Book Title: Aavashyak Digdarshan
Author(s): Amarchand Maharaj
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 182
________________ १८० श्रावश्यक-दिग्दर्शन पाठक विचार करते होंगे कि क्या मिच्छामि दुक्कड' कहने से ही सब पाप धुल जाते हैं ? यह क्या कोई छूमंतर है ? जो मिच्छामि दुक्कड़ कहा और सब पार हवा हो गए | समाधान है कि केवल कथन मात्र से ही पाप दूर हो जाते हों, यह बात नहीं है। शब्द में स्वयं कोई पवित्र श्रथवा अपवित्र करने की शक्ति नहीं है। वह जड़ है, क्या किसी को पवित्र बनाएगा। परन्तु शब्द के पीछे रहा हुअा मनका भाव ही सबसे बडी शक्ति है। वाणी को मन का प्रतीक माना गया है । अतः 'मिच्छामि दुक्कड' महावाक्य के पीछे जो आन्तरिक पश्चात्ताप का भाव रहा हुआ होता है, उसी में शक्ति है और वह बहुत बड़ी शक्ति है। पश्चात्ताप का दिव्य निर्भर आत्मा पर लगे पाप मल को बहाकर साफ कर देता है। यदि साधक परंपरागत निष्प्राण रूढि के फेर में न पड़कर, सच्चे मन से पापाचार के प्रति घृणा व्यक्त करे, पश्चात्ताप करे, तो वह पाप कालिमा को सहज ही धोकर साफ कर सकता है। आखिर आराध के लिए दिया जाने वाला तपश्चरण या अन्य किसी तरह का दण्ड भी तो मूल में पश्चात्ताप ही है । यदि मन में पश्चात्ताप न हो, और कठोर से कठोर प्रायश्चित्त बाहर में ग्रहण कर भी लिया जाय, तो क्या प्रात्मशुद्धि हो सकती है ! हर्गिज नहीं । दण्ड का उद्देश्य देह दण्ड नहीं है, अपितु मनका दण्ड है। और मन का दण्ड क्या है, अपनी भूल स्वीकार कर लेना, पश्चात्ताप कर लेना। यही कारण है कि जैन या अन्य भारतीय साहित्य में साधना के क्षेत्र में पाप के लिए प्रायश्चित्त का विधान किया है, दण्ड का नहीं। दण्ड प्रायः बाहर अटक कर रह जाता है, अन्तरंग में प्रवेश नहीं कर पाता, पश्चात्तार का झरना नहीं बहाता । दण्ड में दण्डदाता की ओर से बलात्कार की प्रधानता होती है। और प्रायश्चित्त साधक की स्वयं अपनी तैयारी है। वह अन्तहदय में अपने स्वयं के पाप को शोधन करने के लिए उल्लास है। अतः वह अपराधी को पश्चात्ताप के द्वारा भावुक बनाता है, विनीत बनाता है, सरल एवं निष्कपट बनाता है, दण्ड पाने वाले के समान धृष्ट

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