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" मुद्रा::
१८७ जैन साहित्य में इस प्रकार की तीन मुद्राएँ मानी गई हैं- (१) योग मुद्रा, (२) जिन मुद्रा, और (३) मुक्ताशुक्ति मुद्रा।
एक हाथ की अंगुलियों को दूसरे हाथ की अंगुलियों में डाल कर कमल-डोडा के श्राकार से हाथ जोड़ना, दोनों हाथों के अगूठों को मुख के आगे नासिका पर लगाना, और दोनों हाथों की कुहनियों को पेट पर रखना, योग मुद्रा है । यह मुद्रा घुटने टेक कर, अथवा गोदुह आसन से उकडू बैठकर की जाती है । -- __-जिनेश्वर देव जब कायोत्सर्ग करते हैं, तब दोनों चरणों के बीच - श्रगे के भाग में चार अंगुल जितना और पीछे के भाग में- एडी की
ओर चार अंगुल से कुछ कम साढे तीन अंगुल जितना अंतर रखते हैं। और उक्त दशा में-दाहिना हाथ दाहिनी जंघा के पास एवं वायाँ हाथ बाई जंघा के पास लटकता रहता है। दोनों हाथों की हथेलियाँ आगे की
ओर चित खुली हुई होती हैं। यह जिनमुद्रा है। यह-मुद्रा दण्डायमान सीधे खडे होकर की जाती है।
तीसरी मुक्ताशुक्ति मुद्रा का यह प्रकार है कि कमल-डोडा के समान दोनों हाथों को बीच में पोल रख कर जोड़ना और मस्तक पर लगाना, अथवा मस्तक से कुछ दूर रखना । मुक्ता का अर्थ है मोती, और शुक्ति का अर्थ है सीर । अस्तु मुक्ताशुक्ति के समान मिली हुई मुद्रा, मुक्ताशुक्ति मुद्रा कहलाती है। यह मुद्रा भी घुटनों को भूमि पर टेक कर, अथवा गो-दुह श्रासन से उकडू बैठकर की जाती है। अन्नोऽन्न तर अंगुलि,
कोसागारहिं दोहि हत्थेहि । पेट्टोवरि कुपर-संठिएहि,
तह जोग-मुद्दत्ति ॥७॥ चत्तारि अगुलाई,
पुरो जत्थ पच्छिमओ।