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श्रावश्यक दिग्दर्शन
मन में शंका पैदा करता है और इस रूप में मिथ्यात्व की वृद्धि ही
प्राचार्य श्री भद्रवाहु स्वामी, आवश्यक नियुक्ति में, 'मिच्छा मि दुक्कड़ के एकेक अक्षर का अर्थ ही इस रूप में करते हैं कि यदि साधक मिच्छामि दुक्कड़ कहता हुआ उस पर विचार कर ले तो किर पापाचरण कर ही नहीं। 'मि'त्ति मिउमद्दवत्ते,
छत्ति य दोसाण छायणे होइ। 'मि' त्ति य मेराए ठिओ,
'दु' त्ति दुगुछामि अप्पाणं ॥६८६।। 'क' त्ति कर्ड में पावं,
'त्तिय डेवेमित उपसमेणं । एसो मिच्छा दुक्कड़,
पयक्खरत्थो समासेणं ॥६८७|| -'मि' का अर्थ मृदुता और मार्दवता है। काय नम्रता को मृदुता कहते हैं और भावनम्रता को मार्दवता । 'छका अर्थ असंयमयोगरूप दोषों को छादन करना है, अर्थात् रोक देना है। 'मि' का अर्थ मर्यादा है, अर्थार मैं चारित्ररूर मर्यादा में स्थित हूँ। 'दु' का अर्थ निन्दा है । 'मैं दुष्कृत करने वाले भूतपूर्व श्रात्मपर्याय की निन्दा करता हूँ।' 'क' का भाव पापकर्म की स्वीकृति है, अर्थात् मैंने पार किया है, इस रूप में अपने पारी को स्वीकार करना । 'ड' का अर्थ उपशम भाव के द्वारा पाप कर्म का प्रतिक्रमण करना है, पापक्षेत्र को लाँघ जाना है। यह संक्षा में मिच्छामि दुकडं पद का अक्षरार्थ है। ___हाँ तो संयम यात्रा के पथ पर प्रगति करते हुए यदि कहीं साधक से भून हो जाय, तो सर्वप्रथम उसके लिए अच्छे मन से पश्चात्तार होना चाहिए, फिर से उस भून की श्रावृत्ति न होने देने के लिए सतत सक्रिन प्रयन भी चालू हो जाना चाहिए । मन का साफ