________________
मानव जीवन को महत्त्व
संसार में अनन्तकाल से भटकती हुई कोई आत्मा जब क्रमिक विकाश का मार्ग असनाती है तो वह अनन्त पुण्य कर्म का उदय होने पर निगोद से निकल कर प्रत्येक वनस्पति, पृथ्वी, जल आदि की योनियों में जन्म लेती है। और जब यहाँ भी अनन्त शुभकर्म का उदय होता है तो द्वीन्द्रिय केंचुत्रा आदि के रूप में जन्म होता है। इसी प्रकार त्रीन्द्रिय चीटी आदि, चतुरिन्द्रिय मक्खी मच्छर आदि, पञ्चेन्द्रिय नारक तिर्यच आदि की विभिन्न योनियों को पार करता हुआ, क्रमशः ऊपर उठता हुआ जीव, अनन्त पुण्य वल के प्रभाव से कहीं मनुष्य जन्म ग्रहण करता है। भगवान् महावीर कहते हैं कि जब "अशुभ कर्मों का भार दूर होता है, श्रात्मा शुद्ध, पवित्र और निर्मल बनता है, तब कही वह मनुष्य की सर्वश्रेष्ठ गति को प्राप्त करता है।"
कम्माणं तु पहाणाए
आणुपुव्वी कयाइ उ । जीवा सोहिमणुष्पत्ता श्राययंति मणुस्सयं ॥
-(उत्तराध्ययन ३ । ७) विश्व में मनुष्य ही सब से थोडी संख्या में है, अतः वही सबसे दुर्लभ भी है, महाघ भी है। व्यापार के क्षेत्र मे यह सर्व साधारण का परखा हुआ सिद्धान्त है कि जो चीज जितनी ही अल्प होगी, वह उतनी ही अधिक मंहगी भी होगी। और फिर मनुष्य तो अल्प भी है और केवल अल्पता के नाते ही नहीं, अपितु गुणों के नाते श्रेष्ठ , भी है। भगवान महावीर ने इसी लिए गौतम को उपदेश देते हुए कहा है"संसारी जीवों को मनुष्य का जन्म चिरकाल तक इधर उधर की अन्य योनियों में भटकने के बाद बड़ी कठिनाई से प्राप्त होता है, वह सहज : नहीं है। दुष्कर्म का फल बड़ा ही भयंकर होता है, अतएव हे गौतम ! क्षण भर के लिए भी प्रमाद मत कर।"