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प्रतिक्रमण : तीसरी औषध यह कथानक उन लोगो के समाधान के लिए है, जो यह कहते है कि हम जिस दिन कोई पाप ही न करें, तो फिर उस दिन प्रतिक्रमण करने की क्या आवश्यकता है ? व्यर्थ ही प्ररिक्रमण के पाठो को बोलने से क्या लाभ है ? यह समय का अपव्यय नही तो और क्या है ?
प्रथम तो जब तक मनुष्य छद्मस्थ है एवं प्रमादी है, तब तक कोई दोष लगे ही नहीं, यह कैसे कहा जा सकता है ? मन,वचन, शरीर का योग परिस्पंदात्मक है और उसमे जहाँ भी कहीं कषाय भाव का मिश्रण हुआ कि फिर दोष लगे विना नहीं रह सकता । दिन और रात मन की गति धर्म की ओर ही अभिमुख रहे, जरा भी इधर-उधर न झुके, यह व्यर्थ का दावा है, जो प्रमादी दशा में किसी प्रकार भी प्रमाणित नहीं हो सकता । परन्तु तुष्यतु दुर्जनन्याय से यदि थोड़ी देर के लिए यह मान भी लिया जाय, तब भी प्रतिक्रमण की साधना तीसरी औषधि के समान है। वह केवल पुराने दोषों को दूर करने के लिए ही नही है, अपितु । भविष्य में दोषों की सम्भावना को कम करने के लिए भी है । प्रतिक्रमण करते समा जो भावविशुद्धि होगी, वह साधक के संयम को शक्तिशाली एवं तेजस्वी बनाएगी | पापाचरण के प्रति घृणा व्यक्त करना ही प्रतिक्रमण का उद्देश्य है । पार किया हो, या न किया हो, साधक के लिए यह प्रश्न मुख्य नहीं है । साधक के लिए तो सब से बड़ा प्रश्न यही हल करना है कि वह पाप के प्रति घृणा व्यक्त कर सकता है या नही ? यदि घृणा व्यक्त कर सकता है तो वह अपने आप में स्वयं एक बड़ी साधना है। पापो को धिक्कारना ही पापों को समाप्त करना है। यह लोक-नियम है कि जिसके प्रति जितनी घृणा होगी, उससे उतनी ही दृढता से अलग रहा जायगा, एक दिन उसका सर्वनाश कर दिया जायगा । प्रति दिन के प्रतिक्रमण में जब हम पापो के प्रति घृणा व्यक्त करेंगे, उन्हे परभाव मानेंगे, उन्हें अपना विरोधी मानेगे, आत्मस्वरूप के घातक समझेगे तो फिर उनका जीवन में कभी भी सत्कार न करेंगे। सदैव उनसे दूर रह कर अपने को बचाए रखने का सतत प्रयत्न करेंगे।