Book Title: Aavashyak Digdarshan
Author(s): Amarchand Maharaj
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 198
________________ १६६ श्रावश्यक दिग्दर्शन सर्वोत्तम पालोचना वह है, जो बाहर से अनुभव कराने के बदले लोगो को वही अनुभव भीतर से करा देती है। श्रात्मा से बाहर मत भटको, अपने ही केन्द्र में स्थित रहो। -स्वामी रामतीर्थ __ यदि एक तरफ से या अपने एक अंग से तुम सत्य के सम्मुख होते हो और दूसरी तरफ से आसुरी शक्तियो के लिए अपने द्वार बरा-र खोलते जा रहे हो तो यह अाशा करना व्यर्थ है कि भगवत्प्रसाट शक्ति तुम्हारा साथ देगी । तुम्हे अपना मन्दिर स्वच्छ रखना होगा, यदि तुम चाहते हो कि भागवती शक्ति जागृत रूप से इसमे प्रतिष्ठित हो। पहले यह ढूंढ़ निकालो कि तुम्हारे अन्दर कौन-सी चीज है, जो मिथ्या या तमोग्रस्त है और उसका सतत त्याग करो। x यह मत समझो कि सत्य और मिथ्या, प्रकाश और अन्धकार, समर्पण और स्वार्थ-साधन एक साथ उस घर में रहने दिए, जायेंगे, जो गृह भगवान् को निवेदित किया गया हो। __~श्री अरविन्द योगी - चित्त जबतक गंगाजल की तरह निर्मल व प्रशान्त नहीं हो जाता, तबतक निष्कामता नहीं पा सकती। "अन्तर्वाह्य-भीतर व बाहर दोनो एक होना चाहिए । विस्मृति कोई बडा दोष है, ऐसा किसी को मालूम ही नहीं होता " परन्तु विस्मृति परमार्थ के लिए नाशक हो जाती है । व्यवहार में भी विस्मृति से हानि ही होती है, इसीलिए भगवान बुद्ध कहते हैं-'पमादो

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