Book Title: Aavashyak Digdarshan
Author(s): Amarchand Maharaj
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 184
________________ १८१ श्रावश्यक दिग्दर्शन. .. व्यक्ति था। कुम्हार ज्योंही चाक पर से पात्र उतार कर भूमि पर रक्खे, और वह शिष्य कंकर का निसाना मार कर उसे तोड दे। कुम्हार ने शिकायत की तो मिच्छामि दुक्कडं कहने लगा। परन्तु वह रुका नहीं, बार-बार मिच्छामि डुक्कडं देता रहा, और पात्र तोड़ता रहा । आखिर कुम्हार को प्रावेश आ गया, उसने कंकर उठाकर क्षुल्लक के कान पर रख ज्योंही जोर से दबाया तो वह पीडा से तिलमिला उठा। उसने कहा, अरे यह क्या कर रहा है ? कुम्हार ने कहा-'मिच्छामि दुक्कडं । दबाता जाता और मिच्छामि दुक्कडं कहता जाता, अन्ततः तुल्लक को अपने मिच्छामि दुक्कड की भूल स्वीकार करनी पड़ी। जब तक पश्चाताप न हो, तब तक केवल वाणी की 'मिच्छामि दुक्कड' कुम्हार की मिच्छामि दुक्कडं है। यह मिच्छामि दुक्कडं श्रात्मा को शुद्ध तो क्या, प्रत्युत और अधिक अशुद्ध बना देती है। यह मार्ग पाप के प्रतिकार का नहीं, अपितु पाप के प्रचार का है। देखिए, प्राचार्य भद्रवाहु, इस सम्बन्ध में क्या कहते हैं:- . .जइ . य पडिक्कमियव्वं, . . - अवश्स काऊण- पावयं कम्म । - तं चेव न कायव्वं, .. तो होइ पए पडिक्कंती ॥६५॥ . -पाप कर्म करने के पश्चात् जब प्रतिक्रमण अवश्य करणीय है, ' तब सरल मार्ग तो यह है कि वह पाप कर्म किया ही न जाय । प्राध्यात्मिक दृष्टिं से वस्तुतः यही सच्चा प्रतिक्रमण है। -- . . . . जे दक्कडे तिमिच्छा. - - - --..: तें भुजों कारणं अपूरतो। ... तिविहेण . पंडिक्कतो, .. • तस्स खतु दुक्कडं मिच्छा ॥६८४i -जो साधक त्रिविध योग से प्रतिक्रमण करता है, जिस पाप के लिए

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