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प्रतिक्रमण : मिच्छामि दुक्कड़ 'मिच्छामि दुक्कड' जैन संस्कृति की बहुत महत्त्वपूर्ण देन है। जैन धर्म का समस्त साधनासाहित्य मिच्छामि दुक्कडं से भरा हुआ है। साधक अपनी भूल के लिए मिच्छामि दुक्कडं देता है और पाप-मल को धोकर पवित्र बन जाता है । भूल हो जाने के बाद, यदि साधक मिच्छामि दुक्कडं दे लेता है, तो वह आराधक कहा जाता है। और यदि अभिमानवश अपनी भूल नहीं स्वीकार करता एव मिच्छामि दुक्कडं नहीं कहता, तो वह धर्म का विराधक रहता है, आराधक नहीं। ___मन मे किसी के प्रति द्वेष आए तो मिच्छामि दुक्कड कहना चाहिए । लोभ या छल की दुर्भावना पाए तो मिच्छामि दुक्कडं कहना चाहिए । विचार में कालिमा हो, वाणी मे मलिनता हो, आचरण मे कलुषता हो, अर्थात् खाने में, पीने मे, जाने में, पाने मे, उठने मे, बैठने में, सोने में, बोलने में, सोचने में, कहीं भी कोई भूल हो तो जैनधर्म का साधक मिच्छामि दुक्कडं का आश्रय लेता है। उसके यहाँ 'मिच्छामि दुक्कड' कहना, प्रतिक्रमण-रूप' प्रायश्चित्त है । यह प्रायश्चित साधना को पवित्र, निर्मल, स्वच्छ तथा शुद्ध बनाता है। -मिथ्यादुष्कृताभिधानाधभिव्यक्किप्रतिक्रिया, प्रतिक्रमणम्'
-रांजवार्तिक । २२।३।
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