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श्रावश्यक दिग्दर्शन
-'तस्स उत्तरीकरणणं, पायच्छित्तकरणेणं, विसोही करणणं, विसल्ली करणेणं, पावाण कम्माण निग्घायणटाए ठामि काउस्सग ।
आर प्रश्न करेंगे कि क्या किए हुए पाप भी धोकर साफ किए जा सकते हैं ? बिना भोगे हुए भी पापों से छुटकारा हो सकता है ? पाप कमों के सम्बन्ध मे तो यहीं कहा जाता है कि 'अवश्यमेव भोकव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ।
जैन धर्म उपयुक्त धारणा से विरोध रखता है। वह सब पाप कर्मों 'के भोगने की मान्यता का पक्षपाती नहीं है। किए हुए पापो की शुद्धि
न मानें तो फिर यह सब धर्म साधना, तपश्चरण आदि व्यर्थ ही कायक्लेश होगा । ससार में हम देखते है कि अनेक विकृत हुई वस्तुएँ पुनः शुद्ध कर ली जाती हैं तो फि. आत्मा को शुद्ध क्या नहीं बनाया जा सकता ? पाप बड़ा है या आत्मा ? पाप की शक्ति बलवती है या धर्म की? धर्म की शक्ति संसार मे बडी महत्त्व की शक्ति है। उसके समक्ष पाप ठहर नहीं सकते हैं। भगवान के सामने शतान भला कैसे ठहर सकता है ? हमारी प्राध्यात्मिक शक्ति ही भागवती शक्ति है। उसके समक्ष पापों की आसुरी शक्ति कथमपि नही खडी रह सकती है । पर्वत की गुहा में हजार-हजार वर्षों से अन्धकार भरा हुआ है। कुछ भी तो नहीं दिखाई देता । जिधर चलते हैं, उधर ही ठोकर खाते हैं । परन्तु ज्यो ही प्रकाश अन्दर पहुंचता है, क्षण भर में अंधकार छिन्न भिन्न हो जाता है। धर्म-साधना एक ऐसा ही अप्रतिहत प्रकाश है। भोग-भोग कर कमां का नाश कबतक होगा ? एकेक आत्मप्रदेश पर अनन्त-अनन्त कर्म वर्गणा हैं। इस संक्षिप्त जीवन में उनका भोग हो भी तो कैसे हो ? हाँ तो जैन धर्म पापो की शुद्धि में विश्वास रखता है। प्रायश्चित्त की अपूर्व । शक्ति के द्वारा वह अात्मा की शुद्धि मानता है./ भूला-भटका हुआ साधक जब प्रायश्चित कर लेता है तो वह शुद्ध हो जाता है, निष्याप हो जाता है। फिर वह धर्म में, समाज मे, लोक में, परलोक में सर्वत्र श्रादर का स्थान प्राप्त कर लेना है । वस्त्र पर जबतक अशुद्धि लगी रहती है, तभी