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सामायिक प्रोवश्यक
से प्राचार की शुद्धि होती है। तीनों मिलकर प्रात्मा को पूर्ण विशुद्ध निमल बनाते हैं और उसे परमात्मा की कोटि में पहुंचा देते है।
चारित्र सामायिक के अधिकारी-भेद से दो प्रकार है-(१) देश, और (२) सर्व। गृहस्थों की प्राचार साधना को देशचारित्र कहते हैं । देश का अर्थ है-'अश' । गृहस्थ अहिंसा आदि प्राचार-साधना का पूर्ण रूप से पालन न करता हुआ अशत पालन करता है । साधुओं की प्राचार-साधना को सर्वचारित्र कहते हैं। सर्व का अर्थ है-' 'समग्र, पूर्ण । पॉच महाव्रतधारी साधु, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य
और अपरिग्रह की साधना को मन, वचन, और काय के द्वारा पूर्णतया पालन करने के लिए कृतप्रयत्न रहता है।
सामायिक की साधना बहुत ऊँची है। आत्मा का पूर्ण विकास सामायिक के विना सर्वथा असम्भव है | धर्मक्षेत्र की जितनी भी अन्य साधनाएँ हैं, सबका मूल सामायिक मे ही रहा हुआ है। जैन-आगमसाहित्य सबका सब सामायिक की चर्चा से ही ध्वनित है। अतएवं वाचक यशोविजयजी सामायिक को सम्पूर्ण द्वादशाङ्गीरूप जिनवाणी का सार बतलाते हैं
"सकलद्वादशाङ्गोपनिषद्भूतसामायिकसूत्रवत्" । . . .
--तत्त्वार्थ वृत्ति १-१ आचार्य जिनभद्र विशेषावश्यक भाष्य में सामायिक को चौदह पूर्व का अर्थ-पिण्ड कहते है'सामाइयं संखेवो, चोदसपुव्वथपिडो त्ति ।' 'गा० २७६६
जैन-संस्कृति समप्रधान संस्कृति है। उसके यहाँ तपश्चरण एवं उग्र क्रियाकाण्ड का कुछ महत्त्व अवश्य है, परन्तु वास्तविक महत्त्व संयम का है, समता का है, सामायिक का है। जबतक समभाव रूप सामायिक न हो, तबतक 'कोटि-कोटि वर्ष तप करने वाला अविवेकी साधक भी कुछ नही कर पाता है। संथार पइन्ना में कहा है: