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'आवश्यक दिग्दर्शन , . इस प्रकार प्रतिदिन का प्रतिक्रमण केवल भूतकाल के दोषो को ही साफ नहीं करता है, अपितु भविष्य में भी साधक को पापों से बचाता है। ।
दूसरी बात यह है कि प्रतिदिन प्रतिक्रमण करते रहने से साधक में अप्रमत्त भाव की स्फूर्ति बनी रहती है। प्रतिक्रमण के समय पवित्र भावना का प्रकाश मन के कोने-कोने पर जगमगाने लगता है, और समभाव'का अमृत-प्रवाह अन्तर के मल को बहाकर साफ कर देता देता है । पप हुए हों या न हुए हो, परन्तु प्रतिक्रमण के समय सामायिक, चतुर्विशतिस्तव, वन्दन, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान की साधना तो हो ही जाती है। और यह साधना भी बड़ी महत्त्वपूर्ण है। छह अंश में से पॉच अंश की उपेक्षा किस न्याय पर की जा सकती है ? अतएव अधिक चर्चा में न उतर कर हम आचार्य हरिभद्र एवं जिनदास के शब्दों में यही कहना चाहते हैं कि प्रतिक्रमण तीसरी औषधि है । पूर्व पाप होगे तो वे दूर होगे, और यदि पूर्व पाप न हों, तो भी संयम की साधना के लिए बल मिलेगा, स्फूर्ति मिलेगी। की हुई साधना किसी भी अंश में निष्फल नहीं होती।