Book Title: Aavashyak Digdarshan
Author(s): Amarchand Maharaj
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 205
________________ .२०३ प्रश्नोत्तरी काल में देवसिक एवं रात्रिक दो ही प्रतिक्रमण होते थे, शेष नहीं। . अतः सप्ततिस्थानक ग्रन्थ में कहा है :देवसिय, राइय, पक्खिय, चउमासिय वच्छरिय नामाओ . दुराह ' पण पडिकमणा, मझिमगाणं तु दो पढमा ।। उक्त दो प्रतिक्रमणों के लिए कुछ सज्जन यह सोचते हैं कि प्रातः और सायं नियमेन प्रतिक्रमण किया जाता होगा। परन्तु यह बात नहीं है। इसका प्राशय इतना ही है कि दिन और रात में जब भी जिस' । क्षण भी दोष लगता था, उसी समय प्रतिक्रमण कर लिया जाता था। उभय काल का प्रतिक्रमण नहीं होता था। प्रथम और अन्तिम तीर्थकरों - के शासन में भी दोष काल में ही ईर्यापथ एवं गोचरी आदि के प्रतिक्रमण के रूप में तत्काल प्रतिक्रमण का विधान है। फिर भी साधक असावधान है। अतः सम्भव है समय पर कभी जागृत न हो सके, इसलिए उभय काल में भी नियमेन प्रतिक्रमण का विधान किया गया है । परन्तु बाईस तीर्थकरों के शासन में साधक की स्थिति अतीव उच्च एवं विवेकनिष्ठ थी, अतः तत्काल प्रतिक्रमण के द्वारा ही नियमेन शुद्धि कर ली जाती थी। जीवन की गति पर हर क्षण कडी नजर रखने वालों के लिए प्रथम तो भूल का अवकाश नहीं है । और यदि कभी भूल हो भी जाए तो तत्क्षण उसकी शुद्धि का मार्ग तैयार रहता है। श्राचार्य जिनदास आवश्यक चूर्णि मे इसी भावना का स्पष्टीकरण करते हुए लिखते है-"पुरिम पछिमएहि उभयो कालं पडिकमितवं, इरियावहियमागतेहिं उच्चार पासवण आहारादीण वा विवेगं-काऊण, पदोसपच्चूसेसु, अतियारो हो तु वा मा वा तहावस्सं पडिकमितध्वं एतेहिं चेव ठाणेहि । मज्झिमगाणं तित्थे जदि अतियारो अस्थि तो दिवसो हो तु रत्ती वा, पुठवण्डो, अवरोहो, मझएहो, पुव्वरत्तोवरतं वा, अडदरत्तो वा ताहे चेव पडिकमन्ति । नथि तो न पडिकमन्ति,

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