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________________ ७२ श्रावश्यक दिग्दर्शन "निगतो ग्रन्थान् निर्ग्रन्थः ।' परिग्रह ही गॉठ है। जो भी साधक इस गॉठ को तोड़ देता है, वही आत्म-शान्ति प्राप्त कर सकता है, अन्य नहीं। । एक प्राचार्य अपरिग्रह महाव्रत के ५४ अंगों का निरूपण करते हैं-अल्प, बहु, अणु, स्थूल, सचित्त और अचित्त-यह संक्षेप मे छ: प्रकार का परिग्रह है। उक्त छः प्रकार के परिग्रह को भित्तु न मन से स्वयं रखे, न मन से रखवाए, और न रखने वालो का मन से अनुमोदन करे । इस प्रकार मनोयोग सम्बन्धी १८ भंग हुए। मन के समान ही वचन के १८, और शरीर के १८, सब मिलकर ५४ भग हो जाते हैं। जैन भिक्षु का पाचरण अतीव उच्चकोटि का आचरण है। उसकी तुलना पास-पास में अन्यत्र नहीं मिल सकती। वह वस्त्र, पात्र आदि उपधि भी अत्यन्त सीमित एवं संयमोपयोगी ही रखता है। अपने वस्त्र पात्रादि वह स्वयं उठा कर चलता है । संग्रह के रूप में किसी गृहस्थ के यहाँ जमा करके नहीं छोड़ता है। सिक्का, नोट एवं चेक आदि के रूप में किसी प्रकार की भी धन संपत्ति नहीं रख सक्ता । एकबार का लाया हुआ भोजन अधिक से अधिक तीन पहर ही रखने का विधान है, वह भी दिन में ही । रात्रि में तो न भोजन रखा जा सकता है और न खाया जा सकता है । और तो क्या, रात्रि में एक पानी की बूंद भी नहीं पी सकता । मार्ग में चलते हुए भी चार मील से अधिक दूरी तक आहार पानी नहीं लेजा सकता । अपने लिए बनाया हुआ न भोजन ग्रहण करता है और न वस्त्र, पात्र, मकान आदि । वह सिर के बालों को हाथ से उखाडता है, लोंच करता है । जहाँ भी जाना होता है नंगे पैरों पैदल जाता है, किसी भी सवारी का उपयोग नहीं करता। यहाँ अधिक लिखने का प्रसंग नहीं है । विशेष जिज्ञासु आचारांग सूत्र, दसर्व-कालिक सूत्र आदि जैन आचार ग्रन्थों का अध्ययन कर सकते हैं।
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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