Book Title: Aavashyak Digdarshan
Author(s): Amarchand Maharaj
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 212
________________ २१० आवश्यक दिग्दर्शन सिक्खापदं समादियामि । मुसाबादा वेरमणि सिक्खापदं समादियामि । सुरामेरयमज्जपमादहाना वेरमणं सिक्खापदं समादियामि " __-लघुपाठ, पंचसील । "सुखिनो वा खेमिनो होन्तु सव्वे सत्ता भवन्तु सुखितत्ता " "मेत्तं च सव्वलोकस्मिन्, मानसं भावये अपरिमाणं । उद्धं अधो च तिरियं च, । असंबाधं अवरं असपत्तं ॥ -लघुपाठ, मेत्तसुत्त । वैदिक धर्म में कहा है "ममोपात्त दुरितक्षयाय श्री परमेश्वर प्रीतये प्रातः सायं सन्ध्योपासनमहं करिष्ये। -संध्यागत संकल्पवाक्य “ॐ सूर्यश्च मा मन्युश्च मन्युपतयश्च मन्युकृतेभ्यः पापेभ्यो रक्षन्ताम् । यद् रात्र्या पापमकार्ष मनसा वाचा हत्ताभ्यां पद्भ्यामुदरेण शिश्ना रात्रिरतदवलुम्पतु यत् किंचिद् दुरितं मयीदमहममृतयोनौ सूर्य ज्योतिषि जुहोमि स्वाहाः।" -कृष्ण यजुर्वट। वैदिक धर्म प्रार्थनाप्रवान धर्म है। उसके यहाँ पश्चात्ताप भी प्रार्थना प्रधान ही होता है. परमेश्वर की प्रसन्नता के लिए ही होता है। फिर भी सब पापों के प्रायश्चित्त की भावना का स्रोत पाया जाता है, ज मनुष्य के अन्तःकरण के मूल भावों का प्रतिनिधित्व करता है। प्रश्न-अाजकल आवश्यक साधना पूर्ण विधि से शुद्ध रूप में नही हो पाती है, अतः अविधि एवं अशुद्ध विधि से ही करते रहे तो क्या हानि है ? अरिधि से करते रहेगे, तब भी परम्परा तो सुरक्षित रहेगी। उत्तर-आपका प्रश्न बहुत सुन्दर है। जैन धर्म में विधि का

Loading...

Page Navigation
1 ... 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219