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आवश्यक दिग्दर्शन
के लिए आवश्यक है कि वह साधना की शुद्धता का अधिक ध्यान रखे । जान बूझ कर भूल को प्रश्रय देना पाप है।
कुछ भी न करने की अपेक्षा कुछ करने को शास्त्रकारों ने जो अच्छा कहा है, उसका भाव यह है कि व्यक्ति दुर्वल है। वह प्रारम्भ से ही शुद्ध विधि के प्रति बहुमान रखता है और तदनुमार ही आचरण भी करना चाहता है, परन्तु प्रमादेवश भूल हो जाती है और उचित रूप में लक्ष्यवेध नहीं कर पाता है। इमं प्रकार के विवेकशील जागृत साधकों के लिए कहा जाता है कि जो कुछ बने करते जायो, जीवन में कुछ न कुछ करते रहना चाहिए। भूल हो जाती है, इसलिए छोड बैठना ठीक नहीं है। प्राथमिक अभ्यास मे भूल हो जाना सहज है, परन्तु भूल सुधारने की दृष्टि हो, तदनुकूल प्रयत्न भी हो तो वह भूल भी वास्तव में भूल नहीं है। यह अशुद्ध क्रिया, एक दिन शुद्ध क्रिया का कारण बन सकती है। जानबूझ कर पहले से ही अशुद्ध परम्परा का बालम्बन करना एक बात है, और शुद्ध प्रवृत्ति का लज्य रखते हुए भी एवं तदनुकून प्रयत्न करते हुए भी अमावधानीपश भूल हो जाना दूसरी बात है । पहली बात का किमी भी दशा में समर्थन नहीं किया जा सकता। हाँ, दूसरी बात का समर्थन इस लिए किया जाता है कि वह व्यक्तिात जवन को दुनता है, सनूचे समाज की अशुद्ध परमरा नहीं है । समाज में फैली हुई अशुद्ध विधि विधानों की परम्परा का तो ‘डट कर विरोध करना चाहिए। हॉ, व्यक्तिगत जीवन सम्बन्धी प्राथमिक अभ्यास की दुर्बलता निरन्तर सचेट रहने से एक दिन दूर हो सलो है। धनुर्विद्या के अभ्यास करने वाले यदि जागृत चेतना से प्रयास करते हैं ता उनसे पहले पहल कुल भूने भी होती है, परन्तु एक दिन धनुर्विद्या के पारंगत पण्डित हो जाते हैं। एक-एक जल विन्दु के एकत्र होते होते एक दिन सरोवर भर जाते हैं । प्राथमिक असफलताओं से घबराकर भाग खड़े होना परले सिरे की कायरता है। जो लोग असफलता के भर से कुछ भी नहीं करते हैं, उनकी अपेक्षा वे अच्छे