रकट करना कुछ सहज वात नहीं है । जबतक हृदय में पश्चात्ताप का तीव्र वेग न हो, आत्मशुद्वि का दृढ संकल्प न हो, पापाचार के प्रति उत्कट घृणा न हो, तबतक अपराध मन में ही छुपा बैठा रहता है, वह किसी भी दशा मे बाहर आने के लिए जिह्वा के द्वार पर नहीं आता। अतएव तीव्र पश्चात्ताप के द्वारा दूसरों के समक्ष पापों की आलोचना रूप गहीं पाप प्रक्षालन का सर्वश्रेष्ठ साधन है । जिस प्रकार अमृतौषधि से विष दूर हो जाता है, उसी प्रकार गर्दा के द्वारा टोपरूप विप भी पूर्णरूप से नष्ट हो जाता है। (८) शुद्धि-शुद्धि का अर्थ निर्मलता है। जिस प्रकार वस्त्र पर लगे हुए तैल आदि के दाग को साबुन आदि से धोकर साफ किया जाता है, उसी प्रकार अात्मा पर लगे हुए दोषों को पालोचना, निन्दा, गर्दा तथा तपश्चरण अादि धर्म-साधना से धोकर साफ किया जाता है। प्रतिक्रमण अात्मा पर लगे दोवरूप दागों को धो डालने की साधना है, अतः वह शुद्धि भी कहलाता है । ___प्रतिक्रमण जैन-साधना का प्राण है। जैन साधक के जीवन क्षेत्र का कोना-कोना प्रतिक्रमण के महा प्रकाश से प्रकाशित है । शौच, पेशाब, प्रतिलेखना, वसति का प्रमार्जन, गोचरी, भोजन पान, मार्ग मे गमन, शयन, स्वाध्याय, भक्तपान का परिष्ठापन, इत्यादि कोई भी क्रिया की जाए तो उसके बाद प्रतिक्रमण करना आवश्यक है। एक स्थान से सौ हाथ तक की दूरी पर जाने और वहाँ फिर एक मुहूर्त भर बैठ कर विश्राम लेना हो तो बैठते ही गमनागमन का प्रतिक्रमण अवश्य करणीय होता है। श्लेप्म और नाक का मल भी डालना हो तो उसका भी प्रतिक्रमण करने का विधान है । भूमि पर एक कदम भी यदि बिना देखे निरुपयोग दशा Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ आवश्यक दिग्दर्शन मे रख दिया हो तो साधु को तदर्थ भी मिच्छामि दुक्कडं देना चाहिए । ज्ञात, अज्ञात तथा सहसाकार आदि किसी भी रूप में कोई भी क्रिया की हो, कोई भी घटना घटी हो, उसके प्रति मिच्छामि दुक्कडं रूप प्रतिक्रमण कर लेने से आत्मा में अप्रमत्तभाव की ज्योति प्रकाशित होती है, अपूर्व श्रात्मशुद्धि का पथ प्रशस्त होता है और होता है अज्ञान, अविवेक एवं अनवधानता का अन्त 1 प्रतिक्रमण का अर्थ है.--'यदि किसी कारण विशेष से आत्मा संयम क्षेत्र से असंयम क्षेत्र में चला गया हो तो उसे पुनः संयम क्षेत्र में लौटा लाना।' इस व्याख्या में प्रमाद शब्द विचारणीय है। यदि प्रमाद के स्वरूप का पता लग जाय तो साधक बहुत कुछ उससे बचने की चेष्टा कर सकता है। प्रवचन सारोद्वार में प्रमाद के निम्नोक्त आठ प्रकार बताए गए हैं। (१)अज्ञान-लोक-मूढता आदि । (२) सशय-जिन-वचनो मे सन्देह । (३) मिथ्या ज्ञान-विपरीत धारणा। (४) राग-प्रासक्ति । (५)द्वष-घृणा। (६) स्मृति भ्रंश-भूल हो जाना । (७) अनादर-संयम के प्रति अनादर । (८) योगदुष्प्रणिधानता-मन, वचन, शरीर को कुमार्ग में . प्रवृत्त करना । प्रतिक्रमण की साधना प्रमादभाव को दूर करने के लिए है। साधक के जीवन में प्रमाद ही वह विप है, जो अन्दर ही अन्दर साधना को सहा-गला कर नष्ट-भ्रष्ट कर डालता है। अतः साधु और श्रावक दोनो का कर्तव्य है कि प्रमाद से बचें और अपनी साधना को प्रतिक्रमण के द्वारा अप्रमत्त स्थिति प्रदान करें। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १६ : कायोत्सर्ग-आवश्यक प्रतिक्रमण-अावश्यक के बाद कायोत्सर्ग का स्थान है । यह श्रावश्यक भी बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है । अनुयोगद्वार सूत्र में कायोत्सर्ग का नाम व्रणचिकित्सा है। धर्म की आराधना करते समय प्रमादवश यदि कहीं अहिंसा एवं सत्य श्रादि व्रत में जो अतिचार लग जाते हैं, भूले हो जाती हैं, वे संयम रूप शरीर के घाव हैं । कायोत्सर्ग उन घावों के लिए मरहम का काम देता है। यह वह औषधि है, जो घावों को पुर करती है और संयम शरीर को अक्षत बनाकर परिपुष्ट. करती है । जो वस्त्र मलिन हो जाता है, वह किससे धोया जाता है ! जल से ही धोया जाता है न ? एक बार नहीं, अनेक बार मलमल कर धोया जाता है। इसी प्रकार संयम रूप वस्त्र को जब अतिचारो का मल लग जाता है, भूलो के दाग लग जाते हैं तो उसे प्रतिक्रमण रूप जल से धोया जाता है। फिर भी कुछ अशुद्धि का अंश रह जाता है तो उसे कायोत्सर्ग के उष्ण जल से दुबारा धोया जाता है। यह जल ऐसा जल है, जो जीवन के एक एक सूत्र से मल के कण-कण को गला कर साफ करता है और संयम जीवन को अच्छी तरह शुम बना देता है। कायोत्सर्ग एक प्रकार का प्रायश्चित है। वह पुराने पापों को धोकर साफ कर देता है। आवश्यक सूत्र के उत्तरीकरण सूत्र में यही कहा है कि संयम जीवन वो विशेषरूप से परिष्कृत करने के लिए, प्रायश्चित करने के लिए, विशुद्ध करने के लिए, आत्मा को शल्य रहित बनाने के लिए, पाप कर्मों के निर्यात के लिए कायोत्सर्ग किया जाता है।" Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावश्यक दिग्दर्शन -'तस्स उत्तरीकरणणं, पायच्छित्तकरणेणं, विसोही करणणं, विसल्ली करणेणं, पावाण कम्माण निग्घायणटाए ठामि काउस्सग । आर प्रश्न करेंगे कि क्या किए हुए पाप भी धोकर साफ किए जा सकते हैं ? बिना भोगे हुए भी पापों से छुटकारा हो सकता है ? पाप कमों के सम्बन्ध मे तो यहीं कहा जाता है कि 'अवश्यमेव भोकव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् । जैन धर्म उपयुक्त धारणा से विरोध रखता है। वह सब पाप कर्मों 'के भोगने की मान्यता का पक्षपाती नहीं है। किए हुए पापो की शुद्धि न मानें तो फिर यह सब धर्म साधना, तपश्चरण आदि व्यर्थ ही कायक्लेश होगा । ससार में हम देखते है कि अनेक विकृत हुई वस्तुएँ पुनः शुद्ध कर ली जाती हैं तो फि. आत्मा को शुद्ध क्या नहीं बनाया जा सकता ? पाप बड़ा है या आत्मा ? पाप की शक्ति बलवती है या धर्म की? धर्म की शक्ति संसार मे बडी महत्त्व की शक्ति है। उसके समक्ष पाप ठहर नहीं सकते हैं। भगवान के सामने शतान भला कैसे ठहर सकता है ? हमारी प्राध्यात्मिक शक्ति ही भागवती शक्ति है। उसके समक्ष पापों की आसुरी शक्ति कथमपि नही खडी रह सकती है । पर्वत की गुहा में हजार-हजार वर्षों से अन्धकार भरा हुआ है। कुछ भी तो नहीं दिखाई देता । जिधर चलते हैं, उधर ही ठोकर खाते हैं । परन्तु ज्यो ही प्रकाश अन्दर पहुंचता है, क्षण भर में अंधकार छिन्न भिन्न हो जाता है। धर्म-साधना एक ऐसा ही अप्रतिहत प्रकाश है। भोग-भोग कर कमां का नाश कबतक होगा ? एकेक आत्मप्रदेश पर अनन्त-अनन्त कर्म वर्गणा हैं। इस संक्षिप्त जीवन में उनका भोग हो भी तो कैसे हो ? हाँ तो जैन धर्म पापो की शुद्धि में विश्वास रखता है। प्रायश्चित्त की अपूर्व । शक्ति के द्वारा वह अात्मा की शुद्धि मानता है./ भूला-भटका हुआ साधक जब प्रायश्चित कर लेता है तो वह शुद्ध हो जाता है, निष्याप हो जाता है। फिर वह धर्म में, समाज मे, लोक में, परलोक में सर्वत्र श्रादर का स्थान प्राप्त कर लेना है । वस्त्र पर जबतक अशुद्धि लगी रहती है, तभी Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - : कायोत्सर्ग-यावश्यक तक उसके प्रति घुणा बनी रहती है। परन्तु जब 'व: धोकर साफ कर लिया, जाता है तो फिर उसी पहले जैसे स्नेह से पहना जाता है। यही जात पाप शुद्धि के लिए किए जाने वाले प्रायश्चित्त के सम्बन्ध में भी है । प्रायश्चित्त के अनेक रूप हैं । जैसा दोष होता है, उसी प्रकार का प्रायश्चित्त उसकी शुद्धि करता है। जीवन व्यवहार में इधर-उधर जो संयम जीवन में भूले हो जाती हैं, ज्ञात या अज्ञात रूप मे कहीं इधरउधर जो कदम लडखडा जाता है, कायोत्सर्ग उन सब पापों का प्रायश्चित्त है । कायोत्सर्ग के द्वास वे सब पाप धुल कर साफ हो जाते हैं। फलतः श्रात्मा शुद्ध निर्मल एवं निष्पाप हो जाता है। भगवान् महावीर ने पापकर्मों को भार कहा है। जेठ का महीना हो, मंजिल दूर हो, मार्ग ऊँचा नीचा हो, और मस्तक पर मैन भर पत्थर का बोझ गर्दैन की नस-नस को तोड़ रहा हो, बताइए, यह कितनी विकट स्थिति है । इस स्थिति मे भार उतार देने पर मजदूर को कितना अानन्द प्राप्त होता है। यही दशा पापों के भार की भी है । कायोत्सर्ग के द्वारा इस भार को दूर फेक दिया जाता है। कायोत्सग वह विश्राम भूमि है, जहाँ पाप कर्मों का भार हल्का हो जाताहै, सब ओर प्रशस्त धर्म स्थान का वातावरण तैयार हो जाता है, फलतः श्रात्मा स्वस्थ, सुखमय एवं अानन्दमय हो जाता है। 'काउसग्गेणं तीयपडप्पन्नं पायच्छितं विसोहेइ विसुद्धपायच्छित्ते य जीवे निव्वुयहिए अोहरिय भरुव्व भारबहे पसत्थज्माणोवगए सुहं सुद्देणं विहरइ । -उत्तराध्ययन २६ । १२ । .. कायोत्सर्ग मे दो शब्द हूँ-काय और उत्सर्ग। दोनों का मिल कर अर्थ होता है-काय का त्याग । प्रतिक्रमण करने के बाद साधक अमुक , १'कायोत्सर्गकरणतः प्रागुपात्तकर्मक्षयः प्रतिपाद्यते । ' - हरिभद्रीय आवश्यक Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ श्रावश्यक दिग्दर्शन समय तक अपने शरीर को वोसिरा कर जिनमुद्रा से खड़ा हो जाता है, वह उस समय न संसार के बाह्य पदार्थों में रहता है, न शरीर में रहता है, सब योर से सिमट कर अात्मस्वरूप में लीन हो जाता है। कायोत्सर्ग अन्तर्मुख होने की साधना है। अस्तु बहिर्मुख स्थिति से साधक जब अन्तर्मुख स्थिति में पहुंचता है तो वह रागद्वेप से बहुत ऊपर उठ जाता है, निःसंग एवं अनासक्त स्थिति का रसास्वादन करता है, शरीर तक की मोहमाया का त्याग कर देता है। इस स्थिति में कुछ भी संकट पाए, उसे समभाव से सहन करता है। सरदी हो, गर्मी हो, मच्चर हो, दंश हो, सत्र पीडायों को सममाव से सहन करना ही काय का त्याग है। कायोत्सर्ग का उद्देश्य शरीर पर की मोहमाया को कम करना है। यह जीवन का मोह, शरीर की ममता बड़ी ही भयंकर चीज है। साधक के लिए तो विप है। साधक तो क्या, साधारण संमारी प्राणी भी इस दल-दल में फंस जाने के बाद किसी अर्थ का नहीं रहता। जो लोग कर्तव्य की अपेक्षा शरीर को अधिक महत्त्य देते है, शरीर की मोहमाया में रचे-पचे रहते हैं, दिन-रात उसी के सजाने-सँवारने में लगे रहते हैं, वे समय पर न अपने परिवार की रक्षा कर सकते हैं, और न समाज एवं राष्ट्र की ही। वे भगोड़े संकट काल में अपने जीवन को लेकर भाग खड़े होते हैं, इस स्थिति में परिवार, समाज, राष्ट्र की कुछ भी दुर्गति हो, उनकी बला से ! अाज भारत इसी स्थिति में पहुंच गया है । यहाँ सर्वत्र भगोड़े ही राष्ट्र और धर्म के जीवन को बरबाद कर रहे हैं। उठ कर संघर्ष करने की, और संघर्ष करते-करते अपने आपको कर्तव्य के लिए होम देने की यहाँ हिम्मत ही नहीं रही है। श्राज देश के प्रत्येक स्त्री-पुरुष को कायोत्सर्ग-सम्बन्धी शिक्षा लेने की आवश्यकता है। शरीर और आत्मा को अलग-अलग समझने की कला ही राष्ट्र में कर्तव्य की चेतना जगा सकती है। जह चेतन का भेद समझे विना सारी साधना मृत साधना है। जीवन के Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायोत्सर्ग श्रावश्यक कदम-कदम पर कायोत्सर्ग का स्वर गूंजते रहने में ही आज के धर्म, समाज और राष्ट्र का कल्याण है। कायोत्सर्ग की भावना के विना समय पर महान् उद्देश्यो की पूर्ति के लिए अपने तुच्छ स्वार्थों को वलिदान करने का विचार तक नहीं पा सकता। इस जीवन में शरीर का मोह बहुत बडा बन्धन है। जीवन की प्राशा का पाश जन-जन को अपने में उलझाए हुए है। पद-पद पर जीवन का भय कर्तव्य साधना से पराङ् मुख होने की प्रेरणा दे रहा है। प्राचार्य अकलंक इन सब बन्धनों से मुक्ति पाने का एक मात्र उपाय कायोत्सर्ग को बताते हैं-'निःसंग-निर्भयत्व-जीविताशा-घ्युदासाद्यर्थों व्युत्सर्गः ।। -राजवार्तिक ९ । २६ । १० । श्राचार्य अमित गति तो अपने सामायिक पाठ में कायोत्सर्ग के लिए मङ्गलकामना ही कर रहे हैं किशरीरतः कर्तुमनन्तशक्ति, विभिन्नमात्मानमपास्तदोषम् । जिनेन्द्र । कोषादिव खङ्ग-यष्टिं, तव प्रसादेन ममास्तु शक्तिः ।२। -हे जिनेन्द्र ! श्राप की अपार कृपा से मेरी आत्मा में ऐसी श्राध्यात्मिक शक्ति प्रकट हो कि मै अपनी अनन्त शक्ति सम्पन्न, दोषरहित, निर्मल वीतराग श्रात्मा को इस क्षणभंगुर शरीर से उसी प्रकार अलग कर सकूँ-अलग समझ सकूँ, जिस प्रकार म्यान से तलवार अलग की जाती है। ___ हाँ तो जनधर्म के षडावश्यक में कायोत्सर्ग को स्वतन्त्र स्थान इसी । ऊपर की भावना को व्यक्त करने के लिए मिला है। प्रत्येक जैन साधक को प्रातः और सायं अर्थात् प्रति-दिन नियमेन कायोत्सर्ग के द्वारा शरीर १-अभिक्खयां काउस्सग्गकारी। -दशवै० द्वितीय चूलिका Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ यावश्यक दिग्दर्शन और आत्मा के सम्बन्ध में विचार करना होता है कि-"यह शरीर और है, और मैं और हूँ। मैं अजर-अमर चैतन्य यात्मा हूँ, मेरा कभी नाश नहीं हो सकता। शरीर का क्या है, आज है, कल न • रहे । अस्तु, मैं इस क्षणभंगुर शरीर के मोह में अपने कर्तव्यों से क्यों पराउमुख बनें ? यह मिट्टी का पिंड मेरे लिए एक खिलौना भर है । जब तक यह खिलौना काम देता है, तब तक मैं इससे काम. लूँगा, डट कर काम लूंगा। परन्तु जब यह टूटने को होगा, या टूटेगा तो मैं नहीं रोऊँगा । मैं रोऊँ भी क्यों ? ऐसे ऐसे विलौने अनन्त-अनन्त ग्रहण किए हैं, क्या हुया उनका ? कुछ दिन रहे टूटे और मिट्टी में मिल गाए । इस खिलौने की रक्षा करना मेरा कर्तव्य है। व्यर्थ ही शरीर की हत्या करना, अपने आप में कोई प्रादर्श नहीं है। वीतराग देव व्यर्थ ही शरीर को दण्ड देने में, उसकी हत्या करने में पाप मानते हैं।' परन्तु जब यह शरीर कर्तव्य पथ का गेडा बने, जीवन का मोह दिखाकर श्रादर्श से च्युत करे तो मैं इस रागिनी को सुनने वाला नहीं हूँ। मैं शरीर की अपेक्षा प्रात्मा की ध्वनि सुनना अधिक पसंद करता हूँ। शरीर मेरा वाहन है। मैं इस पर सवार होकर. जीवन-यात्रा का लम्बा पथ तय करने के लिए आया हूँ। परन्तु कभी कभी यह दुष्ट अश्व उलटा मुझ पर सवार होना चाहता है । यदि, यह घोडा मुझ पर सवार हो गया तो कितनी अभद्र बात होगी ? नही, मैं ऐसा कभी नहीं होने दूंगा।" यह है कायोत्सर्ग की मूल भावना । प्रति दिन नियमेन शरीर के ममत्वत्याग का अभ्यास करना, साधक के लिए कितना अधिक महत्त्व पूर्ण है। जो साधक निरन्तर ऐसा कायोत्सर्ग करते रहेगे, ध्यान करते रहेंगे, वे' समय पर अंवश्य शरीर की मोहमाया से बच सकेगे और अपने जीवन के महान् लक्ष्य को प्राप्ति मे सफल हो सकेंगे। प्राचार्य सकल कीर्ति कहते हैं--- . ... ममत्वं देहतो नश्येत्, "कायोत्सर्गण धीमताम् । ' Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायोत्सर्ग श्रावश्यक. निर्ममत्वं · भवेन्नून,... -महाधर्म-सुखाकरम् - ॥१८ १८४|| - ; प्रश्नोत्तर श्रावकाचार - -~-कायोत्सर्ग के द्वारा ज्ञानी साधको का शरीर पर से ममत्रभाव.. छूट जाता है, और शरीर पर से ममत्वभाव का छुट जाना ही वस्तुतः महान् धर्म और सुख है। ___कायोत्सर्ग के सम्बन्ध में श्राज की क्या स्थिति है ? इस पर भी प्रसगानुसार कुछ विचार कर लेना आवश्यक है। आजकल प्रतिक्रमण करते समय जब ध्यान स्वरूप कायोत्सर्ग किया जाता है, तब मच्छरों से अपने को बचाने के लिए अथवा सरदी आदि से रक्षा करने के लिए शरीर को सब भोर से वस्त्र द्वारा ढक लेते हैं । यह दृश्य बडा ही। विचित्र होता है । यह ममत्व त्याग का नाटक भी क्या खूब है ? यह कायोत्सर्ग क्या हुआ ? यह तो उल्टा शरीर का मोह है। कायोत्सर्ग तो कष्टों के लिए अपने आपको खुला छोड देने में है । कष्ट सहिष्णु होने के लिए अपने को वस्त्र रहित बनाकर नंगे शरीर से कायोत्सर्ग किया जाय तो अधिक उत्तम है। प्राचीन काल मे यहीं परम्परा थी। प्राचार्य धर्मदास ने उपदेश माला में प्रतिक्रमण और कायोत्सर्ग करते-समय प्रावरण अोढने का निषेध किया है। कायोत्सर्ग करते समय-न बोलनाहै, न हिलना है । एक स्थान पर पत्थर की चट्टान के समान निश्चल , एवं निःस्पन्द जिन मुद्रा में दण्डायमान खड़े रहकर अपलक दृष्टि सेशरीर का ममत्व बोसराना है, आत्मध्यानमे रमण करना है । प्राचार्य भद्रबाहु आवश्यक नियुक्ति में इस ममत्व त्याग पर प्रकाश डालते हुए कहते हैंवासी-चंदणकप्पो, जो मरणे जीविए य समसएए देहे य अपडिबद्धो, काउस्सग्गो हवइ तस्स ॥१५४८॥ .. Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ श्रावश्यक दिग्दर्शन __-चाहे कोई भक्ति भाव से चंदन लगाए, चाहे कोई पवश बसौले से छीले, चाहे जीवन रहे, चाहे इसी क्षण मृत्यु भा जाए; परन्तु जो साधक देह में श्रासक्ति नहीं रखता है, उक्त सब स्थितियों में सम चेतना रखता है, वस्तुतः उसी का कायोत्सर्ग शुद्ध होता है। तिविहागुपसग्गाणं, दिव्याणं माणुसाण तिरियाणं । सम्ममहियासणाए, काउस्सग्गो हवइ सुद्धो॥ १५४६ ।। -जो साधक कायोत्सर्ग के समय देवता, मनुष्य तथा तिर्यञ्चसम्बन्धी सभी प्रकार के उपसगों को सम्यक रूप से सहन करता है, उसका कायोत्सर्ग ही वस्तुतः शुद्ध होता है। काउस्सग्गे जह सुट्रियस्स, भज्जति अंग मंगाई। इय भिंदति सुविहिया, अटविहं कम्म-संघायं ॥ १५५१ ।। . -जिस प्रकार कायोत्सर्ग म निःस्पन्द खड़े हुए अंग-अंग टूटने लगता है, दुखने लगता है, उसी प्रकार सुविहित साधक कायोत्सर्ग के द्वारा आठों ही कर्म समूह को पीडित करते हैं एवं उन्हें नष्ट कर डालते हैं। अन्नं इमं सरीर अन्नो जीवत्ति कय-बुद्धी। दुक्ख परिकिलेसफर छिंद ममत्तं सरीराभो ॥ १५५२ ।। -कायोत्सर्ग में शरीर से सब दुःखो की जड़ ममता का सम्बन्ध तोड़ देने के लिए साधक को यह सुदृढ संकल्प कर लेना चाहिए कि शरीर ओर है, ओर 'आत्मा ओर है। . . Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायोत्सर्ग श्रावश्यक १३७ कायोत्सर्ग करने वाले सज्जन विचार सकते हैं कि कायोत्सर्ग के लिए कितनी तैयारी की आवश्यकता है, शरीर पर का कितना मोह हटाने की अपेक्षा है । कायोत्सर्ग करते समय पहले से ही शरीर का मोह रखलेना और उसे वस्त्रों से लपेट लेना किसी प्रकार भी न्याय्य नहीं है। ममत्व त्याग के ऊँचे आदर्श के लिए वस्तुतः सच्चे हृदय से ममत्व का त्याग करना चाहिए। कायोत्सर्ग के लिए ऊपर आचार्य भद्रबाह के जो उद्धरण दिएगए हैं, उनका उद्देश्य सावक मे क्षमता का दृढ़ बल पैदा करना है। उसका यह अर्थ नहीं है कि साधक मिथ्या अाग्रह के चक्कर में अज्ञानतावश अपना जीवन ही होम दे । साधक, पाखिर एक साधारण मानव , हैं । परिस्थितियाँ उसे झकझोर सकती हैं। सभी साधक एक क्षण में ही उस चरम स्थिति में पहुँच सके, यह असम्भव है। आज ही नहीं, उस युग में भी असम्भव था। मानव जीवन एक पवित्र वस्तु है, उसे किसी महान् उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही सुरक्षित रखना है या होम देना है । अतः भगवान् ने दुर्बल साधकों के लिए आवश्यक सूत्र मे कुछ श्रागारों की ओर सकेत किया है। कायोत्सर्ग करने से पहले उस आकार सूत्र का पढ़ लेना, साधक के लिए आवश्यक है | खाँसी, छीक, डकार, मूर्छा आदि शारीरिक व्याधियों का भी आगार रक्खा जाता है, क्योंकि शरीर शरीर है, व्याधिका मन्दिर है। किसी अाकस्मिक कारण से शरीर मे कम्पन बाजार तो उस स्थिति में कायोत्सर्ग का भंग नती होता है। दीपार या छत आदि गिरने की स्थिति में हों, आग लग जाए, चोर या गजा आदि का उपद्रव हो, अचानक मार काट का उपद्रव उठ खडा हो, तब भी कायोत्सर्ग खोलकर इधर-उबर सुरक्षा के लिए प्रबन्ध किया जा सकता है। व्यर्थ ही धर्म का अहंकार रख कर ' खड़े रहना, और फिर पात रोद्र ध्यान की परिणति मे मरण तथा प्रहार प्राप्त करना, संयम के लिए घातक चीज है। जैन साधना का मूल उद्देश्य प्रातरौद्र की परिणति को बन्द करना है, अतः जब तक वह परिणति कर इधर-उबर मी रहना, और फिरता है। व्यर्थ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ आवश्यक दिग्दर्शन • कायोत्सर्ग के द्वारा बन्द होती है, तब तक कायोत्सर्ग का पालम्बन हित. कर है। और यदि वह परिणति परिस्थितिवश कायोत्सर्ग समाप्त करने से बन्द होगी हो तो वह मार्ग भी उपादेय है। केवल अपनी रक्षा ही नहीं, यदि कभी दृमरे जीवों को रक्षा के लिए भी कायोत्सर्ग बीच मे खोलना . पडे तो वह भी आवश्यक है । ध्यानस्थ साधक के सामने पंचेन्द्रिय जीवों : का छेदन-भेदन होता हो, किसी को सर्प आदि डस ले तो तात्कालिक सहायता करने के लिए जैन परम्परा में ध्यान खोलने की स्पष्टतः अाज्ञा है। क्योंकि वह रक्षा का कार्य कायोत्सर्ग से भी अधिक श्रेष्ठ है ।.. श्राचार्य भद्रबाहु आवश्यक नियुक्ति में इन्ही ऊपर की भावनाओं का स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैंअगणीयो छिदिज्ज वा, वोहियखोभाइ दीहडको वा। श्रागारहि अभग्गो, उस्सग्गो एवमाईहिं' ॥१५१६ ॥ . हॉ, तो जैन धर्म विवेक का धर्म है। जो भी स्थिति विवेक पूर्णहो, लाभपूर्ण हो, प्रातरौद्र दुर्सान की परिणति को कम करने वाली हो, उसी स्थिति को अपनाना जैन धर्म का अादर्श है। पाठक इस का विचार रखे तो अधिक श्रेयष्कर होगा। दुराग्रह में नहीं, सदाग्रह में ही जैन-धर्म की यात्मा का निवास है। अागम साहित्य में कायोत्सर्ग के दो भेद किए है---द्रव्य और भाव । द्रव्य कायोत्सर्ग का अर्थ है शरीर की चेटानों का निरोध करके एक स्थान पर-जिन मुद्रा से निश्चल एवं निःस्पन्द स्थिति में खड़े रहना । यह साधना के क्षेत्र में आवश्यक है, परन्तु भाव के साथ । केवल: - १-यह गाथा, , आगारसूत्रान्तर्गत 'एवमाइएहि श्रागारेहिं! इस पद के स्पष्टीकरण के लिए कही गई है। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायोत्सर्ग आवश्यक १३६ : द्रव्य का जैनधर्म में कोई महत्त्व नहीं है । एक आचार्य कहता है कि यह द्रव्य तो एकेन्द्रिय वृदो एवं पर्वतों मे भी मिल सकता है। केवल निःस्पन्द हो जाने में ही साधना का प्राण नहीं है | साधना का प्राण है भाव । भाव कायोत्सर्ग का अर्थ है-पात रौद्र दुर्थ्यानो का त्याग कर धर्म तथा शुक्ल ध्यान मे रमण करना, मन मे शुभ विचारों का प्रवाह वहाना, आत्मा के मूल स्वरूप की ओर गमन करना । कायोत्सर्ग में ध्यान की ही महिमा है | द्रव्य तो ध्यान के लिए भूमिकामात्र हैं। अतएव आचार्य जिनदास आवश्यक चूर्णि मे कहते हैं-'सो पुण काउस्सग्गो दवतो भावतो य भवति, दवतो कायचेट्टानिरोहो, भावतो काउरसग्गो झाणं । और इसी भाव को मुख्यत्व देते हुए उत्तराध्ययन सूत्र के समाचारी अध्ययन में बार-बार कहा गया है कि'काउस्सगं तो कुज्जा, सव्वदुक्खविमोक्खणं ।. कायोत्सर्ग सब दुःखो का क्षय करने वाला है, परन्तु कौन सा ! 'द्रव्य के साथ भाव। __यह कायोत्सर्ग दो' रूप में किया जाता है-एक चेष्टाकायोत्सर्ग तो दूसरा अभिभव कायोत्सर्ग। चेटा कायोत्सर्ग परिमित काल के लिए गमनागमनादि एवं आवश्यक श्रादि के रूप में प्रायश्चित्त स्वरूप होता है। दूसरा अभिभव कायोत्सर्ग यावजीवन के लिए होता है । उपसर्ग विशेष के आने पर यावजीवन के लिए जो सागारी सथारा रूप कायोत्सर्ग किया जाता है, उसमे यह भावना रहती है कि यदि मै इस उपसर्ग के कारण मर जाऊँ तो मेरा यह कायोत्सर्ग यावज्जीवन के लिए है । यदि.मैं जीवित बच जाऊँ तो उपसर्ग रहने तक कायोत्सर्ग है। अभिभव कायोत्सर्ग का दूसरा रूप संस्तारक अर्थात् संथारे का है। यावजीवन के लिए सथारा करते समय जो काय का उत्सर्ग किया जाता । है वह भर चरिम अर्थात् आमरण अनशन के रूप में होता है। संथारे के बहुत-से भेद हैं, जो मूल आगम साहित्य से अथवा आवश्यक नियुक्ति आदि ग्रन्यो से जाने जा सकते हैं। प्रथम चेय कायोत्सर्ग, उस अन्तिम Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० आवश्यक दिग्दर्शन अभिभव कायोत्सर्ग के लिए अभ्यासस्वरूप होता है। नित्यप्रति कायोत्सर्ग का अभ्यास करते रहने से एक दिन वह अात्मबल प्राप्त हो सकता है, जिसके फलस्वरूप साधक एक दिन मृत्यु के सामने सोल्लास हँसता हुया खडा हो जाता है और मर कर भी मृत्यु पर विजय प्राप्त कर लेता है। ___कायोत्सर्ग के द्रव्य और भाव-स्वरूप को समझने के लिए एक जैनाचार्य कायोत्सर्ग के चार रूपों का निरूपण करते हैं। साधकों की जानकारी के लिए हम यहाँ संक्षेप में उनके विचारों का उल्लेख कर रहे हैं - (१)उत्थित उत्थित-कायोत्सर्ग के लिए खड़ा होने वाला साधक जब द्रव्य के साथ भाव से भी खडा होता है, अातं रौद्र ध्यान का त्याग कर धर्म ध्यान तथा शुक्ल ध्यान में रमण करता है, तब उस्थितोस्थित कायोत्सर्ग होता है। यह कायोत्सर्ग सर्वोत्कृष्ट होता है । इसमें सुन आत्मा जागृत होकर कर्मों से युद्ध करने के लिए तन कर खड़ा हो जाता है। (२) उत्थित निविष्ट-जब अयोग्य साधक द्रव्य से तो खड़ा हो जाता है, परन्तु भाव से गिरा रहता है, अर्थात् प्रातरौद्र ध्यान की परिगति में रत रहता है, तब उत्थित-निविष्ट कायोत्सर्ग होता है। इस में शरीर तो खड़ा रहता है, परन्तु प्रात्मा बैठी रहती है। (३) उपविष्ट उत्थित-अशक्त तथा वृद्ध साधक खड़ा तो नहीं हो पाता, परन्तु अन्दर में भाव शुद्वि का प्रवाह तीत्र है । अतः जब वह शारीरिक सुविधा की दृटि से पद्मासन यादि से बैठ कर धर्म ध्यान तथा शुक्ल ध्यान में रमण करता है, तब उपविष्ट वायोत्सर्ग होता है। शरीर बैठा है, परन्तु अात्मा खड़ा है।। (४) उपविष्ट-निविष्ट-जब पानसी एवं कर्तव्यशत्य साधक शरीर से भी बैठा रहता है और भाव से भी बैठा रहता है, धर्म ध्यान Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायोत्सर्ग आवश्यक की और न जाकर सांसारिक विषयभोगों की कल्पनाओं में ही उलझा रहता है तब उरविष्ट-निविष्ट कायोत्सर्ग होता है। यह कायोत्सर्ग नहीं, मात्र कायोत्सर्ग का दम्भ है। उपर्युक्त कायोत्सर्ग-चतुष्टय में से साधक जीवन के लिए पहला और तीसरा कायोत्सर्ग ही उपादेय है। ये दो कायोत्सर्ग ही वास्तविक रूप में कायोत्सर्ग माने जाते हैं, इनके द्वारा ही जन्म-मरण का बन्धन कटता है और आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप में पहुँच कर वास्तविक प्राध्यास्मिक श्रानन्द की अनुभूति प्राप्त करता है। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्याख्यान आवश्यक संसार में जो कुछ भी दृश्य ‘तथा अदृश्य वस्तुममूह है, वह सब न तो एक व्यक्ति के द्वारा भोगा ही जा सकता है और न भोगने के योग्य ही है । भोग के पीछे पड़कर मनुष्य कदापि शान्ति तथा श्रानन्द नहीं पा सकता । वास्तविक अात्मानन्द तथा अक्षय शान्ति के लिए भागों का त्याग करना ही एक मात्र उपाय है। अतएव प्रत्याख्यान आवश्यक के द्वारा साधक अपने को व्यर्थ के भोगों से बचाता है, यासक्ति के बन्धन से छुडाता है, और स्थायी यात्मिक शान्ति पाने का प्रयत्न करता है । प्रत्याख्यान का अर्थ है-'त्याग करना ।' 'वृत्ति प्रतिकूलतया श्रामर्यादया ख्यान 'प्रत्याख्यानम् ।। योग शास्त्र वृत्ति । १ प्रत्याख्यान में तीन शब्द है-प्रति + आ + पारयान । अविरति एवं असंयम के प्रति अर्थात प्रतिकूल रूप में, या अर्थात् मर्यादा स्वरूप आकार के साथ, याख्यान अर्थात् प्रतिज्ञा करना, प्रत्याख्यान है । 'अविरतिस्वरूप प्रभृति प्रतिकूलतया या मर्यादया आकारकरणस्वरूपया पाख्यान-कथनं प्रत्याख्यानम् ।'-प्रवचनसारोद्धार वृत्ति । अात्मस्वरूप के प्रति या अर्थात् अभिव्याप्त रूप से जिमस श्रनाशंसा रूप गुण उत्पन्न हो, इस प्रकार का आख्यान-कथन करना, प्रत्याख्यान है । ___भविष्यकाल के प्रति या मर्यादा के साथ अशुभयोग से निवृत्ति और शुभ योग में प्रवृत्ति का पाख्यान करना, प्रत्यारल्यान है। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'प्रत्याख्यानन्यावश्यक त्यागने योग्य वस्तुएँ द्रव्य और भावरूप से दो प्रकार की हैं। , अन्न, वस्त्र आदि वस्तुएँ द्रव्य रूप है, अतः इनका त्याग द्रव्य त्याग माना जाता है । अज्ञान, मिथ्यात्व, असंयम तथा कपाय आदि वैभाविक विकार भावरूप हैं, अतः इनका त्याग भावत्याग माना गया है। द्रव्य त्याग की वास्तविक आधारभूमि भावत्याग ही है । अतएव द्रव्यत्याग तभी प्रत्याख्यान कोटि मे आता है, जबकि वह राग-द्रुप और कषायों को मन्द करने के लिए तथा ज्ञानादि सद्गुणो की प्राप्ति के लिए किया जाय। जो द्रव्य त्याग भावत्याग पूर्वक नही होता है, तथा भाव त्याग के लिए नहीं किया जाता है, उससे आत्म-गुणो का विकास किसी भी अश में और किसी भी दशा मे नही हो सकता। प्रत्युत -कभी-कभी तो मिथ्याभिमान एवं दंभ के कारण वह , अधःपतन का कारण भी बन जाता है। मानव-जीवन मे आसक्ति ही सब दुःखो का मूल कारण है । जब तक ग्रासक्ति है, तब तक किसी भी प्रकार की प्रात्मशान्ति नहीं प्रात हो सकती । भविष्य की आसक्ति को रोकने के लिए प्रत्याख्यान ही एक अमोघ उगय है। प्रत्याख्यान के द्वारा ही अाशा तृष्णा, लोभ लालच आदि विषय विकारो पर विजय प्राप्त हो सकती है। प्रतिक्रमण एव कायोत्सर्ग के द्वारा आत्म शुद्धि हो जाने के बाद पुनः आसक्ति के द्वारा पापकर्म प्रविष्ट न होने पाएँ, इसलिए प्रत्याख्यान ग्रहण किया जाता है । एक बार मकान को धूल से साफ करने के बाद दरवाजे बन्द कर देने ठीक होते हैं, ताकि फिर दुबारा धूल न आने पाए। अनुयोग द्वार सूत्र में प्रत्याख्यान का नाम गुणधारण भी पाया है । गुणधारण का अर्थ है-जनरूप गुणों को धारण करना । प्रत्याख्यान के द्वारा अात्मा, मन वचन काय को दुष्ट प्रवृत्तियो से रोक कर शुभ प्रवृत्तियो पर केन्द्रित करता है। ऐसा करने से इच्छानिरोध, तृष्णामाव, सुख शान्ति आदि अनेक सद्गुणो की प्राप्ति होती है । श्राचार्य भद्रबाहु ' आवश्यक नियुक्ति में कहते है, Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___१४४ श्रावश्यक दिग्दर्शन पच्चक्खाणंमि कए, आसवदाराइ हुति पिहियाई। आसव - वुच्छेएणं, तरहा-वुच्छयणं होइ॥ १५६४ ।। -प्रत्याख्यान करने से संयम होता है, संयम से प्राश्रव का निरोध - संवर होता है, अाश्रवनिरोध से तृष्णा का नाश होता है। तण्हा-वोच्छेदेण य, अउलोवसमो भवे मणुस्साणं । अउलोचसमेण पुणो, पच्चक्खाणं हवइ सुद्धं ॥१५६शा -तृष्णा के नाश से अनुपम उपशमभाव अर्थात् माध्यस्थ्य परिणाम होता है, और अनुपम उपशमभाव से प्रत्याख्यान शुद्ध होता है । तत्तो चरित्तधम्मो, कम्मविवेगो तो अपुव्वं तु । तत्तो केवल-नाण, तो य मुक्खो सया सुक्खो ॥१५६६॥ -उपशमभाव से चारित्र धर्म प्रकट होता है, चारित्र धर्म से फर्मों की निर्जरा होती है, और उससे अपूर्वकरण होता है । पुनः अपूर्वकरण से केवल ज्ञान और केरल ज्ञान से शाश्वत सुखमय मुक्ति प्राप्त होती है। प्रत्याख्यान के मुख्यतया दो प्रकार है-मूलगुण प्रत्याख्यान और उत्तर गुण प्रत्याख्यान । मूल गुण प्रत्याख्यान के भी दो भेद है-- सर्वमूल गुण प्रत्याख्यान और देश गुण प्रत्याख्यान | माधुओं के पॉच महाप्रत सर्वमूल गुण प्रत्याख्यान होते हैं। और गृहस्थों के पाँच मुक्त देश गुण प्रत्याख्यान है। मूल गुण प्रत्याख्यान यावज्जीवन के लिए ग्रहण किए जाते हैं। उत्तरगुण प्रत्याश्यान, प्रतिदिन एवं कुछ दिन के लिए उपयोगी Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्याख्यान यावश्यक १४५ होते है । इसके भी दो प्रकार हैं- देश उत्तर गुण' प्रत्याख्यान और सर्व उत्तर गुण प्रत्याख्यान । तीन गुणव्रत और चार शिक्षा व्रत, देश उत्तर गुण प्रत्याख्यान है, जो श्रावकों के लिए होते हैं । अनागत श्रादि दश प्रकार का प्रत्याख्यान, सर्व उत्तरगुण प्रत्याख्यान होता है, जो साधु और श्रावक दोनो के लिए है। अनागत आदि दश प्रत्याख्यान इस भॉति हैं : (१) अनागत-पर्युषण आदि पर्व में किया जाने वाला विशिष्ट तप उस पर्व से पहले ही कर लेना, ताकि पर्वकाल में ग्लान, वृद्ध श्रादि की सेवा निर्वाध रूप से की जा सके। (२) अतिक्रान्त-पर्व के दिन वयावृत्य श्रादि कार्य में लगे रहने के कारण यदि उपवास प्रादि तप न हो सका हो तो उसे आगे कमी-अपर्व के दिन करना। (३) कोटि सहित-उपवास आदि एक तप जिस दिन पूर्ण हो उसी दिन पारणा किए बिना दूसरा तप प्रारम्भ कर देना, कोटि सहित तप है । कोटि सहित तप में प्रत्याख्यान की आदि और अन्तिम कोटि मिल जाती हैं। (४) नियंत्रित-जिस दिन प्रत्याख्यान करने का संकल्प किया हो उस नियमित दिन में रोग आदि की विशेष अडचन एवं विघ्न बाधा आने पर भी दृढता के साथ वह सकल्पित प्रत्याख्यान कर लेना नियंत्रित प्रत्याख्यान है। यह प्रत्याख्यान प्रायः चतुर्दश पूर्व के धर्ता, जिनकल्पी और दश पूर्व धर मुनि के लिए होता है । आज के युग में इस की परम्परा नहीं है, ऐसा प्राचीन आचार्यों का स्पेष्टीकरण है। (५) साकार-प्रत्याख्यान करते समय श्राकार विशेष अर्थात् अपवाद की छूट रख लेना, साकार तय होता है । (६) निराकार-श्राकार रक्खे बिना प्रत्याख्यान करना, निराकार तप है । यह दृढ धैर्य के बल पर होता है। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावश्यक दिग्दर्शन (७) परिमारणकृत-दत्ती, ग्रास, भोज्य द्रव्य तथा गृह । श्रादि की संख्या का नियम करना, परिमाणकृत है। जैसे कि इतने गृहों से तथा इतने पास से अधिक भोजन नहीं लेना । (८) निरवशेप-अशनादि चतुर्विध याहार का त्याग करना, निरवशेष तप है । निरवशेष का अर्थ है, पूर्ण । () सांकेतिक-संकेतपूर्वक किया जाने वाला प्रत्याख्यान, सांकेतिक है। मुट्ठी बाँधकर या गॉठ बॉधकर यह प्रत्याख्यान करना कि जब तक यह बंधी हुई है तब तक मैं श्राहार का त्याग करता हूँ। आज कल किया जाने वाला छल्ले का प्रत्याख्यान भी सांकेतिक प्रत्याख्यान में अन्तर्भूत है। इस प्रत्याख्यान का उद्देश्य अपनी सुगमता के अनुसार विरति का अभ्यास डालना है। (१०) अद्धा प्रत्यास्थान-समय विशेष की निश्चित मर्यादा वाले नमस्कारिका, पौरुषी श्रादि दश प्रत्याख्यान, अद्धा प्रत्याख्यान कहलाते हैं । श्रद्धा काल को कहते हैं। -भगवतीसूत्र ७ । २। साधना क्षेत्र में प्रत्याख्यान की एक महत्त्वपूर्ण साधना है। प्रत्याख्यान को पूर्ण विशुद्ध रूप से पालन करने में ही साधक की महत्ता है। छह प्रकार की विशुद्वियों से युक्त पाला हुया प्रत्याख्यान ही शुद्ध और दोष रहित होता है । ये विशुद्धियाँ इस प्रकार हैं : (१) श्रद्धान विशुद्धि-शास्त्रोक्त विधान के अनुसार पॉन महाव्रत तथा बारह व्रत आदि प्रत्याख्यान का विशुद्ध श्रदान करना, श्रद्धान विशुद्धि है। (२)ज्ञान विशुद्धि-जिन कल्प, स्थविरकल्प, मूल गुण, उत्तर गुण तथा प्रातकाल अादि के रूप में जिस समय जिसके लिए जिग प्रत्याख्यान का जैसा स्वरूप होता है, उसको ठीक-ठीक वैसा ही जानना, ज्ञान विशुद्धि है। (३) विनय विशुद्धि-मन, वचन और काय से संयत होते हुए, Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्याख्यान आवश्यक प्रत्याख्यान के समय जितनी वन्दनाओं का विधान है, तदनुसार वन्दना करना विनय विशुद्धि है। (४) अनुभाषणा शुद्धि-प्रत्याख्यान करते समय गुरु के सम्मुख हाथ जोड़ कर उपस्थित होना; गुरु के कहे अनुसार पाठों को ठीक-ठीक बोलना; तथा गुरु के 'वोसिरेहि' कहने पर 'पोसिरामि' चगैरह यथा समय कहना, अनुभाषणा शुद्धि है। (५) अनुपालना शुद्धि भयंकर वन, दुर्मिक्ष, बीमारी आदि में __ भी व्रत को उत्साह के साथ ठोक-ठीक पालन करना, अनुपालना शुद्धि है। (६) भाव विशुद्धि-राग, द्वष तथा परिणाम रूप दोषों से नहित पवित्र भावना से प्रत्याख्यान करना तथा पालना, भाव विशुद्धि है। (१) प्रत्याख्यान से अमुक व्यक्ति की पूजा हो रही है अतः मै भी ऐसा ही प्रत्याख्यान करूं-यह राग है। (२) मैं ऐसा प्रत्याख्यान करूँ, जिससे सब लोग मेरे प्रेति ही अनुरक्त हो जायें; फलतः अमुक साधु का फिर आदर ही न होने पाए, यह द्वेष है। (३) ऐहिक तथा पारलौकिक कीर्ति, यश, वैभव प्रादि किसी भी फल की इच्छा से प्रत्याख्यान करना; परिणाम दोष है। यावश्यक नियुक्ति' १ उक्त प्रत्याख्यान शुद्धियों का वर्णन स्थानांग सूत्र के पचम स्थान मे भी है, परन्तु वहाँ ज्ञान शुद्धि का उल्लेख न होकर शेष पाँच का ही उल्लेख है। श्रद्धान शुद्धि मे ही ज्ञान शुद्धि का अन्तर्भाव हो जाता है, क्योंकि श्रद्धान के साथ नियमतः ज्ञान ही होता है, अज्ञान नहीं। नियुक्तिकार ने स्पष्ट प्रतिपत्ति के लिए जान शुद्धि का स्वतंत्र रूपेण उल्लेख कर दिया है। पंचविहे पच्चक्खाणे ५० तं० सद्दहणासुद्ध, विणयसुद्ध, अणु भासणासुन्द्रे, अणु पालणासुद्धे, भावसुद्धे ।' -स्थानांग ५। ६६ । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ आवश्यक-दिग्दर्शन प्रत्याख्यान ग्रहण करने के सम्बन्ध में एक महत्त्वपूर्ण चनुभंगी का । उल्लेख, प्राचार्य हेमचन्द्र, योगशास्त्र की स्वोपज्ञ वृत्ति में करते हैं। यह चतुर्भगी भी साधक को जान लेना आवश्यक है । (१) प्रत्याख्यान ग्रहण करने वाला साधक भी प्रत्याख्यान स्वरूप का ज्ञाता विवेकी तथा विचारशील हो और प्रत्याख्यान देने वाले गुरुदेव भी गीतार्थ तथा प्रत्याख्यान विधि के भलीभाँति जानकार हो । यह प्रथम भंग है, जो पूर्ण शुद्ध माना जाता है। (२) प्रत्याख्यान देने वाले गुरुदेव तो गीतार्थ हों, परन्तु शिष्य विवेकी प्रत्याख्यान स्वरूप का जानकार न हो। यह द्वितीय भग है। यदि गुरुदेव प्रत्याख्यान कराते समय संक्षेप मे अबोध शिष्य को प्रत्याख्यान की जानकारी कराये तो यह भंग शुद्ध हो जाता है, अन्यथा अशुद्ध । विना ज्ञान के प्रत्याख्यान ग्रहण करना, दुष्प्रत्याख्यान माना जाता है। (३) गुरुदेव प्रत्याख्यानविधिके जानकार न हो, किन्तु शिष्य जानकार हो, यह तीसरा भंग है । गीतार्थ गुरुदेव के अभाव में यदि १. प्रवचन सारोद्धार वृत्ति में भी उक्त चतुभंङ्गी का विस्तार के साथ वर्णन किया गया है । वहाँ लिखा है 'जाणगों जाणगसगासे, अजाणगो जाणग-सगासे, जाणगो अजाणगसगासे, अजाणगो अजाणगसगासे । २. भगवती सूत्र में वर्णन है कि जिसको जीव अजीव श्रादि का ज्ञान है, उसका प्रत्याख्यान तो सुप्रत्याख्यान है । परन्तु जिसे जद-नेतन्य का कुछ भी पता नहीं है, जो प्रत्याख्यान कर रहा है उसकी कुछ भी जानकारी नहीं है, उसका प्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान होता है। श्रगानी साधक प्रत्याख्यान की प्रतिज्ञा करता हुआ सत्य नहीं बोलता है, अग्नुि झूठ बोलता है । वह असंयत है, अविरत है, पापकर्मा है, एकान्न बाल है। 'एवं खलु से दुप्पच्चखाई सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहि पयक्वायमिति वदमाणो नो सच भामं भासद, मोसं भासं भामह ", -भग 121 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्याख्यान आवश्यक . १४६ केवल साक्षी के तौर पर अगीतार्थ गुरु से अथवा माता पिता आदि से प्रत्याख्यान ग्रहण किया जाय तो यह भंग शुद्ध माना जाता है । यदि । श्रोध सज्ञा के रूप में गीतार्थ गुरुदेव के विद्यमान रहते भी अगीतार्थ से प्रत्याख्यान ग्रहण किया जाय तो यह भंग भी अशुद्ध ही माना गया है। (४) प्रत्याख्यान लेने वाला भी अगीतार्थं विवेक शून्य हो और प्रत्याख्यान देने वाला गुरु भी शास्त्रज्ञान से शून्य अविवेकी हो तो यह चतुर्थ भंग है । यह पूर्ण रूप से अशुद्ध माना जाता है ! यह प्रत्याख्यान आवश्यक सयम की साधना में दीप्ति पैदा करने वाला है, त्याग वैराग्य को दृढ करने वाला है, अतः प्रत्येक साधक का कर्तव्य है कि प्रत्याख्यान अावश्यक का यथाविधि पालन करे और अपनी आत्मा का कल्याण करे । प्रत्याख्यान पर अधिक विवेचन, इस अभिप्राय से किया गया है.. कि आज के युग में बड़ी भयंकर अन्ध परंपरा चल रही है। जिधर देखिए उधर ही चतुर्थ भंग का राज्य है। न कुछ शिष्य को पता है, और न. गुरुदेव नामधारी जीव को ही। एकमात्र 'बोसिरे के ऊपर अंधाधुन्ध प्रत्याख्यान कराये जा रहे हैं । आशा है, विज्ञ पाठक ऊपर के लेख से प्रत्याख्यान के महत्त्व को समझ सकेंगे। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यकों का क्रम जो अन्तष्टि वाले साधक हैं, उनके जीवन का प्रधान उद्देश्य समभाव अर्थात् सामायिक करना है। उनके प्रत्येक व्यवहार में, रहनसहन में समभाव के दर्शन होते हैं। अन्तर्दृष्टि वाले साधक जब किन्हीं महापुरुषों को समभाव की पूर्णता के शिखर पर पहुँचे हुए जानते हैं, तब वे भक्ति-भाव से गद्गद् होकर उनके वास्तविक गुणों की स्तुति करने लगते हैं। अन्तष्टि वाले साधक अतीव नन, विनयी एवं गुणानुरागी होते हैं । अतएव वे समभाव स्थित साधु पुरुषों को यथा समय बन्दन करना कभी भी नहीं भूलते। श्रन्तहटि वाले साधक इतने अप्रमत्त, जागलक तथा सावधान रहते हैं कि यदि कभी पूर्ववासनावश अथवा कुसंस्कार वश अात्मा समभाव से गिरजाय तो यथाविधेि प्रति क्रमण -यानो बना पश्चात्तार यादि करके पुन' अपनी पूर्व स्थिति को पा लेते हैं और कभी-कभी तो पूर्व स्थिति से आगे भी बढ़ जाते हैं। ___ध्यान ही आध्यात्मिक जीवन की कुझी है। इस लिए अन्न टि साव: बरवार ध्यान कायो-म करते हैं। ध्यान से संत्रम के प्रति एकाग्रता की भावना परिपुष्ट होती है। धान के द्वारा विशेष चित शुद्धि होने पर ग्रामटि तापक प्रात्न Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावश्यकों का क्रम १५१ स्वरूप में विशेषतया लीन हो जाते हैं । अतएव उनके लिए जड़ वस्तुओं के भोग का प्रत्याख्यान करना सहज स्वाभाविक हो जाता है। जबतक सामायिक प्राप्त न हो- अात्मा समभाव में स्थित न हो, तब तक भावपूर्वक चतुर्विंशतिस्तव किया ही नहीं जा सकता। भला जो स्वयं समभाव को प्राप्त नहीं है, वह किस प्रकार रागद्वेषरहित समभाव में स्थित वीतराग पुरुषों के गुणों को जान सकता है और उनकी प्रशंसा कर सकता है ? अतएव सामायिक के बाद चतुर्विशति स्तव है। चतुर्विशति स्तव करने वाला ही गुरुदेवों को यथाविधि वन्दन कर सकता है । क्योंकि जो मनुष्य अपने इष्ट देव वीतराग महापुरुषों के गुणों से प्रसन्न होकर उनकी स्तुति नहीं कर सकता है, वह किस प्रकार वीतराग तीर्थंकरों की वाणी के उपदेशक गुरुदेवों को भक्तिपूर्वक वन्दन कर सकता है ? श्रतएव वन्दन आवश्यक का स्थान चतुर्विशति स्तव के बाद रक्खा गया है। वन्दन के पश्चात् प्रतिक्रमण को रखने का आशय यह है कि जो राग द्वेष रहित समभावों से गुरुदेवों की स्तुति करने वाले हैं, वेही गुरुदेव की साक्षी से अपने पापों की आलोचना कर सकते हैं, प्रतिक्रमण कर सकते हैं । जो गुरुदेव को वन्दन ही नहीं करेगा, वह किस प्रकार गुरुदेव के प्रति बहुमान रक्खेगा और अपना हृदय स्पष्टतया खोल कर कृत पापों की आलोचना करेगा ? प्रतिक्रमण के द्वारा व्रतों के अतिचार रूप छिद्रों को बंद कर देने वाला, पश्चात्ताप के द्वारा पाप कर्मों की निवृत्ति करने वाला साधक ही कायोत्सर्ग की योग्यता प्राप्त कर सकता है । जब तक प्रतिक्रमण के द्वारा पापों की आलोचना करके चित्त शुद्धि न की जाय, तब तक धर्म ध्यान या शुक्ल ध्यान के लिए एकाग्रता संपादन करने का, जो कायोत्सर्ग का उद्देश्य है, वह किसी तरह भी सिद्ध नहीं हो सकता । अालोचना के द्वारा चित्त शुद्धि किए बिना जो कायोत्सर्ग करता है, उसके मुंह से चाहे Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ . श्रावश्यक दिग्दर्शन किसी शब्द विशेष का जप हुआ करे, परन्तु उसके हृदय में उच्च ध्येय का विचार कभी नहीं पाता। जो साधक कायोत्सर्ग के द्वारा विशेष चित्त-शुद्धि, एकाग्रता और श्रात्मबल प्राप्त करता है, वही प्रत्याख्यान का सच्चा अधिकारी है । जिसने एकाग्रता प्राप्त नहीं की है और संकल्प बल भी उत्पन्न नहीं किया, वह यदि प्रत्याख्यान कर भी ले, तो भी उस का ठीक-ठीक निर्वाह नहीं कर सकता। प्रत्याख्यान सब से ऊपर की आवश्यक क्रिया है। उसके लिए विशिष्ट चित्त शुद्धि और विशेष उत्साह की अपेक्षा है, जो कायोत्सर्ग के बिना पैदा नहीं हो सकते। इसी विचारधारा को सामने रखकर कायोत्सर्ग के पश्चात् प्रत्याख्यान का नंबर पड़ता है। उपयुक्त पद्धति से विचार करने पर यह स्पष्टतया जान पड़ता है कि छह आवश्यकों का जो क्रम है, वह विशेष कार्य कारण भाव की शृंखला पर अवस्थित है । चतुर पाठक कितनी भी बुद्धिमानी से उलट फेर करे, परन्तु उसमें वह स्वाभाविकता नहीं रह सकती, जो कि प्रस्तुत क्रम में है। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १६ : आवश्यक से लौकिक जीवन की शुद्धि यह ठीक है कि आवश्यक क्रिया लोकोत्तर साधना है । वह हमारे आध्यात्मिक क्षेत्र की चीज है। उसके द्वारा हम अात्मा से परमात्मा के पद की ओर अग्रसर होते हैं। परन्तु व्यावहारिक दृष्टि से भी श्रावश्यक की कुछ कम महत्ता नहीं है। यह हमारे साधारण मानव- . जीवन में कदम कदम पर सहायक होने वाली साधना है। अन्य प्राणियों के जीवन की अपेक्षा मानव-जीवन की महत्ता और श्रेष्ठता जिन तत्वों पर अवलम्बित है, वे तत्त्व लोक भाषा में इस प्रकार हैं: (१) समभाव अर्थात् शुद्ध श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र का सम्मिश्रण। (२) जीवन को विशुद्ध बनाने के लिए सर्वोत्कृष्ट जीवन वाले महापुरुषों का आदर्श। (३) गुणवानों का बहुमान एवं विनय करना । (४) कर्तव्य की स्मृति तथा कर्तव्य पालन में हो जाने वाली भूलों का निष्कपट भावं से संशोधन करना । (५) ध्यान का अभ्यास करके प्रत्येक वस्तु के स्वरूप को यथार्थरीति से समझने के लिए विवेक शक्ति का विकास करना । (६.) त्यागवृत्ति द्वारा सन्तोष तथा सहन शीलता को बढ़ाना। भोग ही जीवन उद्देश्य नहीं है, त्यागमय ,उदारता ही मानव की महत्ता बढ़ाती है । जितना त्याग उननी ही शान्ति । उपयुक्त तत्वों के आधार पर ही अावश्यक साधना का महल Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावश्यक-दिग्दर्शन रूड़ा है । यदि मनुष्य टीक-ठीक रूप से आवश्यक साधना को अपनाते रहे तो फिर कभी भी उनका नैतिक जीवन पतित नहीं हो सकता, उनकी प्रतिष्ठा भंग नहीं हो सकती, विकट से विकट प्रसंग पर भी वे अपना लक्ष्य नहीं भूल सकते। ___मावि स्वास्थ्य को अाधार शिला मुख्यतया मानसिक प्रसन्नता पर है । यद्यपि दुनिया में अन्य भी अनेक साधन ऐसे हैं, जिनके द्वारा कुछ न कुछ मानसिक प्रसन्नता प्राप्त हो ही जाती है। परन्तु स्थायी मानसिक प्रसन्नता का स्रोत पूर्वोक्त तत्त्वों के आधार पर निर्मित अावश्यक ही है। बाह्य जड पदार्थों पर याश्रित प्रसन्नता क्षणिक होती है । असली स्थायी प्रसन्नता अपने अन्दर ही है, और वह अन्दर की साधना के द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है। अब रहा मनुष्य का कौटुम्बक अर्थात् पारिवारिक सुख । कुटुम्ब को सुखी बनाने के लिए मनुष्य को नीति प्रधान जीवन बनाना आवश्यक है। इसलिए छोटे बड़े सत्र में एक दूसरे के प्रति यथोचित विनय, श्राज्ञा पालन, नियमशीलता, अपनी भूलों को स्वीकार करना एवं अप्रमत्त रहना जरूरी है। ये सब गुण आवश्यक साधना के द्वारा सहज ही में प्राप्त किए जा सकते हैं। सामाजिक दृष्टि से भी आवश्यक क्रिया उपादेय है। समाज को सुव्यवस्थित रखने के लिए विचारशीलता, प्रामाणिकता, दीर्घदर्शिता और गम्भीरता श्रादि गुणों का जीवन में रहना आवश्यक है । अस्तु, क्या शास्त्रीय और क्या व्यावहारिक दोनों दृष्टियों से आवश्यक क्रिया __ का यथोचित अनुठान करना, अतीव लाभप्रद है। ['यावश्यकों का क्रम' और 'श्रावश्यक से लौकिक जीवन की शुद्धि' उक्त दोनों प्रकरणों के लिए लेखक जैन जगत के महान तत्वचिंतक एवं दार्शनिक पं० सुवलालजी का ऋणी है। पंडित जी के 'पंच प्रति क्रमण' नामक ग्रन्थ से ही उक्त निबन्धद्वय का प्रायः शब्दशः विचारशरीर लिया गया है 1.] Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक का आध्यात्मिक फल । सामायिक सामाइएणं भंते । जीवे कि जणयइ ? सामाइएणं सावज्जजोगविरई जणयइ । 'भगवन् ! सामायिक करने से इस आत्मा को क्या लाभ होता है ? 'सामायिक करने से सावध योग- पापकर्म से निवृत्ति होती है। चतुर्विंशतिस्तव चउव्वीसथए भंते जीवे कि जणयइ ? चउव्वीसस्थएण दसणविसोहि जणयइ । 'भगवन् ! चतुर्विशतिस्तव से प्रात्मा को किस फल की प्राप्ति होती है ? चतुर्विशतिस्तव से दर्शन-विशुद्धि होती है । वंदना ' वंदएण भते । जीवे कि जणयइ? . वंदपएणं नीयागोयं कम्म खवेइ, उच्चागोयं निबंधइ, सोहग्गं चण अपडिहयं आणाफलं निवत्तेइ, दाहिणभाव च णं जणयइ । 'भावन् ! वन्दन करने से श्रात्मा को क्या लाभ होता है ?? 'वन्दन करने से यह प्रात्मा नीच गोत्र कर्म का क्षय करता है, Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ श्रावश्यक दिग्दर्शन उच्चगोत्र का बन्ध करता है, सुभग, सुस्वर श्रादि सौभाग्य की प्राप्ति होती है, सब उसकी प्राज्ञा शिरसा स्वीकार करते हैं और वह दाक्षिण्यभाव. कुशलता एवं सर्व प्रियता को प्राप्त करता है।' प्रतिक्रमण पडिक्कमणेणं भंते । जीवे कि जणयइ ? पडिक्कमणेणं वयछिदाइ पिहेइ, पिहियवयछिद पुण जीवे निरुद्धासवे असबल चरित्त अट्रसु पवयणमायासु उवउत्त उपहुत्त (अप्पमत्त) सुप्पणिहिए विहरइ । 'भगवन् ! प्रतिक्रमण करने से प्रात्मा को किस फल की प्राप्तिः होती है ? 'प्रतिक्रमण करने से अहिंसा श्रादि व्रतों के दोषरूप छिद्रों का निरोध होता है और छिद्रों का निरोध होने से आत्मा अाश्रव का निरोध करता है तथा शुद्ध चारित्र का पालन करता है। और इस प्रकार आठ प्रवचनमाता, पाँच समिति एवं तीन गुन्ति रूप संयम में सावधान, अप्रमत्त तथा सुप्रणिहित होकर विचरण करता है ।' कायोत्सर्ग काउसग्गेणं भंते । जीवे किं जणयइ ? काउंसग्गेणं तीयपडुप्पन्नं पायच्छित्तं विसोहेइ, विसुद्धपायच्छिते य ज.वे निव्वुयहियए ओहरियभरुत्व भारवहे पसत्थधम्ममाणोवगए सुह सुहेणं विहरइ। 'भगवन् ! कायोत्सर्ग करने से आत्मा को क्या लाभ होता है." 'कायोत्सर्ग करने से अतीत काल एवं आसन्न भूतकाल के प्रायश्चित्तविशोध्य अतिचारों की शुद्धि होती है और इस प्रकार विशुद्धि-प्राप्त श्रात्मा प्रशस्त धर्मध्यान में रमण, करता हुआ इहलोक एवं परलोक में उसी प्रकार सुखपूर्वक विचरण करता है जिस प्रकार सिर का बोझ उतर जाने से मजदूर सुख का अनुभव करता है।' Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक का आध्यात्मिक फल १५७. प्रत्याख्यान पच्चक्खाणेणं भंते । जीवे कि जणयइ ? पच्चच्खाणण आसवदाराइ निरु भइ, पच्चक्खाणेणं इच्छानिरोहं जणयइ, इच्छानिरोह गए णं जीवे सव्वदव्वेसु विणीयतराहे सीईभूए विहरइ। 'भगवन् ! प्रत्याख्यान करने से आत्मा को किस फल की प्राप्ति होती है ?? 'प्रत्याख्यान करने से हिंसा आदि आश्रव-द्वार बन्द हो जाते हैं एवं इच्छा का निरोध हो जाता है, इच्छा का निरोध होने से समस्त विषयों के प्रति वितृष्ण रहता हुआ साधक शान्त-चित्त होकर विचरण करता है।' [उत्तराध्ययन-सूत्र, २६ वॉ अध्ययन] Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २१ : प्रतिक्रमण : जीवन की एकरूपता किस मनुष्य का जीवन ऊँचा है और किस का नीचा? कौन मनुष्य महात्मा है, महान है और कौन दुरात्मा तथा क्षुद्र ? इस प्रश्न का उत्तर प्रापको भिन्न भिन्न रूप में मिलेगा। जो जैसा उत्तर दाता होगा वह वैसा ही कुछ कहेगा। यह मनुष्य की दुर्बलता है कि वह प्रायः अपनी सीमा में घिरा रह कर ही कुछ सोचता है, बोलता है, और करता है। हॉ तो इस प्रश्न के उत्तर में कुछ लोग आपके सामने जात-पात को महत्त्व देंगे और कहेगे कि ब्राह्मण ऊँचा है, क्षत्रिय ऊँचा है, और शूद्र नी है, चमार नीचा है, भंगी तो उससे भी नीचा है। ये लोग जात-पॉत के जाल में इस प्रकार अवरुद्ध हो चुके हैं कि कोई ऊँची श्रेणी की बात सोच ही नहीं सकते । जब भी कभी प्रसग श्राएगा, एक ही गग अलापेगे-जात-पात का रोना रोयेंगे। कुछ लोग सम्भव है धन को महत्व दे? कैसा ही नीच हो, दुराचारी हो, गुडा हो, जिसके पास दो पैसे हैं, वह इनकी नजरों में देवता है, ईश्वर का अंश है। राजा और सेठ होना ही इनके लिए सबसे महान् होना है, धर्मात्मा होना है-'सर्व गुणाः कांचनमाश्रयन्ते । और यदि कोई धनहीन है, गरीब है तो बस सबसे बड़ी नीचता है। गरीब आदमी कितना ही सदाचारी हो, धर्मात्मा हो, कोई पूछ नहीं । 'मुया दरिद्दा य समा भवन्ति ।' Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . प्रतिक्रमण : जीवन की एक रूपता । १५६ क्यों लम्बी बातें करें, जितने मुँह उतनी बाते हैं ! आप तो मुझ से मालूम करना चाहते होगे कि कहिए, आपका क्या विचार है ? भला, मैं अपना क्या विचार बताऊँ ? मेरे विचार वे ही हैं, जो भारतीय संस्कृति के निर्माता आत्मतत्त्वावलोकी महापुरुषों के विचार हैं । मैं भी आपकी ही तरह भारतीय साहित्य का एक स्नेही विद्यार्थी हूँ, जो पढ़ता हूँ, कहने को मचल उठता हूँ। हॉ, तो भारतीय संस्कृति के एक अमर गायक ने इस प्रश्न-चर्चा के सम्बन्ध में क्या ही अच्छा कहा हैमनस्येकं वचस्येक कर्मण्येकं महात्मनाम् । मनस्यन्यद् वचस्यन्यत् कर्मण्यन्यद् दुरात्मनाम् ।। . प्रस्तुत श्लोक के अनुसार सर्वश्रेष्ठ, महात्मा महान् पुरुष वही है, जो अपने मन में जैसा सोचता है, विचारता है, समझता है, वैसा ही जबान से बोलता है, कहता है। और जो कुछ बोलता है, वही समय पर करता भी है । और इसके विपरीत दुरात्मा, दुष्ट, नीच वह है, जो मन में सोचता कुछ ओर है, बोलता कुछ और है, और करता कुछ और ही है। ____ मन का काम है सोचना विचारना । वाणी का काम है बोलनाकहना । और शेष जीवन का काम है, हस्तपादादि का काम है, जो कुछ सोचा और बोला गया है, उसे कार्य का रूप देना, अमली जामा पहनाना । महान् आत्माश्रो में इन तीनों का सामंजस्य होता है, मेल होता है, और एकता होती है। उनके मन, वाणी और कर्म मे एक ही बात पाई जाती है, जरा भी अन्तर नहीं होता। न उन्हें दुनिया का धन पथ-भ्रष्ट कर सकता है और न मान अपमान ही। लोग खुश होते हैं या नाराज, कुछ परवाह नही । जीवन है या मरण, कुछ चिन्ता नहीं। भले ही दुनिया इधर से उधर हो जाय, फूलों की वर्षा हो या जलते Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० आवश्यक दिग्दर्शन अंगारों की ! किसी भी प्रकार के अातंक, भय, प्रेम, प्रलोभन, हानि, लाभ महान् आत्माओं को डिगा नहीं सकते, बदल नहीं सकते। वे हिमालय के समान अचल, अटल, निर्भय, निर्द्वन्द्व रहते हैं । मृत्यु के मुख में पहुँच कर भी एक ही बात सोचना, बोलना और करना, उनका पवित्र श्रादर्श है। संसार की कोई भी भली या बुरी शक्ति, उन्हें झुका नहीं सकती, उनके जीवन के टुकड़े नहीं कर सकती। ___परन्तु जो लोग दुर्बल है, दुरात्मा हैं, वे कदापि अपने जीवन की एकरूपता को सुरक्षित नहीं रख सकते । उनके मन, वाणी और कर्म तीनो तीन' राह पर चलते हैं। जरा-सा भय, जरा-सा प्रेम, जरा-सी हानि, जरा-सा लाभ भी उनके कदम उखाड़ देता है। वे एक क्षण में कुछ है तो दूसरे क्षण में कुछ। परिस्थितियो के बहाव मे बह जाना, हवा के अनुसार अपनी चाल बदल लेना, उनके लिए साधारण-सी बात है। सांसारिक प्रलोभनों से ऊपर उठकर देखना, उन्हें प्राता ही नहीं । उनका धर्म, पुण्य, ईश्वर, परमात्मा सब कुछ स्वार्थ है, मतलब है। वे जैसे और जितने आदमी मिलेगे, वैसी ही उतनी ही वाणी बोलेगे। और जैसे जितने भी प्रसंग मिलेंगे, वैसे ही उतने ही काम करेंगे। अब रहा, सोचना सो पूछिए नहीं । समुद्र के किनारे खड़े होकर जितनी तरंगें श्राप देख सकते हैं, उतनी ही उनके मन की तरंगे होती हैं। उनकी यात्मा इतनी पतित और दुबल होती है कि आस-पास के वातावरण का-भय, विरोध और प्रलोभन आदि का उन पर क्षण-क्षण मे भिन्न-भिन्न प्रभाव पडता रहता है। अब आपको विचार करना है कि आपको क्या होना है, महात्मा अथवा दुरात्मा ? मै समझता हूँ श्राप दुरात्मा नहीं होना चाहेंगे। दुरात्मा शब्द ही भद्दा और कठोर मालूम होता है। हॉ, आप महात्मा ही बनना चाहेंगे! परन्तु मालूम है, महात्मा बनने के लिए आपको अपने जीवन की एक रूपता करनी होगी। मन, वाणी और कर्म का द्वैत मिटाना होगा । यह भी क्या जीवन कि-आपके हजार मन हों, हजार Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्राण: जीवन की एक रूपना १६१ जवान हो और हजार ही हाथ पैर । आप हर आदमी के सामने अलगअलग मन बदले, जबान बदलें और क्म बदलें। मानव-जीवन के तीन टुकड़े अलग-अलग करके डाल देने में कौन-सी भलाई है ? - विभिन्न रूपों और टुकडो में बॅटा हुश्रा अव्यवस्थित जीवन, जीवन नहीं होता, लाश होता है। मै समझता हूँ, आप किसी भी दशा में जीवन की अखंडता को समाप्त नहीं करना चाहेंगे, सुरदा नहीं होना चाहेंगे। भगवान महावीर जीवन की एकरूपता , पर बहुत अधिक बल देते थे। साधक के सामने सब से पहली पूरी करने योग्य शर्त ही यह थी कि वह हर हालत में जीवन की एक रूपता को बनाए रक्खेगा, उसकी वाणी मन का अनुसरण करेगी तो उसकी चर्या मन-वाणी का अनुधावन ! , जैन सस्कृति ने जीवन मे बहुरूपिया होना, निन्ध माना है। श्रादि. काल से मानव जीवन की एकरसता, एकरूपता और अखण्डता ही जैन सस्कृति का अमर आदर्श रहा है। उसके विचार में जितना कलह, जितना द्वन्द्व, जितना पतन है, वह सब जीवन की विषम गति में ही है। ज्योंही जीवन में समगति आएगी, जीवन का संगीत समताल पर मुखरित. होगा, त्योंही संसार में शान्ति का अखण्ड साम्राज्य स्थापित हो जायगा,. अविश्वास विश्वास में बदलेगा और आपस के वैर विरोध विश्वस्त प्रेम एव सहयोग में परिणत हो जायेंगे ! भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही दृष्टियो से मानव की संत्रस्त श्रात्मा स्वर्गीय दिव्य भावों मे पहुँच जायगी । जीवन की एक रूपता के लिए, देखिए, जैन साहित्य क्या कहता है'? दशवकालिक सूत्र का चतुर्थ अध्ययन हमारे सामने है :___ “से मिक्खु वा भिक्खुणी वा संजय विरय-पडिहयपच्चक्खायपावकम्मे दिया वा, राको वा, एगो वा, परिसागो वा, सुत्ते वा, जागरमाणेवा"""""" . ऊपर के लम्बे पाठ का भावार्थ यह है कि दिन हो या रात अकेला हो या हजारो की सभा में, सोता हो या जागता साधकं अपने Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावश्यक-दिग्दर्शन आपको अहिंसा एवं सत्य की साधना में लगाए रक्खे । उस के जीवन का धर्म दिन में अलग, रात में अलग, अकेले मे अलग, सभा में अलग, सोते में अलग, जागते में अलग, किसी भी दशा में कदापि अलगअलग नहीं हो सकता। सच्चे साधक क्षेत्र, काल और जनता को देख कर राह नहीं बदला करते । वे अकेले में भी उतने ही सच्चे और पवित्र रहेंगे, जितने कि हजारों-लाखों की भीड़ में। कैसा भी एकान्त हो, कैसी भी स्थिति अनुकूल हो, वे जीवन पथ से एक कदम भी इधर-उधर नहीं होते। , जैन-धर्म का प्रतिक्रमण, यही जीवन की एक रूपता का पाठ पढ़ाता है। यह जीवन एक संग्राम है, संघर्ष है । दिन और रात अविराम गति से जीवन की दौड-धूप चल रही है। सावधानी रखते हुए भी मन, वाणी और कर्म में विभिन्नता या जाती है, अस्तव्यस्तता हो जाती है । अस्तु, दिन में होने वाली अनेकता को सायंकाल के प्रतिक्रमण के समय एक रूलता दी जाती है और रात में होने वाली अनेकता को प्रातःकालीन प्रतिक्रमण के समय । साधक गुरुदेव या भगवान् की साक्षी से अपनी भटकी हुई आत्मा को स्थिर करता है, भूलों को ध्यान में लाता है, मन, वाणी और कर्म को पश्चात्ताप की आग मे डाल कर निखारता है, एक-एक दाग को सूक्ष्म निरीक्षण शक्ति से देखता है और धो डालता है। प्रतिक्रमण करने वालो की परम्परा में न जाने कितने ऐसे महान् साधक हो गए हैं, जो सांवत्सरिक आदि के पवित्र प्रसंगों पर हजारों जनता के सामने अपने एक-एक दोषों को स्पष्ट भाव से कहते चले गए हैं, मन के छुपे जहर को उगलते चले, गए हैं । लज्जा और शर्म किसे कहते हैं, कुछ परवाह ही नहीं । धन्य हैं, वे, जो इस प्रकार जीवन की एक रूपता को बनाए रख सकते हैं । मन का कोना-कोना छान डालना, उनके लिए साधना का परम लक्ष्य है । वे अपने जीवन को अपने सामने रखकर उसी प्रकार कठोरता से चीरफाड करते हैं, देखभाल करते हैं, जिस प्रकार एक डाक्टर शव Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण : जीवन की एक रूपता १६३ की परीक्षा करता है। जब तक इतना साहस न हो, मन का विश्लेषण करने की धुन न हो, जीवन का शव के समान निर्दय परीक्षण न हो, तब तक साधक जीवन की एक रूपता को किसी प्रकार भी प्राप्त नहीं कर सकता । जैन संस्कृति का प्रतिक्रमण मन, वाणी और कम के सन्तुलन को कदापि अव्यवस्थित नहीं होने देता। वह पश्चात्ताप के प्रवाह में पिछले सब दोषों को धोकर आगे के लिए कठोर दृढता के सुन्दर और शुद्ध जीवन का एक नया अध्याय खोलता है। प्रतिक्रमण का स्वर एक ही स्वर है, जो हजारों-लाखो वषों से श्रमण संस्कृति की अन्तर्वीणा पर झंकृत होता आया है-छूहूँ पिछला पाप से, नया न बॉधू कोय । __ जैन संस्कृति के अमर साधको ने मृत्यु के मुख में पहुँच कर भी कभी अपनी राह न बदली, जीवन की एकरूपता भंग न की, प्रतिक्रमण द्वारा प्राप्त होने वाली पवित्र प्रेरणा विस्मृत न की। श्रावक अन्नक के सामने देवता खडा है, जहाज को एक ही झटके में समुद्र के अतल गर्भ में फेक देने को तैयार है। कह रहा है-'अपना धर्म छोड दो, अन्यथा परलोक यात्रा के लिए तैयार हो जाओ। छोडूंगा नहीं, समझ लो, म्या उत्तर देना है, हॉ या नर ? 'हॉ में जीवन है तो 'ना' मे मृत्यु । जीवन की एकरूपता का, प्रतिक्रमण की विराट साधना का वह महान् साधक हँसता है, मुसकराता है। उसकी मुसकराहट, वह मुसकराहट है, जिसके सामने मृत्यु की विभीषिका भी हतप्रभ हो जाती है। वह कहता है"अरे धर्म भी क्या कोई छोड़ने की चीज है ? धर्म तो मेरे अणु-अणु में रम गया है, मै छोड़ना चाहूँ तो भी वह नहीं छुट सकता । और यह मृत्यु ! इसका भी कुछ डर है ? तेरी शक्ति, संभव है, शरीर को दल सके। परन्तु अात्मा! अरे वहाँ तो तेरे जैसे लाखो-करोडों देव भी कुछ नही कर सकते । श्रात्मा अजर है, अमर है, अखण्ड है। तू अनन्त जन्म ले तब भी मेरी आत्मा का कुछ निगाड नहीं सकता। बा, मैं Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ आवश्यक दिग्दर्शन तुझ से और तेरी ओर से दी जाने वाली मृत्यु से डरूँ तो क्यो डरूँ ? देवता सन्नाटे में आ गया। श्राज उसे हिमालयाकी चट्टान से टकर राना पड़ रहा था। फिर भी वह मर्कट-विभीपिका दिखाए जा रहा था ! पास के लोगों ने भयाक्रान्त हो कर, अहंन्नक से कहा-“सेठ ! तू झूठमूठ ही जबान से कह दे कि मैने धर्म छोड़ा। देवता चला जायगा । फिर, जो तू चाहे करना । तेरा क्या बिगडता है ?" अर्हन्नक लोगों की बात समझ नही सका! झूठ-मूठ के लिए ही कह दो, क्या बला है, ध्यान में न ला सका। उसने कहा-"जो मेरे मन में नहीं है, उसके लिए मेरी.वाणी-कैसे हाँ भरे ! झूठ-मूठ के लिएकुछ कहना, मैने सीखा ही कहाँ है ? मेरे धर्म की यह भाषा ही नहीं है। जो पानी कुँए में है वही तो डोल में आयगा । कुँए मे और पानी हो, और-डोल में कुछ और ही पानी ले आऊँ, यह कला न मुझे आती है और न मुझे पसन्द ही है। मेरे धर्म ने मुझे यही सिखाया है कि जो सोचो, वही कहो, और जो कहो, वही करो। अब बताओ, मै मन में सोची बात से भिन्न रूप में कुछ कहूँ तो कैसे कहूँ ? प्राण दे सकता हूँ, अपना सर्वस्व लुटा सकता हूँ, परन्तु मैं अपने मन, वाणी और कर्म तीनों के तीन टुकड़े कदापि नहीं कर सकता . . । - यह है प्रतिक्रमण की साधना के अमर साधको की जीवनकला! जिस दिन विश्व की भूली भटकी हुई मानव, जाति प्रतिक्रमण की साधना अपनाएगी, जीवन की एक रूपता के महान् अादर्श को सफल बनाएगी, -उस दिन विश्व में क्या भौतिक -और क्या, आध्यात्मिक सभी प्रकार से नवीन जीवन का प्रकाश होगा, संघर्षों का अन्त होगा और होगा-दिव्य विभूतियों का अजर, अमर, अक्षय साम्राज्य ! Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २२ : प्रतिक्रमण : जीवन की डायरी . मनुष्य अपनी उन्नति चाहता है, प्रगति चाहता है । वह जीवन की दौड मे हर कही बढ जाना चाहता है ! साधना के क्षेत्र में भी वह तप करता है, जप करता है, सयम पालता है, एक से एक कठोर आचरण में उतरता है और चाहता है कि अपने बन्धनों को तोड डालूँ, अात्मा को कर्मों के अधिकार से स्वतन्त्र करा लूँ । परन्तु सफलता क्यों नहीं मिल रही है ? सब कुछ करने पर भी टोटा क्यों है ? लाभ क्यों नहीं ? बात यह है कि किसी भी प्रकार की उन्नति करने से पूर्व, अपनी वर्तमान अवस्था का पूरा ज्ञान प्राप्त करना, आवश्यक है । आप बढ़ते तो हैं परन्तु बढने की धुन में जितना मार्ग तै कर पाया है, उस पर नजर नहीं डालते । वह सेना विजय का क्या अानन्द उठा सकेगी, जो श्रागे ही आगे आक्रनण करती जाती है, किन्तु पीछे की व्यवस्था पर, दुर्बलता पर, भूलों पर कोई ध्यान नहीं देती। वह व्यापारी क्या लाभ उठाएगा, जो अंधाधुन्ध व्यापार तो करता जाता है, परन्तु बही खाते की जाँच-पडताल करके यह नहीं देखता कि क्या लेना-देना है, क्या हानि-लाभ है ? अच्छा व्यापारी, दूसरे दिन की विक्री उसी समय प्रारम्भ करता है, जब कि पहले दिन की आय-व्यय की विध मिला चुकता है ! जिसको अपनी पूँजी का और हानि-लाभ का पता ही नहीं, वह क्या ‘खाक व्यापार करेगा ? और उस अन्धे व्यापार से होगा भी क्या ? अँधी बुढ़िया चक्की पर आटा पीसती है ! इधर पीसती है, और उधर Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ आवश्यक दिग्दर्शन कुत्ता चुपचाप आटा खाता जा रहा है । बुढ़िया को क्या पल्ले पड़ेगा ! केवल श्रम, कष्ट, चिन्ता और शोक ! और कुछ नहीं। जैन संस्कृति का प्रतिक्रमण यही जीवनरूपी बही की जाँच पडताल है । साधक को प्रति दिन प्रातःकाल और सायंकाल यह देखना होता है कि उसने क्या पाया है और क्या खोया है ? अहिंसा, सत्य, और संयम की साधना में वह कहाँ तक आगे बढा है ? कहाँ तक भूला भटका है ? कहाँ क्या रोड़ा अटका है ? दशवकालिक सूत्र की चूलिका मे इसी महान भाव को लेकर कहा गया है कि साधक ! तू प्रतिदिन विचार कर कि मैने क्या कर लिया है और अब आगे क्या करना शेष रहा है ? 'कि मे कडं किं च मे किच्चसेसं?' वैदिक धर्म के महान् उपनिषद् ग्रन्थ ईशावास्य में भी यही कहा है कि 'कृतं स्मर ।' अर्थात् अपने किए को याद कर ! जब साधक अपने किए को याद करता है, अपनी अतीत अवस्था पर दृष्टि डालता है तो उसे पता लग जाता है कि कहाँ क्या शिथिलता है ? कौन सी त्रुटियाँ हैं और वे क्यों हैं ? बालस्य आगे नहीं बढ़ने देता ? या समाज का भय उठने नहीं देता ? या अन्दर की वासनाएँ ही साधनाकल्पवृक्ष की जड़ों को खोखला कर रही हैं ? प्रतिक्रमण कहिए, या अपने किए हुए को याद करना कहिए, साधक जीवन के लिए यह एक अत्यन्त श्रावश्यक क्रिया है ! इसके करने से जीवन का भला बुरा पन स्पष्टतः प्रॉखों के सामने झलक उठता है। दुर्बल से दुर्बल और सबल से सबल साधक को भी तटस्थ भाव से अलग सा. खड़ा होकर अपने जीवन को देखने का, अपनी आत्मा को विश्लेषण करने का अवसर मिलता है । यदि कोई सच्चे मन से चाहे तो उक्त प्रतिक्रमण की क्रिया द्वारा अपनी साधना की भूजो को साफ कर सकता है ओर अपने आपको पथ भ्रष्ट होने से.बचा सकता है। । • कहते हैं, पाचात्य देश के सुप्रसिद्ध विचारक फ्रैंकलिन ने अपने जीवन को डायरी से सुपारा था । वह अपने जीवन की हर घटना को Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण : जीवन की डायरी १६७ डायरी मे लिख छोडता था और फिर उस पर चिन्तन-मनन किया करता था । प्रति सप्ताह जोड़ लगाया करता था कि इस सप्ताह में पहले सप्ताह की अपेक्षा भूले अधिक हुई हैं या कम ? इस प्रकार उसने प्रति सप्ताह भूलों को जॉचने का, उनको दूर करने का और पूर्व की अपेक्षा श्रागे कुछ अधिक उन्नति करने का अभ्यास चालू रक्खा था। इसका यह परिणाम हुआ कि वह अपने युग का एक श्रेष्ठ, सदाचारी एवं पवित्र पुरुष माना गया ! उस की डायरी से हमारा प्रतिक्रमण कही अधिक श्रेष्ठ है ! यह श्राज से नहीं, हजारों-लाखों वर्षों से जीवन की डायरी का मार्ग चला आ रहा है ! एक दो नहीं, हजारों-लाखो साधकों ने प्रतिक्रमणरूप जीवन-डायरी के द्वारा अपने आपको सुधारा है, पशुत्व से ऊँचा उठाया है, वासनानो पर विजय प्राप्त कर अन्त में भगवत्पद प्राप्त किया है! आवश्यकता है, सच्चे मन से जीवन की डायरी के पन्ने लिखने की और उन्हें जॉचने-परखने की। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . : २३ : प्रतिक्रमण : आत्मपरीक्षण श्रात्मा एक यात्री है। आज कल का नहीं, पचास-सौ वर्ष का नहीं; हजार दो हजार और लाख-दश लाख वर्ष का भी नहीं, अनन्त कालका है, अनादिकालका है । आज तक कहीं यह स्थायी रूप में जमकर नहीं बैठा है, घूमता ही रहा है। कहाँ और कत्र होगी यह यात्रा पूरी? अभी कुछ पता नहीं। यह यात्रा क्यों नहीं पूरी हो रही है ? क्यो नही मानव श्रआत्मा अपने लक्ष्य पर पहुँच पा रहा है ? कारण है इसका । बिना कारण के तो कोई भी कार्य कथमपि नहीं हो सकता। आप जानना चाहेंगे, वह कारण क्या है ? उत्तर के लिए एक रूपक है, जरा सावधानी के साथ इस पर अपने आपको परखिए और परखिए अपनी साधना को भी। जैन धर्म का सर्वस्व इस एक रूपक में श्राजाता है, यदि हम अपनी चिन्तन शक्ति का ठीक-ठीक उपयोग कर सके। जब कभी युक्त प्रान्त के देहाती क्षेत्र में विहार करने का प्रसंग पडता है, तब देखा करते हैं कि सेकडों देहाती यात्री इधर से उधर आ जा रहे हैं और उनके कंधों पर पड़े हुए हैं थेले, जिन्हें वे अपनी भाषा में खुरजी कहते हैं । एक दो कपडे, पानी पीने के लिए लोटा डोर, और भी दो चार छोटी मोटी आवश्यक चीजें थले में डाली हुई होती हैं, कुछ आगे की ओर तो कुछ पीछे की ओर । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण : आत्मपरीक्षण १६६. लम्बी बात न करू । रूपक की भूमिका तैयार हो गई है। हमारा श्रात्मा भी इसी प्रकार युक्त प्रान्तका देहाती यात्री है । इसने भी अपने विचारो की खुरजी कधे पर डाल रखी हैं । आत्मा के कंचा और हाथ पैर आदि कहां है, इस. प्रश्न में मत उलझिए । मैं पहले ही बता चुका हूँ यह एक रूपक है। हां, तो उस नुरजी में भरा क्या है ? आगे की ओर उसमें भर रक्खे हैं अपने गुण और दूसरों के दोष । - 'मै कितना गुणवान् हूँ ? कितनी क्षमा, दया और परोपकार की वृत्ति है मुझ में ? मैं तपस्वी हूँ, ज्ञानी हूँ, विचारक हूँ। कौनसा वह गुण है, जो मुझमें नहीं है ? मैंने अमुक की अमुक संकट कालमें सहायता की थी। मैं ही था, जो उस समय सहायता कर सका, सेवा कर सका, अन्यथा वह समाप्त हो गया होता । मातापिता, पति-पत्निी, बाल-बच्चे, नाते-रिश्तेदार, मित्र-परिजन, अडोसी-पडौसी सब मेरे उपकार' के ऋणी हैं । परन्तु ये सब लोग कितने नालायक निकले हैं ? कोई भी तो कृतज्ञता की अनुभूति नही रखता । सव दुष्ट हैं, वेईमान हैं, 'शैतान हैं । मतलबी कुत्ते ! वह देखो; कितना मूठ घोलता है ? कितना अत्याचार करता है ! उसके आस-पास सौ-सौ कोस तक दया की भावना नहीं है । पापाचार के सिवा उसके पास क्या है ? अकेला वही क्या, आज तो सारा संसार नरक की राह पर चल रहा है।' ऐसा ही कुछ अंट-संट भरा रक्खा है आगे की ओर । अतएव हर दम दृष्टि रहती है अपने सद्गुण और दूसरों के दोषों पर, अपनी अच्छाइयों और दूसरों की बुराइयो पर । ___ हॉ, तो पीठ पीछे की ओर क्या डाल रक्खा हैं ? आखिर खुरजी के पीठ पीछे के भाग में भी तो कुछ भर रक्खा होगा ? हाँ, वह भी ठसाठस भरा हुआ है अपने दोषों और दूसरों के गुणों से । अपने असत्य, अत्याचार, पापाचार आदि जो कुछ भी दोष हैं, दुर्गुण हैं, सब को पीठ पीछे के ओर डाल रक्खा है। वहाँ तक ऑखे नहीं पहुँचती। पता ही नहीं चलता कि आखिर मुझ में भी कुछ बुराइयाँ हैं, या सबकी सत्र Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० श्रावश्यक दिग्दर्शन भलाइयाँ ही हैं ? मैं भी तो झूठ बोलता हूँ, दम्भ करता हूँ, चोरी करता हूँ, और आस-पास के दुर्बलों को अत्याचार की चक्की में पीसता हूँ। क्या मैं कभी क्रोध नहीं करता, अभिमान नहीं करता, माया नहीं करता, लोम नहीं करता ? मुझ मे भी पापाचार की भयंकर दुर्गन्ध है । दुर्भाग्य से अपने दोष पीठ की ओर डाल रक्खे हैं, अत: श्रात्मा उन्हें देख ही नहीं पाता, विचार ही नहीं पाता । अपने दोपों के साथ दूसरों के के गुण भी पीछे की ओर ही डाल रक्खे हैं, अतः उनकी ओर भी दृष्टि नहों जाती । यह संसार है, इसमें जहाँ बुरे हैं, वहाँ अच्छे भी तो हैं । जहाँ अपने साथ बुराई करने वाले हैं, वहाँ भलाई करने वाले भी तो हैं। परन्तु यह यात्री दूसरों के गुण, दूसरों की अच्छाइयाँ कहाँ देखता हैं ? दूसरों की दया, उपकार, सेवा और पवित्रता सब कुछ भुला दी गई हैं । याद हैं केवल उनके दोष । धर्मस्थान हो, सार्वजनिक सभा हो, उत्सव हो, अकेला हो, घर हो, बाहर हो, सर्वत्र दूसरों के दोषों का ढिंढोरा पीटता है । जब अवकाश मिलता है तभी विचारता है, याद करता है, कहीं भूल न जाय । बड़ा भयंकर है यात्री। इस ने खुरजी इस ढंग से डाली है कि यह अाप भी बरबाद हो रहा है, शान्ति नहीं पा रहा है। इसके मन, वाणी और कर्म में जहर भरा हुआ है। सब ओर घृणा एवं विद्वेष के विष कण फैंक रहा है। आदरबुद्धि है एक मात्र अपनी ओर, अन्यत्र कहीं नहीं । खुरजी वहन करने की पद्धति इतनी भद्दी है कि उसके कारण अपने को देवता समझता है और दूसरों को राक्षस ! अब बताइए, ऐसे यात्री को स्थायी रूप में विश्राम मिले तो कैसे मिले ? यात्रा पूरी हो तो कैसे हो ? भटकना समाप्त हो तो कैमे हो ? जैनधर्म और जैन संस्कृति ने प्रस्तुत यात्री के कल्याणार्थ अत्यन्त सुन्दर विचार उपस्थित किए हैं। जैन धर्म के अनन्तानन्त तीर्थंकरों ने कहा है-"आत्मन् ! कुछ सोचो, समझो, विचार करो। जिस ढंग से तुम चल रहे हो, जीवन पथ पर आगे बढ़ रहे हो, यह तुम्हारे लिए Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण : प्रात्मपरीक्षण हितकर नहीं है। हमारी बात सुनो, तुम्हारी कल्याण होगा। बात कुछ कठिन नहीं है, बिल्कुल सीधी-सी है। यह मत समझो कि पता नहीं हम से क्या कराना चाहते हैं ? हम तुमसे कुछ भी कठिन और कठोर काम नहीं चाहते। हम चाहते हैं, बस छोटा-सा और सीधा-सा काम! क्या तुम कर सकोगे ? क्यों न कर सकोगे, आखिर तुम चैतन्य हो, आत्मा हो, जड तो नहीं। हॉ, यो करो कि यह खुरजी श्रागे से पीछे की ओर डाल दो और पीछे से आगे की ओर ! तुम समझ गए न? जरा और स्पष्टता से समझलो ! अपने गुण और दूसरों के दोष पीठ पीछे की अोर डाल दो। बस उनकी ओर देखो भी, विचारो भी नहीं। तुम्हारे गुण तुम्हारे अपने लिए विचारने और कहने को नहीं हैं। वे जनता के लिए हैं। यदि उनमें कुछ वास्तविकता है, श्रेष्ठता और पवित्रता है तो संसार अपने आप उनका आदर सत्कार करेगा, कीर्तन अनुकीर्तन करेगा। फूल को महकने से काम है। वह महकने के गौरव की चिन्ता में नहीं घुलता । ज्योंही वह खिलता है, महकता है, पवनदेव दूर-दूर तक उसका यशोगान करता चला जाता है । बिना किसी निमंत्रण के भ्रमर-मडलियाँ अपने-आप चली आती हैं और गुन-गुन की मधुर ध्वनि से सहसा सारे वातावरण को मुखरित कर देती हैं।" -"और दूसरों के दोषों की तुम्हें क्या चिन्ता पडी है ? जो जैसा करेगा, वैसा पायेगा । तुम्हारा काम यदि किसी की कोई भूल देखो तो उसे प्रेमपूर्वक समझा देने का है। यदि वह नहीं मानता है तो तुम्हारी क्या हानि हैं ? तुम व्यर्थ ही उसकी ओर से घृणा और द्वेष का जहर भर कर अपने मन को अपवित्र क्यों करते हो ? इस प्रकार घृणा रखने से कुछ लाभ है ? नहीं, अणुमात्र- भी नहीं। हमाग मार्ग पाप से घृणा करना सिखाता है, पापी से नहीं। पाप कभी अच्छा नहीं हो सकता; परन्तु पापी तो पाप का परित्याग करने के बाद अच्छा हो जाता है, भला हो जाता है। क्या चोर चोरी छोडने के बाद पवित्रता .का सम्मान नहीं पाता? क्या शराबी शराब का त्याग करने के बाद Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक दिग्दर्शन जन समाज में आदर की दृष्टि से नहीं देखा जाता ? बस, अाज जिन से घृणा करते हो, क्या वे अपने दुर्गुणों का. परित्याग करने के बाद कभी अच्छे नहीं हो सकते हैं ? अवश्य हो सकते हैं । अतएव तुम पाप से घृणा करो, पापी से नहीं।" -"एक बात और ध्यान में रक्खो। दूसरो के प्रति उदार बनो, अनुदार नहीं। जब कभी दूसरों के सम्बन्ध में सोचो, उनके गुण और उनकी अच्छाइयाँ ही सोचो । गुणदर्शन की उदार वृत्ति रखने से दूसरों के प्रति सद्भावना का वातावरण तैयार होगा । यह वातावरण अमृत का होगा, विष का नही । सद्भावना बुरों को भी भला बना देती है। क्या संसार में सब दुष्ट ही हैं, सज्जन कोई नहीं। जितना समय तुम दुष्टो की दुष्टता के चिंतन में लगाते हो, उतना समय सज्जनों की सज्जनता के चिंतन में लगानो न ? जो जैसों का चिन्तन करता है, वह वसा बन जाता हैं । दुष्टों का चितन एक दिन अपने को भी दुष्ट बना सकता है । घृणा का वातावरण अन्ततोगत्वा यही परिणाम लाता है। और हॉ, दुष्टों में भी क्या कोई सद्गुण नहीं हैं ? नीच से नीच आदमी में भी कोई छोटी-मोटी अच्छाई हो सकती है। अतएव तुम उसकी बुराई के प्रति दृष्टि न डाल कर अच्छाई की ओर देखो। दो साथी बाग में घूमते हुए गुलाब के पास पहुंच गए। गुलाय के सुन्दर फूल खिले हुए थे और आस-पास के वातावरण में अपनी मादक सुगन्ध बिखेर रहे थे। पहला साथी हर्षोन्मत हो उठा और बोला-अहा कितने सुन्दर एवं सुगन्धित फूल हैं ! दूसरे साथी ने कहा-अरे देखो, कितने नुकीले कांटे हैं ? यह है दृष्टि भेद । बताश्रो, तुम क्या होना चाहते हो ? पहले साथी बनोगे, अथवा दूसरे ? हमारी बात मान सकते हो तो तुम भूल कर भी दूसरे' का मार्ग न पकडना । तुम-गुलाब के फूल देखो, कांटे क्यों देखते हो ? जिनकी दृष्टि - कांटों की ओर होती है, कभी कभी वे-बिना कांटो के भी कांटे देखने लगते हैं।" -"जब कभी, दुर्गुण एवं दोष देखने हों, अपने अन्दर में देखो। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण : आत्मपरीत्रण . १७३ आज तक अपने दोषों को तुमने पीठ पीछे डाल रक्खा था, अब तुम. उन्हें आगे की ओर ऑखो के सामने लाओ। अपने दोपों को देखने वाला सुधरता है, सवरता है। और अपने गुणों को देखने वाला बिगइता है, पतित होता है । स्वदोष-दर्शन अन्तर्विवेक जागृत करता है, फलतः दोषो को दूर कर सद्गुणो की ओर अग्रसर होने के लिए प्रेरणा प्रदान करता है। इसके विपरीत 'खगुणदर्शन'अहंकार को प्रेरणा देता है । फलतः साधक अपने को सहसा उच्च स्थिति पर पहुंचा हुआ समझ लेता है, जिसका परिणाम है प्रगति का रुक जाना, मार्ग का अन्धकाराच्छन्न हो जाना । स्वदोष-दर्शन ही तुम्हे साधक की विनम्र भूमिका पर पहुंचाएगा। भूल यदि भूल के रूप मे समझली जाय तो साधक का साधना क्षेत्र सम्यग् ज्ञान के उज्ज्वल आलोक से आलोकित हो उठता है, अज्ञानान्धकार सहसा छिन्न-भिन्न हो जाता है। हा, तो अपने आपको परखो और जांचो । मन का एक-एक कोना छान' डालो, देखो, कहाँ क्या भरा हुआ है ? छोटी से छोटो भूल को भी बारीकी से पकडो। प्रमेह-दशा को छोटो सो फुन्सी भी कितनी विषाक्त एवं भयकर होती है ? जरा भी उपेक्षा हुई कि बस जीवन से हाथ धो लेने पड़ते हैं । अपनी भूलो के प्रति उपेक्षित रहना, साधक के लिए महापाप है । वह साधक ही क्या, जो अपने मन के कोने-कोने को झाडबुहार कर साफ न करे। जैन धर्म का प्रतिक्रमण इसी सिद्धान्त पर आधारित है । स्वदोषदर्शन ही आगमिक भाषा मे प्रतिक्रमण है। अतएव नित्य प्रतिक्रमण करो, प्रातः सायं हर रोज प्रतिक्रमण करो। अपने दोषों की जो जितनी कठोरता से आलोचना करेगा, वह उतना ही सच्चा प्रतिक्रमण करेगा।" ___ बात कुछ लम्बी कर · गया हूँ। अब जरा समेट लू तो ठीक रहेगा, न ' क्या पर्युषण पर्व आदि पर प्रतिक्रमण करने वाले साथी मेरी बात पर कुछ लक्ष्य देंगे। यह मेरी अपनी बात नहीं है। यह बात है जैन धर्म की और जैन धर्म के अनन्तानन्त तीर्थकरों की । मैं समझता हूँ, आप मे से बहुतो ने वह खुरजी पलट ली होगी, आगे की पीछे और Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ आवश्यक दिग्दर्शन पीछे की आगे कर ली होगी । क्यों कि आप वर्षों से प्रतिक्रमण करते श्रा रहे हैं । और वह प्रतिक्रमण है क्या ? उसी अनादि काल से लादी हुई खुरजी को यथोक्त पद्धति के रूप में उलट लेना । यदि अब तक वह न उलटी गई हो तो अब वह अवश्य उलट लीजिए । यदि अब भी न उलट सके तो फिर कब उलटेगे ? समय आ गया है अब हम सब मिल कर अपनी-अपनी खुरजी उलट लें और सच्चे मन से सच्चा प्रतिक्रमण कर ले। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण : तीसरी औषध श्राचार्य हरिभद्र श्रादि ने प्रतिक्रमण के महत्त्व का वर्णन करते हुए एक कथा का उल्लेख किया है । वह कथा बडी ही सुन्दर, विचारप्रधान तथा प्रतिक्रमण के श्रावश्यकत्व का स्पष्ट प्रतिपादन करने वाली है। पुराने युग में क्षितिप्रतिष्ठ एक नगरी थी और जितशत्रु उसके राजा थे । राजा को ढलती हुई आयु मे पुत्र का लाभ हुआ तो उस घर अत्यन्त स्नेह रखने लगे । सदैव उसके स्वास्थ्य की ही चिन्ता रहने लगी। पुत्र कभी भी बीमार न हो, इस सम्बन्ध में परामर्श करने के लिए अपने देश के तीन सुप्रसिद्ध वैद्य बुलवाए और उनसे कहा कि कोई ऐसी औषध बताइए, जो मेरे पुत्र के, लिए सब प्रकार से लाभ कारी हो। तीनों वैद्यों ने अपनी-अपनी औषधियों के गुण-दोष, इस प्रकार बतलाए। पहले वैद्य ने कहा-मेरी औषधि बडी ही श्रेष्ठ है । यदि पहले से कोई रोग हो तो मेरी औषधि तुरन्त प्रभाव डालेगी और रोग को नष्ट कर देगी। परन्तु यदि कोई रोग न हो, और औषधि खा ली जाय तो फिर अवश्य ही नया रोग पैदा होगा, और वह रोगी मृत्यु से बच न सकेगा। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ . ., आवश्यक दिग्दर्शन राजा ने कहा-चप्स, आप तो कृपा रखिए। अपने हाथों मृत्यु का निमन्त्रण कौन दे ? यह तो शान्ति मे बैठे हुए पेट मसल कर दर्द पैदा करना है। दूसरे वैद्य ने कहा-राजन् ! मेरी औषधि, ठीक रहेगी। यदि कोई रोग होगा तो उसे नष्ट कर देगी, और यदि रोग न, हुआ तो न कुछ लाभ होगा, न कुछ हानि । - राजा ने कहा-आपकी औषधि तो राख मे घी डालने जैसी है। । यह आपकी औषधि भी मुझे नहीं चाहिए। तीसरे वैद्य ने कहा-महाराज ! आप के पुत्र के लिए तो मेरी औषधि ठीक रहेगी। मेरी औषधि आप प्रतिदिन नियमित रूप से खिलाते रहिए । यदि कोई रोग होगा तो वह शीघ्र ही उसे नष्ट कर देगी। और यदि कोई रोग न हुआ तो भविष्य में नया रोग न होने देगी, प्रत्युत शरीर की कान्ति, शक्ति और स्वस्थता में नित्य नई अभिवृद्धि करती रहेगी। राजा ने तीसरे वैद्य की औषधि पसन्द की । राजपुत्र उस औषधि के नियमित सेवन से स्वस्थ, सशक्त और तेजस्वी होता चला गया । उक्त कथानक के द्वारा प्राचार्यों ने यह शिक्षा दी है कि प्रतिक्रमण प्रातः और सायंकाल में प्रति दिन आवश्यक है, दोष लगा हो तब भी और दोष न लगा हो तब भी। यदि कोई संयम-जीवन में हिसा असत्य श्रादि का अतिचार लग जाए तो प्रतिक्रमण करने से वह दोष दूर हो जाएगा और साधक पुनः अपनी पहले जैसी पवित्र अवस्था प्राप्त कर लेगा । दोष एक रोग है, और प्रतिक्रमण उसकी सिद्ध अचूक औषधि है। और यदि कोई दोष न लगा हो, तब भी प्रतिक्रमण करना आवश्यक है.। उस दशा मे दोषों के प्रति घृणा बनी रहेगी, संयम के प्रति 'सावधानता मंद न पड़ेगी, जीवन जागृत रहेगा, स्वीकृत चारित्र निरन्तर शुद्ध, पवित्र, निर्मल होता चला जायगा, फलतः भविष्य में भूल होने की संभावना कम हो जायगी। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण : तीसरी औषध यह कथानक उन लोगो के समाधान के लिए है, जो यह कहते है कि हम जिस दिन कोई पाप ही न करें, तो फिर उस दिन प्रतिक्रमण करने की क्या आवश्यकता है ? व्यर्थ ही प्ररिक्रमण के पाठो को बोलने से क्या लाभ है ? यह समय का अपव्यय नही तो और क्या है ? प्रथम तो जब तक मनुष्य छद्मस्थ है एवं प्रमादी है, तब तक कोई दोष लगे ही नहीं, यह कैसे कहा जा सकता है ? मन,वचन, शरीर का योग परिस्पंदात्मक है और उसमे जहाँ भी कहीं कषाय भाव का मिश्रण हुआ कि फिर दोष लगे विना नहीं रह सकता । दिन और रात मन की गति धर्म की ओर ही अभिमुख रहे, जरा भी इधर-उधर न झुके, यह व्यर्थ का दावा है, जो प्रमादी दशा में किसी प्रकार भी प्रमाणित नहीं हो सकता । परन्तु तुष्यतु दुर्जनन्याय से यदि थोड़ी देर के लिए यह मान भी लिया जाय, तब भी प्रतिक्रमण की साधना तीसरी औषधि के समान है। वह केवल पुराने दोषों को दूर करने के लिए ही नही है, अपितु । भविष्य में दोषों की सम्भावना को कम करने के लिए भी है । प्रतिक्रमण करते समा जो भावविशुद्धि होगी, वह साधक के संयम को शक्तिशाली एवं तेजस्वी बनाएगी | पापाचरण के प्रति घृणा व्यक्त करना ही प्रतिक्रमण का उद्देश्य है । पार किया हो, या न किया हो, साधक के लिए यह प्रश्न मुख्य नहीं है । साधक के लिए तो सब से बड़ा प्रश्न यही हल करना है कि वह पाप के प्रति घृणा व्यक्त कर सकता है या नही ? यदि घृणा व्यक्त कर सकता है तो वह अपने आप में स्वयं एक बड़ी साधना है। पापो को धिक्कारना ही पापों को समाप्त करना है। यह लोक-नियम है कि जिसके प्रति जितनी घृणा होगी, उससे उतनी ही दृढता से अलग रहा जायगा, एक दिन उसका सर्वनाश कर दिया जायगा । प्रति दिन के प्रतिक्रमण में जब हम पापो के प्रति घृणा व्यक्त करेंगे, उन्हे परभाव मानेंगे, उन्हें अपना विरोधी मानेगे, आत्मस्वरूप के घातक समझेगे तो फिर उनका जीवन में कभी भी सत्कार न करेंगे। सदैव उनसे दूर रह कर अपने को बचाए रखने का सतत प्रयत्न करेंगे। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८. 'आवश्यक दिग्दर्शन , . इस प्रकार प्रतिदिन का प्रतिक्रमण केवल भूतकाल के दोषो को ही साफ नहीं करता है, अपितु भविष्य में भी साधक को पापों से बचाता है। । दूसरी बात यह है कि प्रतिदिन प्रतिक्रमण करते रहने से साधक में अप्रमत्त भाव की स्फूर्ति बनी रहती है। प्रतिक्रमण के समय पवित्र भावना का प्रकाश मन के कोने-कोने पर जगमगाने लगता है, और समभाव'का अमृत-प्रवाह अन्तर के मल को बहाकर साफ कर देता देता है । पप हुए हों या न हुए हो, परन्तु प्रतिक्रमण के समय सामायिक, चतुर्विशतिस्तव, वन्दन, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान की साधना तो हो ही जाती है। और यह साधना भी बड़ी महत्त्वपूर्ण है। छह अंश में से पॉच अंश की उपेक्षा किस न्याय पर की जा सकती है ? अतएव अधिक चर्चा में न उतर कर हम आचार्य हरिभद्र एवं जिनदास के शब्दों में यही कहना चाहते हैं कि प्रतिक्रमण तीसरी औषधि है । पूर्व पाप होगे तो वे दूर होगे, और यदि पूर्व पाप न हों, तो भी संयम की साधना के लिए बल मिलेगा, स्फूर्ति मिलेगी। की हुई साधना किसी भी अंश में निष्फल नहीं होती। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण : मिच्छामि दुक्कड़ 'मिच्छामि दुक्कड' जैन संस्कृति की बहुत महत्त्वपूर्ण देन है। जैन धर्म का समस्त साधनासाहित्य मिच्छामि दुक्कडं से भरा हुआ है। साधक अपनी भूल के लिए मिच्छामि दुक्कडं देता है और पाप-मल को धोकर पवित्र बन जाता है । भूल हो जाने के बाद, यदि साधक मिच्छामि दुक्कडं दे लेता है, तो वह आराधक कहा जाता है। और यदि अभिमानवश अपनी भूल नहीं स्वीकार करता एव मिच्छामि दुक्कडं नहीं कहता, तो वह धर्म का विराधक रहता है, आराधक नहीं। ___मन मे किसी के प्रति द्वेष आए तो मिच्छामि दुक्कड कहना चाहिए । लोभ या छल की दुर्भावना पाए तो मिच्छामि दुक्कडं कहना चाहिए । विचार में कालिमा हो, वाणी मे मलिनता हो, आचरण मे कलुषता हो, अर्थात् खाने में, पीने मे, जाने में, पाने मे, उठने मे, बैठने में, सोने में, बोलने में, सोचने में, कहीं भी कोई भूल हो तो जैनधर्म का साधक मिच्छामि दुक्कडं का आश्रय लेता है। उसके यहाँ 'मिच्छामि दुक्कड' कहना, प्रतिक्रमण-रूप' प्रायश्चित्त है । यह प्रायश्चित साधना को पवित्र, निर्मल, स्वच्छ तथा शुद्ध बनाता है। -मिथ्यादुष्कृताभिधानाधभिव्यक्किप्रतिक्रिया, प्रतिक्रमणम्' -रांजवार्तिक । २२।३। - - Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० श्रावश्यक-दिग्दर्शन पाठक विचार करते होंगे कि क्या मिच्छामि दुक्कड' कहने से ही सब पाप धुल जाते हैं ? यह क्या कोई छूमंतर है ? जो मिच्छामि दुक्कड़ कहा और सब पार हवा हो गए | समाधान है कि केवल कथन मात्र से ही पाप दूर हो जाते हों, यह बात नहीं है। शब्द में स्वयं कोई पवित्र श्रथवा अपवित्र करने की शक्ति नहीं है। वह जड़ है, क्या किसी को पवित्र बनाएगा। परन्तु शब्द के पीछे रहा हुअा मनका भाव ही सबसे बडी शक्ति है। वाणी को मन का प्रतीक माना गया है । अतः 'मिच्छामि दुक्कड' महावाक्य के पीछे जो आन्तरिक पश्चात्ताप का भाव रहा हुआ होता है, उसी में शक्ति है और वह बहुत बड़ी शक्ति है। पश्चात्ताप का दिव्य निर्भर आत्मा पर लगे पाप मल को बहाकर साफ कर देता है। यदि साधक परंपरागत निष्प्राण रूढि के फेर में न पड़कर, सच्चे मन से पापाचार के प्रति घृणा व्यक्त करे, पश्चात्ताप करे, तो वह पाप कालिमा को सहज ही धोकर साफ कर सकता है। आखिर आराध के लिए दिया जाने वाला तपश्चरण या अन्य किसी तरह का दण्ड भी तो मूल में पश्चात्ताप ही है । यदि मन में पश्चात्ताप न हो, और कठोर से कठोर प्रायश्चित्त बाहर में ग्रहण कर भी लिया जाय, तो क्या प्रात्मशुद्धि हो सकती है ! हर्गिज नहीं । दण्ड का उद्देश्य देह दण्ड नहीं है, अपितु मनका दण्ड है। और मन का दण्ड क्या है, अपनी भूल स्वीकार कर लेना, पश्चात्ताप कर लेना। यही कारण है कि जैन या अन्य भारतीय साहित्य में साधना के क्षेत्र में पाप के लिए प्रायश्चित्त का विधान किया है, दण्ड का नहीं। दण्ड प्रायः बाहर अटक कर रह जाता है, अन्तरंग में प्रवेश नहीं कर पाता, पश्चात्तार का झरना नहीं बहाता । दण्ड में दण्डदाता की ओर से बलात्कार की प्रधानता होती है। और प्रायश्चित्त साधक की स्वयं अपनी तैयारी है। वह अन्तहदय में अपने स्वयं के पाप को शोधन करने के लिए उल्लास है। अतः वह अपराधी को पश्चात्ताप के द्वारा भावुक बनाता है, विनीत बनाता है, सरल एवं निष्कपट बनाता है, दण्ड पाने वाले के समान धृष्ट Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८१ अतिक्रमण : मिच्छामि दुक्कडं नहीं। हॉ, तो मिच्छामि दुक्कडं भी एक प्रायश्चित्त है । इसके मूल में पश्चात्ताप की भावना है, यदि वह सच्चे मनसे हो तो ?' __ ऊपर के लेखन मे बार-बार सच्चे मन और पश्चात्ताप की भावना का उल्लेख किया गया है। उसका कारण यह है कि अाजकल जनों का 'मिच्छामि 'दुक्कड' काफी बदनाम हो चुका है। आज के साधकों की साधना के लिए, आत्म-शुद्धि के लिए तैयारी तो होती नहीं है। प्रतिक्रमण का मूल श्राशय समझा तो जाता नहीं है। अथवा समझकर भी नैतिक दुर्बलता के कारण उस विकाश तक नहीं पहुंचा जाता है। अतः वह लोक रूटि के कारण प्रतिक्रमण तो करता है, मिच्छामि दुक्कडं भी देता है, परन्तु फिर उसी पाप को करता रहता है, उससे निवृत्त नहीं होता है। पाप करना, और मिच्छामि दुक्कडं देना, फिर पाप करना और फिर मिछामि दुक्कडं देना, यह सिलसिला जीवन के अन्त तक चलता रहता है, परन्तु इससे आत्म शुद्धि के पथपर जरा भी प्रगति नहीं हो पाती। जैन-धर्म इस प्रकार की बाह्य-साधना को द्र-साधना कहता है। वह केवल वाणी से 'मिच्छामि दुक्कड' कहना, और फिर उस पाप को करते रहना, ठीक नहीं समझता है । मन के मैल को साफ किए बिना और पुनः उस पाप को नहीं करने का दृढ़ निश्चय किए बिना, खाली ऊपर-ऊपर से 'मिच्छामि दुक्कडं' कहने का कुछ अर्थ नहीं है। एक श्रोर दूसरों का दिल दुखाने का काम करते रहें, हिंसा करते रहें, झूठ बोलते रहें, अन्याय अत्याचार करते रहें, और दूसरी ओर मिच्छामि दुक्कडं की रट लगाते रहें, तो यह साधना का मजाक नहीं तो और क्या है ? यह माया है, साधना नहीं। इस प्रकार की 'मिच्छामि दुक्कड' पर जैन-धर्म ने कठोर आलोचना की है। इसके लिए आवश्यक चूर्णि में प्राचार्य जिनदास कुम्हार के पात्र फोड़ने वाले शिष्य का उदाहरण देते हैं। - एक बार एक श्राचार्य किसी गाँव में पहुंचे और कुम्हार के पडोस में ठहरे। श्राचार्य का एक छोटा शिष्य बड़ी चंचल प्रकृति का खिलाड़ी Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८१ श्रावश्यक दिग्दर्शन. .. व्यक्ति था। कुम्हार ज्योंही चाक पर से पात्र उतार कर भूमि पर रक्खे, और वह शिष्य कंकर का निसाना मार कर उसे तोड दे। कुम्हार ने शिकायत की तो मिच्छामि दुक्कडं कहने लगा। परन्तु वह रुका नहीं, बार-बार मिच्छामि डुक्कडं देता रहा, और पात्र तोड़ता रहा । आखिर कुम्हार को प्रावेश आ गया, उसने कंकर उठाकर क्षुल्लक के कान पर रख ज्योंही जोर से दबाया तो वह पीडा से तिलमिला उठा। उसने कहा, अरे यह क्या कर रहा है ? कुम्हार ने कहा-'मिच्छामि दुक्कडं । दबाता जाता और मिच्छामि दुक्कडं कहता जाता, अन्ततः तुल्लक को अपने मिच्छामि दुक्कड की भूल स्वीकार करनी पड़ी। जब तक पश्चाताप न हो, तब तक केवल वाणी की 'मिच्छामि दुक्कड' कुम्हार की मिच्छामि दुक्कडं है। यह मिच्छामि दुक्कडं श्रात्मा को शुद्ध तो क्या, प्रत्युत और अधिक अशुद्ध बना देती है। यह मार्ग पाप के प्रतिकार का नहीं, अपितु पाप के प्रचार का है। देखिए, प्राचार्य भद्रवाहु, इस सम्बन्ध में क्या कहते हैं:- . .जइ . य पडिक्कमियव्वं, . . - अवश्स काऊण- पावयं कम्म । - तं चेव न कायव्वं, .. तो होइ पए पडिक्कंती ॥६५॥ . -पाप कर्म करने के पश्चात् जब प्रतिक्रमण अवश्य करणीय है, ' तब सरल मार्ग तो यह है कि वह पाप कर्म किया ही न जाय । प्राध्यात्मिक दृष्टिं से वस्तुतः यही सच्चा प्रतिक्रमण है। -- . . . . जे दक्कडे तिमिच्छा. - - - --..: तें भुजों कारणं अपूरतो। ... तिविहेण . पंडिक्कतो, .. • तस्स खतु दुक्कडं मिच्छा ॥६८४i -जो साधक त्रिविध योग से प्रतिक्रमण करता है, जिस पाप के लिए Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * दुक्कड़ तिचात् निष्फल होता की नहीं करता प्रतिक्रमण : मिच्छामि दुक्कडं ८३ मिच्छामि टुक्कड दे देता है फिर भविष्य में उस पाप को नहीं करता है, वस्तुतः उसी का दुष्कृत मिथ्या अर्थात् निष्फल होता है। - जं दुक्कई ति मिच्छा, __तं चेव निसेवए पुणो पावं । पच्चक्ख • मुस्सावाई, मायानियडी - पसंगो य॥६५शा -साधक एक बार मिच्छामि दुक्कड देकर भी यदि फिर उस पापाचरण का सेवन करता है तो वह प्रत्यक्षतः झूठ बोलता है, दंभ का जाल बुनता है." . प्राचार्य धर्मदास तो उपदेश माला में इस प्रकार के धर्मवजी एवं बकवृत्ति लोगों के लिए बड़ी ही कठोर भत्सना करता है, उन्हें मिथ्यादृष्टि कहता है। जो जहवाय न कुणइ, मिच्छादिट्टी तउ हु को अन्नो २.. बुड य मिच्छत्त, परस संकं जणेमायो ।।५०६॥ जो व्यक्ति जैसा बोलता है, यदि भविष्य में वसा करता नही है तो उससे बढ़करें मिथ्या दृष्टि और कौन होगा? वह दूसरे भद्र लोगों के १- जैनजगत के महान् दार्शनिक वाचक यशोविजय भी अपनी गुर्जर भाषा मे इसी भावना को व्यक्त कर रहे हैं 'मूल पदे पडिकमण भारयू, पापतणु अणकरवू । । . . . मिच्छा दुक्कड़ देई पातक, ते भावे जे सेवेरे। . आवश्यक साखे ते परगट, . माया. मोसो सेवेरे।। . . Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ श्रावश्यक दिग्दर्शन मन में शंका पैदा करता है और इस रूप में मिथ्यात्व की वृद्धि ही प्राचार्य श्री भद्रवाहु स्वामी, आवश्यक नियुक्ति में, 'मिच्छा मि दुक्कड़ के एकेक अक्षर का अर्थ ही इस रूप में करते हैं कि यदि साधक मिच्छामि दुक्कड़ कहता हुआ उस पर विचार कर ले तो किर पापाचरण कर ही नहीं। 'मि'त्ति मिउमद्दवत्ते, छत्ति य दोसाण छायणे होइ। 'मि' त्ति य मेराए ठिओ, 'दु' त्ति दुगुछामि अप्पाणं ॥६८६।। 'क' त्ति कर्ड में पावं, 'त्तिय डेवेमित उपसमेणं । एसो मिच्छा दुक्कड़, पयक्खरत्थो समासेणं ॥६८७|| -'मि' का अर्थ मृदुता और मार्दवता है। काय नम्रता को मृदुता कहते हैं और भावनम्रता को मार्दवता । 'छका अर्थ असंयमयोगरूप दोषों को छादन करना है, अर्थात् रोक देना है। 'मि' का अर्थ मर्यादा है, अर्थार मैं चारित्ररूर मर्यादा में स्थित हूँ। 'दु' का अर्थ निन्दा है । 'मैं दुष्कृत करने वाले भूतपूर्व श्रात्मपर्याय की निन्दा करता हूँ।' 'क' का भाव पापकर्म की स्वीकृति है, अर्थात् मैंने पार किया है, इस रूप में अपने पारी को स्वीकार करना । 'ड' का अर्थ उपशम भाव के द्वारा पाप कर्म का प्रतिक्रमण करना है, पापक्षेत्र को लाँघ जाना है। यह संक्षा में मिच्छामि दुकडं पद का अक्षरार्थ है। ___हाँ तो संयम यात्रा के पथ पर प्रगति करते हुए यदि कहीं साधक से भून हो जाय, तो सर्वप्रथम उसके लिए अच्छे मन से पश्चात्तार होना चाहिए, फिर से उस भून की श्रावृत्ति न होने देने के लिए सतत सक्रिन प्रयन भी चालू हो जाना चाहिए । मन का साफ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण : मिच्छामि दुक्कड होना अत्यन्त आश्यक है। दिल में घुडी रखकर कुछ भी सफलता • नहीं मिल सनी । इस प्रवार पश्चात्ताप के उज्ज्वल प्रकाश में यदि ___ मन, वाणी और कर्म से मिच्छामि दुक्कडं दिया जाय तो वह कदापि निष्फल नहीं सकता । वह पाप की कालिमा को धोएगा, और अवश्य भोएगा। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुद्रा साधक के लिए आवश्यक आदि क्रिया करते समय जहाँ अन्नरंग में मन की एकाग्रता अपेक्षित है, वहाँ बाहर में शरीर की एकाग्रता भी कम महत्त्व की नहीं है । वह द्रव्य अवश्य है, परन्तु भाव के लिए अत्यन्त अपेक्षित है। सैनिक में जहाँ वीरता का गुण अपेक्षित है, वहाँ बाहर का व्यायाम और कवायद क्या कुछ कम मूल्य रखते हैं ? नहीं, वे शरीर को सुदृढ, स्फूर्तिमान, और विरोधी अाक्रमण से बचने के योग्य चनाते हैं । यही कारण है कि भारतीय धर्मों में आध्यात्मिक क्षेत्र में भी प्रासन और मुद्रा आदि का बहुत बड़ा महत्त्व माना गया है। शरीर के अव्यवस्थित रूप में रहने वाले अवयवों को अमुक विशेष प्राकृति में व्यवस्थित करना, सामान्य रूप से मुद्रा कहा जाता है । मुद्रा, साधक में नवचेतना पैदा करती है और भावना का उल्लास जगा देती है । ज्यों ही किसी विशेष मुद्रा के करने का प्रसग पाता है, त्यों ही साधक जागृत हो जाता है और उसका भूला भटका मन सहसा केन्द्र मे आ खडा होता है । मन्द और क्षीण हुई धर्म चेतना, मुद्रा का प्रसंग पा कर पुनः उद्दीन हो उठती है; फलतः साधक नई स्फूर्ति के साथ साधना के पथपर अग्रसर हो जाता है।' १-मुद्रा के लिए प्राचार्य नेमिचन्द्र प्रवचन सारो द्वार में कहते हैं कि मुद्रासे अशुभ मन, वचन, काय योग का निरोध होता है और उनकी शुभ में प्रवृत्ति होती है। 'कायमणोक्यणनिरोहणं य तिविहं च पणिहाणं ।। १-७१ । 'कायमनोवचनानामकुशजरूपाणां निरोधननियत्रणं, शुभानां च तेषां करणमिति । - Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " मुद्रा:: १८७ जैन साहित्य में इस प्रकार की तीन मुद्राएँ मानी गई हैं- (१) योग मुद्रा, (२) जिन मुद्रा, और (३) मुक्ताशुक्ति मुद्रा। एक हाथ की अंगुलियों को दूसरे हाथ की अंगुलियों में डाल कर कमल-डोडा के श्राकार से हाथ जोड़ना, दोनों हाथों के अगूठों को मुख के आगे नासिका पर लगाना, और दोनों हाथों की कुहनियों को पेट पर रखना, योग मुद्रा है । यह मुद्रा घुटने टेक कर, अथवा गोदुह आसन से उकडू बैठकर की जाती है । -- __-जिनेश्वर देव जब कायोत्सर्ग करते हैं, तब दोनों चरणों के बीच - श्रगे के भाग में चार अंगुल जितना और पीछे के भाग में- एडी की ओर चार अंगुल से कुछ कम साढे तीन अंगुल जितना अंतर रखते हैं। और उक्त दशा में-दाहिना हाथ दाहिनी जंघा के पास एवं वायाँ हाथ बाई जंघा के पास लटकता रहता है। दोनों हाथों की हथेलियाँ आगे की ओर चित खुली हुई होती हैं। यह जिनमुद्रा है। यह-मुद्रा दण्डायमान सीधे खडे होकर की जाती है। तीसरी मुक्ताशुक्ति मुद्रा का यह प्रकार है कि कमल-डोडा के समान दोनों हाथों को बीच में पोल रख कर जोड़ना और मस्तक पर लगाना, अथवा मस्तक से कुछ दूर रखना । मुक्ता का अर्थ है मोती, और शुक्ति का अर्थ है सीर । अस्तु मुक्ताशुक्ति के समान मिली हुई मुद्रा, मुक्ताशुक्ति मुद्रा कहलाती है। यह मुद्रा भी घुटनों को भूमि पर टेक कर, अथवा गो-दुह श्रासन से उकडू बैठकर की जाती है। अन्नोऽन्न तर अंगुलि, कोसागारहिं दोहि हत्थेहि । पेट्टोवरि कुपर-संठिएहि, तह जोग-मुद्दत्ति ॥७॥ चत्तारि अगुलाई, पुरो जत्थ पच्छिमओ। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ श्रावश्यक दिग्दर्शन पापाणं उस्सगो, एसा पुण होइ जिणमुद्दा ।।७।। मुत्तासुत्ती मुद्दा, समा जहिं दोवि गन्भिया हत्था। ते पुण निलाद - देसे, लग्गा भएणे अलग्गत्ति ॥७६|| -प्रवचन सारोद्धार । १ द्वार। चतुर्विशतिस्तव आदि स्तुति पाठ प्रायः योग मुद्रा से किए जाते हैं । वन्दन करने की क्रिया एवं कायोत्सर्ग में जिन मुद्रा का प्रयोग होता है । वन्दन के लिए मुक्ताशुक्ति मुद्रा का भी विधान है। इस सम्बन्ध में मैं इस समय अधिक लिखने की स्थिति में नहीं हूँ। विद्वानों से विचार विमर्श करने के बाद ही इस दिशा में कुछ अधिक लिखना उपयुक्त वेगा। - Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण पर जन-चिन्तन पापाचरण एक शल्य है, जो उसे बाहर न निकाल कर मन में ही छिपाए रहता है, वह अन्दर अन्दर पीड़ित रहता है, बर्बाद होता है। प्रतिक्रमण संयम के छेदों को बन्द करने के लिए है। प्रतिक्रमण से पाश्रव रुकता है, संयम में सावधानता होती है, फलतः चारित्र की विशुद्धि होती है। सरलहृदय निष्कपट साधक ही शुद्ध हो मकता है। शुद्ध मनुष्य के अन्तःकरण में ही धर्म ठहर सकता है। शुद्ध हृदय साधक, घी से सिंचित अमि की तरह शुद्ध होकर परम निर्वाण अर्थात् उकष्ट शान्ति को प्राप्त होता है। श्रात्म-दोषों की आलोचना करने से पश्चात्ताप की भट्टी सुलगती है। और उस पश्चात्ताप की भट्टी में सर दोषों को जलाने के बाद साधक परम वीतराग भाव को प्राप्त करता है। -भगवान महावीर तू अपने किए पापों से अपने को ही मलिन बना रहा है। पाप छोड दे तो स्वयं ही शुद्ध हो जायगा। शुद्धि और अशुद्धि अपने ही हैं । अन्य मनुष्य अन्य मनुष्य को शुद्ध नहीं कर सकता। x Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० श्रावश्यक-दिग्दर्शन यदि शल्य से मनुष्य बिंधा हुआ है तो वह भाग-दौड मचायगा ही । ' र यदि वह अन्तर मे विधा हुश्रा वाण खींच कर निकाल लिया जाय, तो वह शान्ति से चुन बैठ जायगा । + - जो मनुष्य समस्त पापों को हृदय से निकाल बाहर कर देता है, जो विमल, समाहित, और स्थितात्मा होकर संसार-सागर को लॉघ जाता है, उसे ब्राह्मण कहते हैं। --तथागत बुद्ध ___ जो मनुष्य जितना ही अन्तर्मुख होगा, और जितनी ही उसकी वृत्ति सात्विक व निर्मल होगी, उतनी ही दूर की वह सोच सकेगा और उतने ही दूर के परिणाम वह देख सकेगा। कर्म दूषित हो गया हो तो ज्यादा घबराने की बात नहीं, वृत्ति दूषित न होने दो। वृत्ति को दूषित होने से बचाने का उपाय है मन को भी दोषों से बचाने का प्रयत्न करना । पाप को पेट में मत रख, उगल दे। जहर तो पेट में रख लेने से शरीर को ही मारता है, किन्तु पाप तो सारे सत्य को ही मिटा देता है। xxx . जहाँ गुप्तता है वहाँ कोई बुराई अवश्य है। बुराई को छिपाना, बुराई को बढाना है। विकार, चोरों की तरह, गाफिल मनुष्य के घर में ही सेंध लगाते हैं । जागरूकता उनके हमले से बचाव की सबसे बड़ी ढाल है। जिस प्रकार बहाज का कप्तान अपनी नोट बुक में यात्रा तथा Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण पर जन-चिन्तन १६१ जहाज सम्बन्धी बातें लिखता है, उसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति को निष्पक्ष भाव से प्रतिदिन अपने दैनिक कार्यक्रम के बारे में लिखना चाहिए और अगले दिन उसे सोचना चाहिए कि उसके काम में जो त्रुटियाँ और दोष रह गए हैं, उनके दूर करने में वह कहाँ तक सफल हुआ? + पाप विनारा की वंशी है, जिसके कॉटे का ज्ञान मछली को लीलते समय नहीं, बल्कि मरते समय होता है। पतन में परिणाम का अज्ञान होता है। भावावेश मे जो कुछ होता है, वह मूछित दशा में होता है, और मूर्छा उतर जाने पर हुआ पश्रात्ताप उसे शुद्ध करके आगे बढ़ाता है। यदि तूने अपनी कोई गलती महसूस की है तो तू अपनी तरफ से उसे फौरन पोछ डाल । दूसरे की गलती या अन्याय को उसके इन्साफ पर छोड़ दे। गुप्तता का दूसरा पहलू है असंयम । जितना ही अधिक संयम, . उतना ही अधिक खुली पुस्तक का-सा जीवन । जब तुम अपने को पढ़ने लगोगे तो देखोगे कि कैसे-कैसे विस्मयजनक पृ व दृश्य सामने आते हैं । __ अपने को पहचानने के लिए मनुष्य को अपने से बाहर निकल कर तटस्थ बनकर अपने को देखना है। . . ___ यह कितनी ग़लत बात है कि हम मैले रहें रहने की सलाह दे! और दूसरों को साफ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ श्रावश्यक-दिग्दर्शा मनुष्य जीवन और पशुजीवन में फ़रक क्या है ? इसका सम्पूर्ण विचार करने से हमारी काफी मुसीबतें हल होती हैं। मनुष्य जब अपनी हद से बाहर जाता है, हद से बाहर काम करता है, हद से बाहर विचार भी करता है, तब उसे व्याधि हो सकती है, क्रोध आ सकता है। हमारी गन्दगी हमने जब बाहर नहीं निकाली है, तब तक प्रभु की प्रार्थना करने का हमें कुछ हक है क्या ? गुनाह छिपा नहीं रहता । वह मनुष्य के मुख पर लिखा रहता है। उस शास्त्र को हम पूरे तौर से नहीं जानते, लेकिन बात साफ है। ग़लती, तब ग़लती मिटती है जब उसकी दुरस्ती कर लेते हैं। ग़लती जब देवा देते हैं, तब वह फोड़े की तरह फूटती है और भयंकर स्वरूप ले लेती है। प्रात्मा को पहचानने से, उसका ध्यान करने से और उसके गुणों का अनुसरण करने से मनुष्य ऊँचे जाता है। उलटा करने से नीचे जाता है। अन्धा वह नहीं जिसकी श्रॉख फूट गई है। अन्धा वह है जो अपने दोप ढॉकता है! __क्यों नाहक दूसरों के ऐब ढूँढने चलते हो ? माना कि सभी पापी है, सभी अन्धे हैं, सभी गुनहगार हैं। लेकिन, तुम दूसरों को क्या Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण पर जन चिन्तन १६३ उपदेश दे रहे हो ? जरा अपने भीतर तो झाँक कर देखो कि वहाँ सुधार की कोई गुञ्जाइश है या नहीं ? अगर है तो फिर तुम्हारे सामने काफी जरूरी काम मौजूद है। सबसे पहले इमी पर ध्यान दो। सबसे पहले अपना सुधार कसे । और जब तक तुम खुद मैले हो, तब तक तुम्हें दूसरों को उपदेश देने का क्या अधिकार है ! पर छिद्रान्वेषण की अपेक्षा यात्म-निरीक्षण मानवत्ता है किसी के अपराध को भूलना और क्षमरे कर देनर मानवता है। बदला लेना नहीं, देना मानवता है। -महात्मा गांधी प्रत्येक व्यक्ति को बुराई से संघर्ष करने के लिए अपनी शक्ति पर विश्वास होना चाहिए। मुझमे और कितने ही दुगुण हो सकते हैं, परन्तु एक दुगुण नही है कि 'छिप कर परदे के पीछे कुछ करना। हमे अपने प्रारको लोगों में वैसा ही जाहिर करना चाहिए, जैसे कि हम वास्तव में हो । कोरी नुमाइश करना ठीक नही है । -जवाहरलाल नेहरू अपनी मर्यादा को ठीक कायम, रखने से ही हम अपने अन्दर के भगवान का साक्षात्कार कर सकते हैं। -पट्टाभिसीतारमैय्या हमारे लिए धर्म हमेशा से ही कहर मतों का पिटारा नहीं, बल्कि मात्मा की खोज का शास्त्र रहा है । লীলা Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक दिग्दर्शनधर्म जीवन की साधना करते हुए अपने आपसे पूछो कि कही ' तुमने ऐसा काम तो नही किया है, जो घृणा का हो, द्वेष का हो, अथवा शत्रुता की भावना को बढ़ाने वाला हो। इन प्रश्नों का सन्तोषजनक उत्तर मिले तो समझना चाहिये कि प्रार्थना का, धर्माचरण का श्राप पर कोई असर जरूर हो रहा है, अथवा हुआ है। -सन्त तुडको जी मन का सभी मैल धुल जाने पर ईश्वर का दर्शन होता है। मन मानो मिट्टी से लिपटी हुई एक लोहे की सुई है, ईश्वर है चुम्बक । मिट्टी के रहते चुम्बक के साथ संयोग नहीं होता। रोते रोते (शुद्ध हृदय से पश्चात्ताप करते ) सुई की मिट्टी धुल जाती है। सुई की मिट्टी यानी काम, क्रोध, लोभ, पाप बुद्धि, विषयबुद्धि आदि । मिट्टी के धुल जाने पर सुई को चुम्बक खींच लेगा, अर्थात् ईश्वर दर्शन होगा। घर में यदि दीपक न जले तो वह दारिद्रय का चिह्न है। हृदय में शान का दीपक जलाना चाहिए । हृदय मे ज्ञान का दीपक जलाकर उसको देखो। -~-श्रीरामकृष्ण परमहंस मेरी सनझ में, हम लोगो को ऐसा होना चाहिए कि यदि सब कोई वैसे हो तो यह पृथ्वी स्वर्ग बन जाय । --ईश्वरचन्द्र विद्यासागर जिनका हृदय शुद्ध है वे धन्य हैं, क्योंकि उन्हें परमात्मा की प्राप्ति अवश्य ही होगी। अतएव यदि तुम शुद्ध नहीं हो तो फिर चाहे दुनिया का सारा विज्ञान तुम्हें अवगत हो, परन्तु फिर भी उसका कुछ उपयोग न होगा! - अगर शुद्ध हृदय और बुद्धि में झगड़ा पड़े तो तुम अपने शुद्ध Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमणं पर जन चिन्तन . २६५ हृदय ही की सुनो । .........."शुद्ध हृदय ही सत्य के प्रतिबिम्ब के , लिए सर्वोत्तम दर्पण है। . ' हृदय को सर्वदा अधिकाधिक पवित्र बनायो, क्योकि भगवान् के कार्य हृदय द्वारा ही होते हैं । ......"अगर तुम्हारा हृदय काफी शुद्ध होगा. तो दुनिया के सारे सत्य उसमे आविर्भूत हो जायेंगे । हम दुर्बल है-इस कारण गलती करते हैं और हम अज्ञानी हैं, ' इसलिए दुर्बल हैं। हमें अज्ञानी कौन बनाता है ? हम स्वयं ही। हम अपनी ऑखों को अपने हाथों से ढंक लेते हैं और अँधेरा है कहकर रोते हैं। -स्वामी विवेकानन्द धर्म का सार तत्त्व है, अपने ऊपर से परदे का हटाना अर्थात् अपने आपका रहस्य जानना । अपने प्रति सच्चे बनिए, और संसार की अन्य किसी बात की ओर ध्यान न दीजिए। x संसार में व्यथा का प्रधान कारण यह है कि हम लोग अपने भीतर नहीं देखते। आँखों से मत देखो। वरन् सदा अपने अपने श्रापको दूसरों की अन्दर देखो। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ श्रावश्यक दिग्दर्शन सर्वोत्तम पालोचना वह है, जो बाहर से अनुभव कराने के बदले लोगो को वही अनुभव भीतर से करा देती है। श्रात्मा से बाहर मत भटको, अपने ही केन्द्र में स्थित रहो। -स्वामी रामतीर्थ __ यदि एक तरफ से या अपने एक अंग से तुम सत्य के सम्मुख होते हो और दूसरी तरफ से आसुरी शक्तियो के लिए अपने द्वार बरा-र खोलते जा रहे हो तो यह अाशा करना व्यर्थ है कि भगवत्प्रसाट शक्ति तुम्हारा साथ देगी । तुम्हे अपना मन्दिर स्वच्छ रखना होगा, यदि तुम चाहते हो कि भागवती शक्ति जागृत रूप से इसमे प्रतिष्ठित हो। पहले यह ढूंढ़ निकालो कि तुम्हारे अन्दर कौन-सी चीज है, जो मिथ्या या तमोग्रस्त है और उसका सतत त्याग करो। x यह मत समझो कि सत्य और मिथ्या, प्रकाश और अन्धकार, समर्पण और स्वार्थ-साधन एक साथ उस घर में रहने दिए, जायेंगे, जो गृह भगवान् को निवेदित किया गया हो। __~श्री अरविन्द योगी - चित्त जबतक गंगाजल की तरह निर्मल व प्रशान्त नहीं हो जाता, तबतक निष्कामता नहीं पा सकती। "अन्तर्वाह्य-भीतर व बाहर दोनो एक होना चाहिए । विस्मृति कोई बडा दोष है, ऐसा किसी को मालूम ही नहीं होता " परन्तु विस्मृति परमार्थ के लिए नाशक हो जाती है । व्यवहार में भी विस्मृति से हानि ही होती है, इसीलिए भगवान बुद्ध कहते हैं-'पमादो Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण पर जन-चिन्तन १६७, मञ्चुगो पदं ।' अर्थात् प्रमाद-विस्मरण-मानो मृत्यु ही है। एकएक क्षण का हिसाब रखिए, तो फिर प्रमाद को घुसने की जगह ही नहीं रहेगी । इस रीति से सारे तमोगुण को जीतने का प्रयत्न करना चाहिए । -श्राचार्य विनोबा भावे + कुछ लोग दूसरों के दोषों की ओर ही नजर फेंकते रहते हैं, लेकिन उन्हें अपने दोष देखने की फुर्सत ही नही मिलती। हमे अक्सर अपने मित्रों की बुराइयों को कहने और सुनने का जरूरत से ज्यादा शौक होता है । अपनी ओर देखना बहुत कम लोग जानते हैं। + दूसरों को बुरा बताने से हम खुद बुरे बन जाते हैं, क्योंकि हम अपने दोषों को दूर करने के बजाय उन्हें भूलने का प्रयत्न करते हैं । + सुख और शान्ति का झरना हमारे अन्दर ही है। अगर हम अपने __ मन और हृदय को पवित्र कर सके तो फिर तीर्थों में भटकने की जरूरत नहीं रहेगी। -~-श्रीमन्नारायण आजकल हम लोगों को अपने बद्ध श्रात्मा की मुक्ति की उतनी चिन्ता नहीं है, जितनी कि जगत के सुधार की । + + + हमारी सभ्यता और उसके मूल तत्त्वों का अच्छी तरह से विश्लेषण और बिना किसी सोच-सकोच के आलोचन हो जाना, आगे होने वाले सुधार के लिए अत्यन्त आवश्यक है। क्योंकि सचाई के साथ अपनी भूल को स्वीकार करना, सब प्रकार के सुधार का मूलारंभ है। -डा० एस० राधाकृष्णन Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक दिग्दर्शन __ जीवन में असफल होने वालों की समाधि पर असावधानी और . लापरवाही आदि शब्द लिखे जाते हैं। ---स्वेट मार्डेन पानी जैसी चंचलता से मनुष्य ऊँचा नहीं उठ सकता। -वर्क जो व्यक्ति अपने हृदय में दुर्गुणों पर इतना विजयी हो गया है कि दुगुणों के प्रकार और उनके उद्गम को जान सके तो वह किसी भी . प्राणी से घणा नहीं करेगा, किसी भी प्राणी का तिरस्कार नहीं करेगा। + शान्ति उसे ही प्राप्त होती है, जो अपने ऊपर विजय प्राप्त करता है, जो प्रतिदिन अधिकाधिक आत्मसंयम और मस्तिष्क को अपने अधिकार मे रखने का शान्तिपूर्वक उद्योग करता है। मनुष्य बुरे स्वभाव, घृणा, स्वार्थ, तथा अश्लील और गर्हित विनोदों के द्वारा अपना संहार करता है और फिर जीवन को दोष देता है। उसे स्वयं अपने आपको दोष देना चाहिए । श्राप जैसा चाहें वैमा अपना जीवन बना सकते हैं, यदि आप . दृढ़ता के साथ अपनी भीतरी वृत्तियों को ठीक करें। -जेम्स एलन पश्चात्ताप के लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य पिछले पापों पर सच्चे मन से लजित हो, और फिर कभी पाप करने का प्रयत्न न करे। -संत अबूबकर जब तक कोई कड़ाई के साथ अपनी परख न करेगा, तब तक वह अपने मन की धूर्तताओं को न समझ सकेगा। -कनफ्यूशियस Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण पर जन चिन्तन मोने से पहले तीन चीजों का हिसाब अवश्य कर लेना चाहिए । पहली बात यह मोचो कि आज के दिन मुझ से कोई पाप तो नहीं हुआ है। दूसरी बात यह सोचो कि आज कोई उत्तम कार्य किया है या नहीं ? तीसरी बात यह सोचो कि कोई करने योग्य काम मुझ से छूट गया है या नहीं? -अफलातून यदि हम यह कहते हैं कि हम में कोई पाप नहीं है तो हम अपने को धोखा देते हैं और सत्य से हाथ धोते हैं। मिटा दे अपनी गफलत फिर जगा अरबाब गफलत को, उन्हें सोने दे पहले ख्वाब से बेदार तू होजा। -सीमाव अकबराबादी यदि जग में है ईश्वरता, तो है मनुष्यता में ही। है धर्म तत्त्व अन्तहित, मन की पवित्रता में ही। शठता प्रकट जिससे अपनी सदैव हो, उचित नहीं है कभी ऐसी हठ ठानना । यदि होगई हो अपने से कभी कोई भूल, चाहिए तुरन्त हमें वह भूल मानना ।। अहमन्यता है जड़ सारी कमजोरियों की, बस यह जानना है सब कुछ जानना । जितना कठिन अपने को पहचानना है, रतना नहीं है दूसरों को पहचानना ।। -~-ठा० गोपालशरण सिह Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावश्यक दिग्दर्शन ऐब कसाँ मनिगरो यहसाने खेश; दीदा फेरोवर बगरी बाने खेश । अर्थात् दूसरों के दोषों और अपने गुणों को मत देखो। जन दूसरों के दोषों की तरफ दृष्टि जाय, अपने को देखो। -फरीदुद्दीन अत्तार जे हस्तौ ता बुचद बाकी बरो शैन, ने आयद इल्मे आरिफ सूरते ऐन । अर्थात् जब तक जीवन का एक भी धब्बा शेष रहता है, तब तक शानी का ज्ञान वास्तविक नहीं कहा जा सकता। -शब्सतरी दुनिया भर के पाप दूर हो सकते हैं, यदि उनके लिए सच्चे दिल से अफसोस करले। --मुहम्मद साहब जब तू यज्ञ में बलि देने जाय, तब तुझे याद आए कि तेरे और तेरे भाई के बीच बर है, तो वापस हो जा और समझौता कर । हे पिता! इनको ( मुझे सूली पर चढ़ाने वालों को) क्षमा कर, क्योंकि ये नहीं जानते कि हम क्या कर रहे हैं ? -ईसा मसीह - - Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २८ : प्रश्नोत्तरी प्रश्न-प्रतिक्रमण तो आवश्यक का एक अङ्ग विशेष है, फिर क्या कारण है कि आज कल समस्त आवश्यक क्रिया को ही प्रतिक्रमण कहते हैं ? उत्तर-यद्यपि प्रतिक्रमण श्रावश्यक का विशेष अङ्ग है। तथापि सामान्यतः सम्पूर्ण आवश्यक को जो प्रतिक्रमण कहा जाता है, वह रूढि को लेकर है । श्राज कल प्रतिक्रमण शब्द सम्पूर्ण श्रावश्यक के लिए रूढ हो गया है । सामायिक श्रादि आवश्यको की शुद्धि प्रतिक्रमण के विना होती नहीं है, अतः प्रतिक्रमण मुख्य होने से वही आवश्यक रूप में प्रचलित है। प्रश्न-प्रतिक्रमण प्राकृत भाषा में ही क्यों हो? यदि प्रचलित लोकभाषा मे अनुवाद पढा जाय तो अर्थ का ज्ञान अच्छी तरह हो सकता है ? उत्तर-प्राचीन प्राकृत पाठों में इतनी गम्भीरता और उच्च भावना है कि वह श्राज के अनुवाद में पूर्णतया उतर नहीं सकती है | कभी-कभी ऐसा होता है कि मूलभावना का स्पर्श भी नहीं हो पाता। दूसरी बात यह है कि लोक भाषाओं में हुए अनुवादों को साधना का अङ्ग बनाने से धार्मिक क्रिया की एकरूपता नष्ट हो जाती है। सांवत्सरिक आदि पर्व विशेष पर यदि सामूहिक रूप में विभिन्न भाषा-भाषी प्रतिक्रमण करने Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ श्रावश्यक-दिग्दशन बैठेंगे तो क्या स्थिति होगी ? कोई कुछ बोलेगा तो कोई कुछ ! इसलिए मूल प्राकृतं पाठो को सुरक्षित रखना आवश्यक है। हॉ, जनता को अर्थ से परिचित करने के लिए अनुवादों का माध्यम आवश्यक है । परन्तु वे केवल अर्थ समझने के लिए हो, मूल विधि में उन्हें स्थान नहीं देना चाहिए। प्रश्न-प्रतिक्रमण का क्या इतिहास है ? वह कब और कहाँ किस रूप में प्रचलित रहा है? उत्तर-प्रतिक्रमण का इतिहास यही है कि जब से जैनधर्म है, __ जब से साधु और श्रावक की साधना है, तभी से प्रतिक्रमण भी है। साधना की शुद्धि के लिए ही तो प्रतिक्रमण है । अतः जब से साधना, तभी से उसकी शुद्धि भी है । इस दृष्टि से प्रतिक्रमण अनादि है। वर्तमान काल चक्र मे चौबीस तीर्थकर हुए हैं। अस्तु प्रथम और अन्तिम तीर्थकर के काल में साधक अधिक जागरूक न थे अतः उनके लिए दोष लगे या न लगे, नियमेन प्रतिक्रमण का विधान होने से ध्रुव प्रतिक्रमण है । परन्तु बीच के २२ तीर्थकरो के काल में साधको के अतीव विवेकनिष्ठ एवं जागरूक होने के कारण दोष जगने पर ही प्रतिक्रमण किया जाता था, अतः इनके शासन का अध्रुव प्रतिक्रमण है। इसके लिए भगवती सूत्र, स्थानांगसूत्र - एवं क्ल्ल सूत्र वृत्ति अादि द्रष्टव्य हैं। प्राचार्य भद्रबाहु ने भी आवश्यक नियुक्ति में ऐसा ही कहा है:सपदिकमणो धरमो पुरिमस्स य पच्छिमल्स य जिएस्स । मज्झिमयाण जिणाणं, कारणजाए पडिकमण ॥ १२४४ ।। कुछ प्राचायों का कथन है कि देवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुआंसिक एव सांवात्सरिक उक्त पाँच प्रतिक्रमणों में से बाईस तीर्थकरों के Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२०३ प्रश्नोत्तरी काल में देवसिक एवं रात्रिक दो ही प्रतिक्रमण होते थे, शेष नहीं। . अतः सप्ततिस्थानक ग्रन्थ में कहा है :देवसिय, राइय, पक्खिय, चउमासिय वच्छरिय नामाओ . दुराह ' पण पडिकमणा, मझिमगाणं तु दो पढमा ।। उक्त दो प्रतिक्रमणों के लिए कुछ सज्जन यह सोचते हैं कि प्रातः और सायं नियमेन प्रतिक्रमण किया जाता होगा। परन्तु यह बात नहीं है। इसका प्राशय इतना ही है कि दिन और रात में जब भी जिस' । क्षण भी दोष लगता था, उसी समय प्रतिक्रमण कर लिया जाता था। उभय काल का प्रतिक्रमण नहीं होता था। प्रथम और अन्तिम तीर्थकरों - के शासन में भी दोष काल में ही ईर्यापथ एवं गोचरी आदि के प्रतिक्रमण के रूप में तत्काल प्रतिक्रमण का विधान है। फिर भी साधक असावधान है। अतः सम्भव है समय पर कभी जागृत न हो सके, इसलिए उभय काल में भी नियमेन प्रतिक्रमण का विधान किया गया है । परन्तु बाईस तीर्थकरों के शासन में साधक की स्थिति अतीव उच्च एवं विवेकनिष्ठ थी, अतः तत्काल प्रतिक्रमण के द्वारा ही नियमेन शुद्धि कर ली जाती थी। जीवन की गति पर हर क्षण कडी नजर रखने वालों के लिए प्रथम तो भूल का अवकाश नहीं है । और यदि कभी भूल हो भी जाए तो तत्क्षण उसकी शुद्धि का मार्ग तैयार रहता है। श्राचार्य जिनदास आवश्यक चूर्णि मे इसी भावना का स्पष्टीकरण करते हुए लिखते है-"पुरिम पछिमएहि उभयो कालं पडिकमितवं, इरियावहियमागतेहिं उच्चार पासवण आहारादीण वा विवेगं-काऊण, पदोसपच्चूसेसु, अतियारो हो तु वा मा वा तहावस्सं पडिकमितध्वं एतेहिं चेव ठाणेहि । मज्झिमगाणं तित्थे जदि अतियारो अस्थि तो दिवसो हो तु रत्ती वा, पुठवण्डो, अवरोहो, मझएहो, पुव्वरत्तोवरतं वा, अडदरत्तो वा ताहे चेव पडिकमन्ति । नथि तो न पडिकमन्ति, Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक दिग्दर्शन जेण ते असढा पाणावता परिणामगा, न य पमादबहुलो, तेण तेसिं एवं भवति ।" महाविदेह क्षेत्र में हमारी परम्परा के अनुमार सदाकाल २२ तीर्थंकरों के समान ही जिनशासन है, अतः वहाँ भी दोष लगते ही प्रतिक्रमण होता है, उभय काल आदि नहीं। श्रावकों के प्रतिक्रमण के सम्बन्ध में क्या स्थिति थी, यह अभी सप्रमाण स्पष्ट नहीं है । परन्तु अभी ऐसा ही कहा जा सकता है कि साधुओं के समान श्रावकों का भी अपने-अपने जिन शासन में यथाकाल ध्रुव एवं अध्रुव प्रतिक्रमण होता होगा। , प्रश्न-प्रतिक्रमण की क्या विधि है ? कौन से पाठ कत्र और कहाँ बोलने चाहिए ? उत्तर-अाजकल विभिन्न गच्छों की लम्बी-चौडी विभिन्न परम्पराएँ प्रचलित हैं | अस्तु, अाज की परम्पराओं के सम्बन्ध में हम कुछ नहीं कह सकते । हाँ उत्तराध्ययन सूत्र के समाचारी नामक छब्बीसवे अध्ययन में प्रतिक्रमण विधि की एक संक्षिप्त रूप रेखा है, वह इस प्रकार है (१) सर्व प्रथम कायोत्सर्ग में विसिक ज्ञान दर्शन चरित्र सम्बन्धी अतिचारों का चिन्तन करना चाहिए। (२) कायोत्सर्ग पूर्ण करके १-अतिचार चिन्तन के लिए अाजकल हिन्दी, गुजराती भाषा में कुछ पाठ प्रचलित है । परन्तु पुराने काल में ऐसा कुछ नहीं था और न होना ही चाहिए । प्रत्येक व्यक्ति का जीवन प्रवाह अलग-अलग बहता है, अतः प्रत्येक को अतिचार भी परिस्थिति वश अलग-अलग लगते हैं, भला उन सब विभिन्न दोषों के लिए कोई एक निश्चित पाठ कसे हो सकता है ? साधक को अतिचार सम्बन्धी कायोत्सर्ग में यह विचारना चाहिये कि अमुक टोप, अमुक समय विशेष मे, अमुक परिस्थिति वश लगा है ? कब, कहाँ किस के साथ क्रोध, अभिमान, छल या लोभ का व्यवहार किया है ? कत्र, कहाँ, कौनसा विकार मन वाणी एवं कर्म के Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तरी गुरुदेव के चरणों में चन्दन करना चाहिए और उनके समक्ष पूर्व चिन्तित अतिचारों की आलोचना करनी चाहिए । (३) इस प्रकार प्रतिक्रमण करने के बाद प्रायश्चित्त स्वरूप कायोत्सर्ग करना चाहिए। (४) कायोसर्ग पूर्ण करके गुरुदेव को वन्दन तथा स्तुति मंगल करना चाहिए । यह दिवस प्रतिक्रमण की विधि है। यहाँ आवश्यक के अन्त में प्रत्याख्यान का विधान नहीं है । रात्रिक प्रतिक्रमण का क्रम इस प्रकार निरूरण किया है--(१) सर्व प्रथम कायोत्सग में रात्रि सम्बन्धी, ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप सम्बन्धी अतिचारों का चिन्तन करना चाहिए । (२) कायोत्सर्ग पूर्ण करके गुरु को वन्दन करना चाहिए और उनके समक्ष पूर्व चिन्तित अतिचारों की आलोचना करनी चाहिये । (३) इस प्रकार प्रतिक्रमण करने के बाद गुरु को वन्दन पोर तदनन्तर दुबारा कायोत्सर्ग करना चाहिए । (४) इस कायोत्सर्ग में अपनी वर्तमान स्थिति के अनुकूल ग्रहण करने योग्य तपरूप प्रत्याख्यान का विचार करना चाहिए। (५) कायोत्सर्ग पूर्ण करने क्षेत्र में अवतीर्ण हुआ है ? यह सोचना ही अतिचार चिन्तन है। बॅधे हुए पाठो के द्वारा यह यात्म प्रकाश नहीं मिल सकता है। , १-उत्तराव्ययन सूत्र मे यह नहीं कहा गया कि कायोत्सर्ग में क्या विचारना चाहिए ? कायात्सर्ग प्रायश्चित्त स्वरूप है अतः वह अपने श्राप मे स्वय एक व्युत्सर्ग तप है। जो कष्ट हाँ उन्हें समभाव से सहना ही कायोत्सर्ग का ध्येय है । कायोत्सर्ग में समभाव का चिन्तन ही मुख्य है । इसीलिए मूल मूत्र म कायोत्सर्ग में पठनीय पाठ विशेष का उल्लेख नहीं हैं । परन्तु सभो साधक इस उच्च स्थिति में नहीं होते, इस कारण बाद में 'लोगल्स' पढने की परम्परा चालू हो गई, जो आज भी मलित हैं। २-आज झगडा है कि कायोत्सर्ग में कितने लोगस्स का पाठ करना चाहिए ? परन्तु आप देख सकते है कि मूलसूत्र में लोगस्स का Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावश्यक दिग्दर्शन के गद गुरु को वन्दन एवं उनसे प्रत्याख्यान कर लेना चाहिए । (6) अन्त मे सिद्ध स्तुति के द्वारा आवश्यक की समासि होनी चाहिए । ___ यह उत्तराध्ययन सूत्र कालीन संक्षिप्त विधि,रम्परा है । दुर्भाग्य से आज इतना गड-बड घोटाला है कि कुछ मार्ग ही नहीं मिलता है । कोन क्या कर रहा है, इस पर कहाँ तक टीका टिप्पणी की जाय ? प्रश्न आवश्यक अर्थात् प्रतिक्रमण किस समय करना चाहिए ? उत्तर-दिन की समाप्ति पर दैवसिक प्रतिक्रमण होता है और रात्रि की समाप्ति पर रात्रिक । महीने में दो बार पाक्षिक प्रतिक्रमण होता है, एक कृष्णपक्ष की समाप्ति पर तो दूसरा शुक्लपक्ष की समाप्ति पर । यह पाक्षिक प्रतिक्रमण पाक्षिक दिन की समाप्ति पर ही होता है प्रातः नहीं। चातुर्मासिक प्रतिक्रमण वर्ष मे तीन होते हैं, एक श्रापाढी पूर्णिमा के दिन, दूसरा कार्तिक पूर्णिमा के दिन और तीसरा फाल्गुन पूर्णिमा के दिन । यह प्रतिक्रमण भी चातुर्मासिक दिन की समासि पर ही होता है। सांवत्सरिक प्रतिक्रमण वर्ष में एक बार भाद्रपद शुक्ला पचमी के दिन सन्ध्या समय होता हैं। दिन की समाप्ति पर सन्ध्या समय किया जाने वाला प्रतिक्रमण दिन के चौथे पहर के चौथे भाग में', अर्थात् लगभग दो घडी दिन शेष रहते शय्याभूमि और उच्चार भूमि की प्रतिलेखना करने के पश्चात् प्रारंभ कर देना चाहिए। समाप्ति के समय का मूल पागम में उल्लेख नहीं है। परन्तु उपदेशप्रासाद आदि ग्रन्थों का कहना है कि सूर्य छिपते समय अथवा अाकाश में प्रथम तारक-दर्शन होते समय आवश्यक पूर्तिस्वरूप कहीं भी उल्लेख नहीं है, वहाँ तो छठे आवश्यक के रूप में ग्रहण करने योग्य तप के सम्बन्ध में विचार करने का विधान है। परन्तु साधक जब स्थूल हो गया तो चिन्तने जाता रहा, फलतः उसे लोगस्स का पाठ पकड़ा दिया । 'न' होने से कुछ होना अच्छा है। १. देखिए, उत्तराध्ययन २६ । ३८, ३६ । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : प्रश्नोत्तरी २०७ प्रत्याख्यान ग्रहण कर लेना चाहिए। यह प्राचीनकाल की परंपरा है। परन्तु आजकल सूर्य के अस्त होने पर प्रतिक्रमण की आज्ञा ली जाती है । जहाँ तक मैं समझता हूँ इसका कारण सन्ध्या समय के आहार की प्रथा है। उत्तराध्ययन सूत्र आदि के अनुसार जबतक साधु-जीवन मे दिन के तीसरे पहर मे केवल एक बार अाहार करने की परंपरा रही, तबतक तो वह प्राचीन काल मर्यादा निभती रही, परन्तु ज्यों ही शाम को दुबारा आहार का प्रारम हुआ तो प्रतिक्रमण की कालसीमा यागे बढी और वह सूर्यास्त पर पहुंच गई । समाप्ति का स्थान प्रारंभ ने ले लिया । प्रातःकाल के प्रतिक्रमण का समय भी रात्रि के चौथे पहर का चोथा भाग ही बताया है। सूर्योदय के समय प्रत्याख्यान ग्रहण कर लेना चाहिए । प्रातःकाल की परंपरा आज भी गायः उसी भॉति चल रही है। . क्या प्रातःकाल के समान देवसिक प्रतिक्रमण का भी अपना वह पुराना कालमान अपनाया जायगा ? क्यों नहीं, यदि सायकालीन,आहार के सम्बन्ध में कोई उचित निर्णय हो जाय तो। प्रश्न आवश्यक सूत्र-पाठ का निर्माणकाल क्या है ? वर्तमान अागम साहित्य में इसका क्या स्थान है ? इसके रचयिता कौन हैं ? उत्तर---यह प्रश्न बहुत गंभीर है। इस पर मुझ जैमा लेखक स्पष्टतः 'हॉ या ना कुछ नहीं कह सकता । फिर भी कुछ विचार उपस्थित किए जाते हैं। जैन श्रागम साहित्य को दो भागों में बाँटा गया है-अंग प्रविष्ट और अग बाह्य । अङ्ग प्रविष्ट के श्राचारांग, सूत्रकृतांग श्रादि बारह भेद हैं। अङ्ग बाह्य के मूल में दो भेद हैं श्रावश्यक और आवश्यकव्यतिरिक्त आवश्यक के सामायिक, चतुर्विशतिस्तव आदि छह भेद हैं, और श्रावश्यक व्यतिरिक्त के दशवकालिक, उत्तराध्ययन श्रादि अनेक भेद हैं। यह विभाग नन्दी-सूत्र के श्रु ताधिकार मे आज भी देखा जा सक्ता है। १. देखिए, उत्तराध्ययन २६ । ४६ । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ श्रावश्यक दिग्दर्शन उपयुक्त विभाग पर से यह प्रतिफलित होता है कि 'आवश्यक अंग अर्थात् मूल आगम नहीं है, 'अंगबाह्य' शब्द ही इस बात को स्पष्ट कर देता है। अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य की व्याख्या भी यही है कि जो गणधर रचित हो, वह अंग-प्रविष्ट । और जो गणधरो के बाद होने वाले स्थविर मुनियों के द्वारा प्राचीन मूल आगमों का आधार लेकर कही शब्दशः तो कहीं अर्थशः निमित हो, वह अंग बाह्य । देखिए, प्राचार्य जिनदास आवश्यक चूर्णि में यही व्याख्या करते हैं ? " अरहते हिं भगवन्ते हि अईयाणागयवट्टमाणदव्वखेत्तकालभावजथावत्थितदेसीहि अत्था परूविया ते गणहरेहि परमबुद्धि सन्निवायगुणसम्पन्नेहि सयं चेव तित्थगरसगासाओ उबलभिजणं सव्वसत्ताणं हितट्टयाए सुत्ततेण उपणिबदा त अंगपविट्ट, पायाराइ दुवालसविहं । पुण अरणेहिं विसुद्धागमबुद्धिजुत्तेहि थेरेहिं अप्पाउयाणं मण याणं अप. बुद्धिसतीणं च दुग्गाह ति णाऊण तं चेव पायाराइ सुयणाण परम्परागतं अत्थतो गंथतो य प्रतिबहुति काऊण अणकपानिमित्तं दसवेतालियमादि परुवियं तं प्रणेगभेदं श्रणंगपविद्ध" अंग प्रविष्ट और अंगबाह्य की यही व्याख्या उमास्वातिकृत तत्त्वार्थ भाष्य, भट्टाकलंककृत राजवार्तिक आदि प्रायः सभी श्वेताम्बर एवं दिगम्बर ग्रन्थों में है । इस व्याख्या पर से मालूम होता है कि प्राचीन जैन परम्परा में आवश्यक को श्रीसुधर्मा स्वामी श्रादि गणधरों की रचना नहीं माना जाता था । अपितु स्थविरो की कृति माना जाता था। अब प्रश्न रह जाता है कि किस काल के किन स्थविरों की कृति है ? इसका स्पष्ट उत्तर अभी तक अपने पास नहीं है । हाँ, श्रावश्यक सूत्र पर श्राचार्य भद्रबाहु की नियुक्ति है, सो उनसे बहुत पहले ही कभी सूत्र पाठों का निर्माण हुया होगा ! वर्तमान श्रागम साहित्य के सर्व प्रथम लेखन काल मे श्रावश्यक सूत्र विद्यमान था, तभी तो भगवती सूत्र आदि में उसका उल्लेख किया गया है । इन उल्लेखों को देखकर कुछ लोग कहते है, कि श्यावश्यक प्रादि भी गणधर कृत ही है, तभी तो मूल श्रागम में Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तरी उनका उल्लेख है। परन्तु वह उल्लेख देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण के समय . में एक सूत्र के विस्तृत लेख को दूसरे सूत्र के आधार पर संक्षिप्त कर देने के विचार से हुआ है । वह उल्लेख गणधरकृत कदापि नही है । पण्डित सुखलालजीने आवश्यक की ऐतिहासिकता पर काफी सुन्दर एवं विस्तृत चर्चा की है । परन्तु यह चर्चा अभी और गम्भीर चिन्तन की अपेक्षा रखती है। पाठक एक प्रश्न और कर सकते हैं कि आवश्यक सूत्रपाठ के निर्माण से पहले साधक श्रावश्यक क्रिया कैसे करते होंगे? प्रतिक्रमण श्रादि की क्या स्थिति होगी ? उत्तर में निवेदन है कि नवकार मन्त्र, सामायिक सूत्र' प्रादि कुछ पाठ तो अतीव प्राचीन काल से प्रचलित श्रा रहे थे । रहे शेष पाठ, सो पहले उनका अर्थरूप में चिन्तन किया जाता रहा होगा। बाद मे जन साधारण की कल्याण भावना से प्रेरित होकर उन पूर्व प्रचलित भावो को ही स्थविरों ने सूत्र का व्यवस्थित रूप दे दिया होगा। इस सम्बन्ध में लेखक अभी निश्चयपूर्वक कुछ कहने की स्थिति में नहीं है | अलम् । प्रश्न-क्या जैन धर्म के समान अन्य धर्मों में भी प्रतिक्रमण का विधान है। उत्तर-जैन धर्म में तो प्रतिक्रमण की एक महत्त्व पूर्ण एवं व्यवस्थित साधना है । इस प्रकार का व्यवस्थित एवं विधानात्मक रूप तो अन्यत्र नहीं है। परन्तु प्रतिक्रमण की मूल भावना की कुछ झलक अवश्य यत्र तत्र मिलती है। बौद्ध धर्म में कहा है "पाणातिपाता वेरमणि सिक्खापदं समादियामि । दिन्नादाना वेरमणि सिक्खापदं समादियामि । कामेसु मिच्छाचारा वेरमणि १-सामायिक सूत्र की प्राचीनता के लिए अन्तकृदशांग आदि प्राचीन सूत्रों में एवं भगवान् नेमिकालीन प्राचीन मुनियों के लिए यह पाठ आया है कि सामाइयमाझ्याई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ ।' Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० आवश्यक दिग्दर्शन सिक्खापदं समादियामि । मुसाबादा वेरमणि सिक्खापदं समादियामि । सुरामेरयमज्जपमादहाना वेरमणं सिक्खापदं समादियामि " __-लघुपाठ, पंचसील । "सुखिनो वा खेमिनो होन्तु सव्वे सत्ता भवन्तु सुखितत्ता " "मेत्तं च सव्वलोकस्मिन्, मानसं भावये अपरिमाणं । उद्धं अधो च तिरियं च, । असंबाधं अवरं असपत्तं ॥ -लघुपाठ, मेत्तसुत्त । वैदिक धर्म में कहा है "ममोपात्त दुरितक्षयाय श्री परमेश्वर प्रीतये प्रातः सायं सन्ध्योपासनमहं करिष्ये। -संध्यागत संकल्पवाक्य “ॐ सूर्यश्च मा मन्युश्च मन्युपतयश्च मन्युकृतेभ्यः पापेभ्यो रक्षन्ताम् । यद् रात्र्या पापमकार्ष मनसा वाचा हत्ताभ्यां पद्भ्यामुदरेण शिश्ना रात्रिरतदवलुम्पतु यत् किंचिद् दुरितं मयीदमहममृतयोनौ सूर्य ज्योतिषि जुहोमि स्वाहाः।" -कृष्ण यजुर्वट। वैदिक धर्म प्रार्थनाप्रवान धर्म है। उसके यहाँ पश्चात्ताप भी प्रार्थना प्रधान ही होता है. परमेश्वर की प्रसन्नता के लिए ही होता है। फिर भी सब पापों के प्रायश्चित्त की भावना का स्रोत पाया जाता है, ज मनुष्य के अन्तःकरण के मूल भावों का प्रतिनिधित्व करता है। प्रश्न-अाजकल आवश्यक साधना पूर्ण विधि से शुद्ध रूप में नही हो पाती है, अतः अविधि एवं अशुद्ध विधि से ही करते रहे तो क्या हानि है ? अरिधि से करते रहेगे, तब भी परम्परा तो सुरक्षित रहेगी। उत्तर-आपका प्रश्न बहुत सुन्दर है। जैन धर्म में विधि का Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तरी-- २११० बहुत बडा महत्त्व है । उपयोग शून्य प्रविधि से की जाने वाली साधना केवल द्रव्य साधना है, वह अन्तहृदय में ज्ञानज्योति नहीं जगा सकती ! प्राचार्य हरिभद्र के शब्दों में इस प्रकार की उपयोगशून्य साधना केवल कायचेप्टा रूप है, अतः कायवासित एवं वागवासित है। जब तक साधना मनोवासित न हो, तब तक कुछ भी अच्छा परिणाम नहीं श्राता है। अच्छा परिणाम क्या, बुरा परिणाम ही आता है । मुख से पाठों को दुहराना, परन्तु तदनुसार आचरण न करना, यह तो स्पष्टतः मृषावाद है । और यह मृषावाद विपरीत फल देने वाला है । ___ कुछ लोग प्रविधि एवं अशुद्ध विधि के समर्थन में कहते हैं कि जैसा चलता है चलने दो ! न करने से कुछ करना अच्छा है। शुद्ध विधि के आग्रह में रहने से शुद्ध क्रिया का होना तो दुर्लभ है ही, और इधर थोडी बहुत अंशुद्ध क्रिया चलती रहती है, वह भी छूट जायगी। और इस प्रकार प्राचीन धर्म परम्परा का लोप ही हो जायगा । इसके उत्तर में कहना है कि धर्म परम्परा यदि शुद्ध है तब तो वह धर्म परम्परा है । यदि उपयोग शून्य भारस्वरूप अशुद्ध क्रिया को ही धर्म कहा जाता है, तब तो अनर्थ ही है। अशुद्ध परम्परा को चालू रखने से शास्त्र विरुद्ध विधान को बल मिलता है, और इसका यह परिणाम होता है कि आज एक अंशुद्ध क्रिया चल रही है तो कल दूसरी अशुद्ध क्रिया चल पड़ेगी! परसों कुछ और ही गडबड हो जायगी। और इस प्रकार गन्दगी घटने की अपेक्षा निरन्तर बढ़ती जायगी, जो एक दिन सारे समाज को ही विकृत कर देगी। अस्तु साधक १-इहरा उ कायवासियपाय, अहवा महामुसावाओ । ता अणुरुवाणं चिय, कायव्वो एस विन्नासो।। -योगविंशिका १२! Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ आवश्यक दिग्दर्शन के लिए आवश्यक है कि वह साधना की शुद्धता का अधिक ध्यान रखे । जान बूझ कर भूल को प्रश्रय देना पाप है। कुछ भी न करने की अपेक्षा कुछ करने को शास्त्रकारों ने जो अच्छा कहा है, उसका भाव यह है कि व्यक्ति दुर्वल है। वह प्रारम्भ से ही शुद्ध विधि के प्रति बहुमान रखता है और तदनुमार ही आचरण भी करना चाहता है, परन्तु प्रमादेवश भूल हो जाती है और उचित रूप में लक्ष्यवेध नहीं कर पाता है। इमं प्रकार के विवेकशील जागृत साधकों के लिए कहा जाता है कि जो कुछ बने करते जायो, जीवन में कुछ न कुछ करते रहना चाहिए। भूल हो जाती है, इसलिए छोड बैठना ठीक नहीं है। प्राथमिक अभ्यास मे भूल हो जाना सहज है, परन्तु भूल सुधारने की दृष्टि हो, तदनुकूल प्रयत्न भी हो तो वह भूल भी वास्तव में भूल नहीं है। यह अशुद्ध क्रिया, एक दिन शुद्ध क्रिया का कारण बन सकती है। जानबूझ कर पहले से ही अशुद्ध परम्परा का बालम्बन करना एक बात है, और शुद्ध प्रवृत्ति का लज्य रखते हुए भी एवं तदनुकून प्रयत्न करते हुए भी अमावधानीपश भूल हो जाना दूसरी बात है । पहली बात का किमी भी दशा में समर्थन नहीं किया जा सकता। हाँ, दूसरी बात का समर्थन इस लिए किया जाता है कि वह व्यक्तिात जवन को दुनता है, सनूचे समाज की अशुद्ध परमरा नहीं है । समाज में फैली हुई अशुद्ध विधि विधानों की परम्परा का तो ‘डट कर विरोध करना चाहिए। हॉ, व्यक्तिगत जीवन सम्बन्धी प्राथमिक अभ्यास की दुर्बलता निरन्तर सचेट रहने से एक दिन दूर हो सलो है। धनुर्विद्या के अभ्यास करने वाले यदि जागृत चेतना से प्रयास करते हैं ता उनसे पहले पहल कुल भूने भी होती है, परन्तु एक दिन धनुर्विद्या के पारंगत पण्डित हो जाते हैं। एक-एक जल विन्दु के एकत्र होते होते एक दिन सरोवर भर जाते हैं । प्राथमिक असफलताओं से घबराकर भाग खड़े होना परले सिरे की कायरता है। जो लोग असफलता के भर से कुछ भी नहीं करते हैं, उनकी अपेक्षा वे अच्छे Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तरी २१३ है, जो साधना करते हैं, असफल होते हैं, और फिर साधना करते हैं। इस प्रकार निरन्तर भूलों एवं असफलताओं से संघर्ष करते हुए जागृत चेतना के सहारे एक दिन अवश्य ही सफलता प्राप्त करते हैं । इसी प्रकार के साधकों को लक्ष्य में रखकर कहा है:अविहिकया चरमकयं, उस्सुय-सुतं भणंति गीयत्था। - पायच्छित्तं जम्हा, अकए गुरुयं कए लहुयं ॥ -अविधि से करने की अपेक्षा न करना अच्छा है, यह उत्सूत्र वचन है। क्योंकि धर्मानुष्ठान न करने वाले को गुरु प्रायश्चित आता है, और धर्मानुष्ठान करते हुए यदि कहीं प्रमादवश अनिधि हो जाय तो लघुत्रायश्चित्त होता है। प्रश्न-जो गृहस्थ देश विरति के रूप में किसी व्रत के धारक नहीं हैं, उनको प्रतिक्रमण करना चाहिए, या नही ? जब व्रत ही नही है तो उनकी शुद्धि के लिए प्रतिक्रमण की क्या आवश्यकता है? उत्तर-व्रत हो, या न हो, फिर भी प्रतिक्रमण करणीय है। जिसको व्रत नहीं है, वह भी प्रतिक्रमण के लिए सामायिक करेगा, चतुर्वि शतिस्तव एव वन्दना, क्षमापना आदि करेगा तो उसको भाव विशुद्धि के द्वारा कर्मनिर्जरा होगी। और दूसरी बात यह है कि प्रतिक्रमण मिथ्या श्रद्वान और विपरीत प्ररूपणा का भी होता है । अतः सम्यक्त्व- शुद्धि का प्रतिक्रमण भी जीवन-शुद्धि के लिए आवश्यक है। प्रश्न-प्रतिक्रमण किस दिशा की ओर मुख करके करना चाहिए । उत्तर---पागम साहित्य मे पूर्व और उत्तर दिशा की ओर मुख • करके प्रतिक्रमण करने का विधान है। पश्चात्कालीन प्राचार्य भी यहो परम्परा मानते रहे हैं, पञ्च वस्तुक में लिखा है-'पुत्वाभि मुहा उत्तर मुहा य श्रावस्सय पात्रंति ।' पूर्व और उत्तर दिशा का वैज्ञानिक दृष्टि से क्या महत्व है, यह लेखक के सामायिक सूत्र में देखना चाहिए । Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - [ उपाध्याय पं० मनि की अमर जी महाराज ] प्रस्तुत ग्रन्थ आध्याय जी ने अपने गम्भीर अध्ययन, गहन चिन्तन और सूक्ष्म अनुवीक्षण के बल पर तैयार किया है। सामायिक सूत्र पर ऐसा सुन्दर विवेचन एवं विश्लेषण किया गया है कि सामायिक का लक्ष्य तथा उद्देश्य स्पष्ट हो जाता है। भूमिका के रूप में, जैन धर्म एवं जैन संस्कृति के सूक्ष्म तत्वो पर आतोचनात्मक एक सुविस्तृत निबन्ध भी आप उसमें पढ़ेगे। ___ इस में शुद्ध मूल पाठ, सुन्दर रूप में मूलार्थ और भावार्थ, संस्कृत प्रेमियों के लिए छायानुवाद और सामायिक के रहस्य को समझाने के लिए विस्तृत विवेचन किया गया है। मूल्य २॥) सत्य-हरिश्चन्द्र [उगध्याय पं० मुनि श्री अमरचन्द्रजो महागज ] __ 'सत्य हरिश्चन्द्र' एक प्रबन्ध-काव्य है। राजा हरिश्चन्द्र की जीवनगाथा भारतीय जीवन के अणु अणु मे व्याप्त है। सत्य परिपालन के लिए हरिश्चन्द्र कैसे-कैसे कष्ट उठाता है और उसको रानी एवं पुत्र रोहित पर क्या क्या आपदाएँ आती हैं, फिर भी सत्यप्रिय राजा हरिश्चन्द्र सत्यधर्म का पल्ला नहीं छोड़ता, यही तो वह महान् आदर्श है, जो भारतीयसंस्कृति का गौरव समझा जाता है । कुंशल काव्य-कलाकार कवि ने अपनी साहित्यिक लेखनी से राजा हरिश्चन्द्र, रानी तारा और राजकुमार रोहित का बहुत ही रमणीय चित्र खींचा है । काव्य की भाषा सरल और सुबोध तथा भावाभिव्यक्ति प्रभावशालिनी है । पुस्तक की छपाई-सफाई सुन्दर है । सजिल्द पुस्तक का मूल्य १॥)। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनत्व की झाँकी [ उपाध्याय पं० मुनि श्री अमरचन्द्र जी महाराज] इस पुस्तक मे महाराज श्री जी के निवन्धों का संग्रह किया गया है। उपवाय श्री जी एक कुराज कवि और एक सफल समालोचक तो है ही! परन्तु वे हमारी समाज के एक महान् निबन्धकार भी हैं। उनके निबन्धों मे स्वाभाविक आकर्षण, ललित भाषा और ठोस एवं मौलिक विचार होते हैं । प्रस्तुत पुस्तक' मे जैन इतिहास, जैन-धर्म, पोर जैन-संस्कृति पर लिखित निबन्धो का सर्वाङ्ग सुन्दर संकलन किया गया है। निबन्धो का वर्गीकरण ऐतिहासिक, धार्मिक, सामाजिक और दार्शनिक रूपो मे किया गया है । जैन धर्म क्या है ? उसकी जगत और ईश्वर के सम्बन्ध मे क्या मान्यताएँ हैं अोर जैन-सस्कृति के मौलिक सिद्धान्त कर्मवाद और स्याद्वाद जैसे गम्भीर एवं विशद विषयों पर बडी सरलता से प्रकाश डाला गया है । निबन्धों की भाषा सरस एवं सुन्दर है। जो सजन जैन-धर्म की जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं उनके लिए यह पुस्तक बड़ी उपयोगी सिद्ध होगी। हमारी समाज के नवयुवक भी इस पुस्तक को पढ़कर अपने धर्म और सस्कृति पर गर्व कर सकते हैं। पुस्तक सर्वप्रकार से सुन्दर है। राजसंस्करण का मूल्य ११) साधारण संस्करण का मूल्य II)। भक्तामर स्तोत्र [उमाध्याय प० मुनि श्री अमरचन्द्रजी महाराज] आपको भगवान् ऋपमदेवजी की स्तुति अब तक संस्कृत में ही प्राप्त थी । उपाध्याय श्री जी ने भक्तों की कठिनाई को दूर करने के लिए सरल एवं सरस अनुवाद और सुन्दर टिप्पणी एवं विवेचन के द्वारा भक्तामरस्तोत्र को बहुन ही सुगम बना दिया है। संस्कृत न जानने वालो के लिए हिन्दी भक्तामर भी जोड दिया गया है । मूल्य ।)। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-सूत्र [आध्याय पं० मुनि श्री अमरचन्द्र जी महाराज ] श्रमण सूत्र (प्रतिक्रमण ) साधु जीवन की अमून्य वस्तु है। प्रातःकाल और सायं काल उभय वेला में प्रति दिवस प्रतिक्रमण करना साधु का परम कर्तव्य है । परन्तु जैसी दुर्दशा प्रतिक्रमण के पाठो की हुई है, वैसी सम्भवतः अन्य किसी ग्रन्थ की न हुई होगी। खेद है कि उस का शुद्ध पाठ भी तो अभी तक इस्त नही विया गया। और इस दिशा में अभी तक जो कुछ थोडा-बहुत प्रयास भी हुआ है, वह बिल्कुल अधूरा ही है। इस ग्रन्थ में शुद्ध मूल पाठ, विशुद्ध एवं रमणीय मूलार्थ एवं भावार्थ, संस्कृत प्रेमियों के लिए छायानुवाद और प्रत्येक पाठ पर विस्तृत भाष्य किया गया है। प्रारम्भ में भूमिका के रूप में एक विस्तृत बालोचनात्मक निबन्ध है, जिस में प्रतिक्रमण के सम्बन्ध में विस्तार से ऊहापोह किया गया है ! उपाध्याय श्री जी ने अपने विशाल अध्ययन, गम्भीर चिन्तन और अपने निजी अनुभव से ग्रन्थ को गौरवशाली बनाया है। ज्ञान-पीठ के अभी तक के प्रकाशनों में यह ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण है और अपने ढंग का सब से निराला है । सुन्दर छपाई, सुन्दर जिल्द और मजबूत कागज पर छपा है। इस ग्रन्थ की पृष्ठ संख्या ६०० के लगभग होगी । Page #219 -------------------------------------------------------------------------- _