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: २२ : प्रतिक्रमण : जीवन की डायरी . मनुष्य अपनी उन्नति चाहता है, प्रगति चाहता है । वह जीवन की दौड मे हर कही बढ जाना चाहता है ! साधना के क्षेत्र में भी वह तप करता है, जप करता है, सयम पालता है, एक से एक कठोर आचरण में उतरता है और चाहता है कि अपने बन्धनों को तोड डालूँ, अात्मा को कर्मों के अधिकार से स्वतन्त्र करा लूँ । परन्तु सफलता क्यों नहीं मिल रही है ? सब कुछ करने पर भी टोटा क्यों है ? लाभ क्यों नहीं ?
बात यह है कि किसी भी प्रकार की उन्नति करने से पूर्व, अपनी वर्तमान अवस्था का पूरा ज्ञान प्राप्त करना, आवश्यक है । आप बढ़ते तो हैं परन्तु बढने की धुन में जितना मार्ग तै कर पाया है, उस पर नजर नहीं डालते । वह सेना विजय का क्या अानन्द उठा सकेगी, जो श्रागे ही आगे आक्रनण करती जाती है, किन्तु पीछे की व्यवस्था पर, दुर्बलता पर, भूलों पर कोई ध्यान नहीं देती। वह व्यापारी क्या लाभ उठाएगा, जो अंधाधुन्ध व्यापार तो करता जाता है, परन्तु बही खाते की जाँच-पडताल करके यह नहीं देखता कि क्या लेना-देना है, क्या हानि-लाभ है ? अच्छा व्यापारी, दूसरे दिन की विक्री उसी समय प्रारम्भ करता है, जब कि पहले दिन की आय-व्यय की विध मिला चुकता है ! जिसको अपनी पूँजी का और हानि-लाभ का पता ही नहीं, वह क्या ‘खाक व्यापार करेगा ? और उस अन्धे व्यापार से होगा भी क्या ? अँधी बुढ़िया चक्की पर आटा पीसती है ! इधर पीसती है, और उधर