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अावश्यक दिग्दर्शन 'पाणिमद्भ्यः स्पृहाऽस्माकम् । देखिए, एक मस्तराम क्या धुन लगा रहे हैं ? उनका कहना है'मनुष्य दो हाथ वाला ईश्वर है।
द्विभुजः परमेश्वरः।' महाराष्ट्र के महान् सन्त तुकाराम कहते हैं कि 'स्वर्ग के देवता इच्छा करते हैं-'हे प्रभु! हमें मृत्यु लोक में जन्म चाहिये । अर्थात् हमें मनुष्य बनने की चाह है !
स्वर्गी चे अमर इच्छिताती देवा;
मृत्युलोकी हापा जन्म आम्हां । सन्त श्रेष्ठ तुलसीदास बोल रहे हैं :
'बड़े भाग मानुप तन पापा
सुर-दुर्लभ सव ग्रन्थन्हि गावा।' जरा उर्दू भाषा के एक मार्मिक कवि की वाणी भी सुन लीजिए। श्राप भी मनुष्य को देवताओं से बढ़कर बता रहे हैं
___ फरिश्ते से बढ़कर है इन्सान बनना,
मगर इसमें पड़ती है मेहनत जियादा।' वेशक, इन्सान बनने में बहुन जियादा मेहनत उठानी पडती है, बहुत अधिक श्रम करना होता है। जैनशास्त्रकार, मनुष्य बनने की साधना के मार्ग को बडा कठोर और दुर्गम मानते हैं। औपपातिक सूत्र में भगवान् महावीर का प्रवचन है कि "जो प्रागी छल, कपट से दूर रहता है-प्रकृति अर्थात् स्वभाव से ही सरल होता है, अहंकार से शुन्य होकर विनयशील होता है-सब छोटे-बड़ों का यथोचित पादर सम्मान करता है, दूसरों की किसी भी प्रकार की उन्नति को देखकर टाह नहीं करता है-प्रत्युत हृदय में हर्प और श्रानन्द की स्वाभाविक अनुभूति करता है, जिसके रग-रग में दया का संचार है-जो किसी भी दु:लिन