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श्रमण-धर्म औषधि देना सुधारार्थ या प्रायश्चित्त के लिए दण्ड देना हिंसा नहीं है ।... परन्तु जब ये ही द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह एवं भय आदि की दूषित वृत्तियों से मिश्रित,हों तो हिसा हो जाती है। मन में किसी भी प्रकार का दूषित भाव लाना हिंसा है। यह दुषित भाव अपने मन में हो, अथवा संकल्प पूर्वक अपने निमित्त से किसी दूसरे के मन में पैदा किया हो, सर्वत्र हिंसा है । इस हिसा से बचना प्रत्येक साधक का परम कर्तव्य है।
जैन-साधु अहिंसा का सर्वश्रेष्ठ साधक है । वह मन, वाणी और शरीर में से हिंसा के तत्त्वों को निकाल कर बाहर फेकता है, और जीवन के कण-कण में अहिंसा के अमृत का संचार करता है । उसका चिन्तन करुणा से ओत-प्रोत होता है, उसका भाषण दया का रस बरसाता है, उसकी प्रत्येक शारीरिक प्रवृत्ति में अहिंसा की झनकार निकलती है। वह अहिंसा का देवता है । अहिंसा भगवती उसके लिए 'ब्रह्म के समान उपास्य है । हिंस्य और हिंसक दोनो के कल्याण के लिए ही वह हिंसा से निवृत्ति करता है, अहिंसा का प्रण लेता है । सब काल मे सब प्रकार से सब प्राणियों के प्रति चित्त में अणुमात्र भी द्रोह न करना ही अहिंसा का सच्चा स्वरूप है । और इस स्वरूप को जैन-साधु न दिन में भूलता है और न रात में, न जागते में भूलता है और न सोते मे, न एकान्त में भूलता है और न जन समूह मे ।
जैन-श्रमण की अहिंसा, व्रत नहीं, महाव्रत है। महावत का अर्थ है महान् व्रत, महान् प्रण । उक्त महाव्रत के लिए भगवान् महावीर 'सव्वारे पाणाइवायाो विरमण' शब्द का प्रयोग करते हैं, जिसका अर्थ है मन वचन और कर्म से न स्वयं हिंसा करना, न दूसरों से करवाना और न हिंसा करने वाले दूसरे लोगों का अनुमोदन ही करना । अहिंसा का यह कितना ऊंचा आदर्श है ! हिंसा को प्रवेश करने के लिए
१-'अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमम्'
-प्राचार्य समन्तभद्र