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आवश्यक दिग्दर्शन मे रख दिया हो तो साधु को तदर्थ भी मिच्छामि दुक्कडं देना चाहिए । ज्ञात, अज्ञात तथा सहसाकार आदि किसी भी रूप में कोई भी क्रिया की हो, कोई भी घटना घटी हो, उसके प्रति मिच्छामि दुक्कडं रूप प्रतिक्रमण कर लेने से आत्मा में अप्रमत्तभाव की ज्योति प्रकाशित होती है, अपूर्व श्रात्मशुद्धि का पथ प्रशस्त होता है और होता है अज्ञान, अविवेक एवं अनवधानता का अन्त 1
प्रतिक्रमण का अर्थ है.--'यदि किसी कारण विशेष से आत्मा संयम क्षेत्र से असंयम क्षेत्र में चला गया हो तो उसे पुनः संयम क्षेत्र में लौटा लाना।' इस व्याख्या में प्रमाद शब्द विचारणीय है। यदि प्रमाद के स्वरूप का पता लग जाय तो साधक बहुत कुछ उससे बचने की चेष्टा कर सकता है।
प्रवचन सारोद्वार में प्रमाद के निम्नोक्त आठ प्रकार बताए गए हैं। (१)अज्ञान-लोक-मूढता आदि । (२) सशय-जिन-वचनो मे सन्देह । (३) मिथ्या ज्ञान-विपरीत धारणा। (४) राग-प्रासक्ति । (५)द्वष-घृणा। (६) स्मृति भ्रंश-भूल हो जाना । (७) अनादर-संयम के प्रति अनादर । (८) योगदुष्प्रणिधानता-मन, वचन, शरीर को कुमार्ग में
. प्रवृत्त करना । प्रतिक्रमण की साधना प्रमादभाव को दूर करने के लिए है। साधक के जीवन में प्रमाद ही वह विप है, जो अन्दर ही अन्दर साधना को सहा-गला कर नष्ट-भ्रष्ट कर डालता है। अतः साधु और श्रावक दोनो का कर्तव्य है कि प्रमाद से बचें और अपनी साधना को प्रतिक्रमण के द्वारा अप्रमत्त स्थिति प्रदान करें।