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प्रतिक्रमण पर जन-चिन्तन पापाचरण एक शल्य है, जो उसे बाहर न निकाल कर मन में ही छिपाए रहता है, वह अन्दर अन्दर पीड़ित रहता है, बर्बाद होता है।
प्रतिक्रमण संयम के छेदों को बन्द करने के लिए है। प्रतिक्रमण से पाश्रव रुकता है, संयम में सावधानता होती है, फलतः चारित्र की विशुद्धि होती है।
सरलहृदय निष्कपट साधक ही शुद्ध हो मकता है। शुद्ध मनुष्य के अन्तःकरण में ही धर्म ठहर सकता है। शुद्ध हृदय साधक, घी से सिंचित अमि की तरह शुद्ध होकर परम निर्वाण अर्थात् उकष्ट शान्ति को प्राप्त होता है।
श्रात्म-दोषों की आलोचना करने से पश्चात्ताप की भट्टी सुलगती है। और उस पश्चात्ताप की भट्टी में सर दोषों को जलाने के बाद साधक परम वीतराग भाव को प्राप्त करता है।
-भगवान महावीर तू अपने किए पापों से अपने को ही मलिन बना रहा है। पाप छोड दे तो स्वयं ही शुद्ध हो जायगा। शुद्धि और अशुद्धि अपने ही हैं । अन्य मनुष्य अन्य मनुष्य को शुद्ध नहीं कर सकता।
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