Book Title: Aavashyak Digdarshan
Author(s): Amarchand Maharaj
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 204
________________ २०२ श्रावश्यक-दिग्दशन बैठेंगे तो क्या स्थिति होगी ? कोई कुछ बोलेगा तो कोई कुछ ! इसलिए मूल प्राकृतं पाठो को सुरक्षित रखना आवश्यक है। हॉ, जनता को अर्थ से परिचित करने के लिए अनुवादों का माध्यम आवश्यक है । परन्तु वे केवल अर्थ समझने के लिए हो, मूल विधि में उन्हें स्थान नहीं देना चाहिए। प्रश्न-प्रतिक्रमण का क्या इतिहास है ? वह कब और कहाँ किस रूप में प्रचलित रहा है? उत्तर-प्रतिक्रमण का इतिहास यही है कि जब से जैनधर्म है, __ जब से साधु और श्रावक की साधना है, तभी से प्रतिक्रमण भी है। साधना की शुद्धि के लिए ही तो प्रतिक्रमण है । अतः जब से साधना, तभी से उसकी शुद्धि भी है । इस दृष्टि से प्रतिक्रमण अनादि है। वर्तमान काल चक्र मे चौबीस तीर्थकर हुए हैं। अस्तु प्रथम और अन्तिम तीर्थकर के काल में साधक अधिक जागरूक न थे अतः उनके लिए दोष लगे या न लगे, नियमेन प्रतिक्रमण का विधान होने से ध्रुव प्रतिक्रमण है । परन्तु बीच के २२ तीर्थकरो के काल में साधको के अतीव विवेकनिष्ठ एवं जागरूक होने के कारण दोष जगने पर ही प्रतिक्रमण किया जाता था, अतः इनके शासन का अध्रुव प्रतिक्रमण है। इसके लिए भगवती सूत्र, स्थानांगसूत्र - एवं क्ल्ल सूत्र वृत्ति अादि द्रष्टव्य हैं। प्राचार्य भद्रबाहु ने भी आवश्यक नियुक्ति में ऐसा ही कहा है:सपदिकमणो धरमो पुरिमस्स य पच्छिमल्स य जिएस्स । मज्झिमयाण जिणाणं, कारणजाए पडिकमण ॥ १२४४ ।। कुछ प्राचायों का कथन है कि देवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुआंसिक एव सांवात्सरिक उक्त पाँच प्रतिक्रमणों में से बाईस तीर्थकरों के

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