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________________ ७४ श्रावश्यक दिग्दर्शन हैं। देखिए, उसके सम्बन्ध में भगवद्गीता का दूसरा अध्याय क्या कहता है ? त्रैगुण्य-विपया वेदा निस्वैगुण्यो भवार्जुन! निर्द्वन्द्वो नित्य-सत्त्वस्थो, निर्योगक्षम आत्मवान् ॥४॥ -'हे अर्जुन ! सब के सब वेद तीन गुणों के कार्यरूप समस्त भोगो एवं उनके साधनो का प्रतिपादन करने वाले हैं, इसलिए तू उन भोगों एवं उनके साधनो में अलिप्त रहकर, हर्ष शोकादि द्वन्द्वों से रहित, नित्य परमात्मस्वरूप में स्थित, योगक्षेम की कल्पनाओं से परे आत्मवान् होकर विचरण कर। यावानर्थ उदपाने, सर्वतः समजुतोदके। तावान् सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ।।४६|| --'सब ओर से परिपूर्ण विशाल एवं अथाह जलाशय के प्राप्त हो जाने पर तुद्र जलाशय में मनुष्य का जितना प्रयोजन रहता है, प्रात्मस्वरूप को जानने वाले ब्राह्मण का सब वेदो में उतना ही प्रयोजन रह जाता है, अर्थात् कुछ प्रयोजन नहीं रहता है।। पाठक ऊपर के दो श्लोकों पर से विचार सकते हैं कि ब्राह्मणसंस्कृति का मूलाधार क्या है ? ब्राहाण संस्कृति के मूल वेद हैं और वे प्रकृति के भोग और उनके साधनों का ही वर्णन करते हैं । आत्मतत्त्व की शिक्षा के लिए उनके पास कुछ नही है । भगवद्गीता वेदो को तुद्र जलाशय की उपमा देती है। वेदो का क्षुद्रत्व इसी बात में है कि वे यज्ञ, यागादि क्रिया काण्डों का ही विधान करते हैं, ऐहिक भोग-विलास एवं मुखों का संकल्प ही मानव के सामने रखते हैं, आत्म-विद्या का नहीं।
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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