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१७६ . ., आवश्यक दिग्दर्शन
राजा ने कहा-चप्स, आप तो कृपा रखिए। अपने हाथों मृत्यु का निमन्त्रण कौन दे ? यह तो शान्ति मे बैठे हुए पेट मसल कर दर्द पैदा करना है।
दूसरे वैद्य ने कहा-राजन् ! मेरी औषधि, ठीक रहेगी। यदि कोई रोग होगा तो उसे नष्ट कर देगी, और यदि रोग न, हुआ तो न कुछ लाभ होगा, न कुछ हानि ।
- राजा ने कहा-आपकी औषधि तो राख मे घी डालने जैसी है। । यह आपकी औषधि भी मुझे नहीं चाहिए।
तीसरे वैद्य ने कहा-महाराज ! आप के पुत्र के लिए तो मेरी औषधि ठीक रहेगी। मेरी औषधि आप प्रतिदिन नियमित रूप से खिलाते रहिए । यदि कोई रोग होगा तो वह शीघ्र ही उसे नष्ट कर देगी।
और यदि कोई रोग न हुआ तो भविष्य में नया रोग न होने देगी, प्रत्युत शरीर की कान्ति, शक्ति और स्वस्थता में नित्य नई अभिवृद्धि करती रहेगी।
राजा ने तीसरे वैद्य की औषधि पसन्द की । राजपुत्र उस औषधि के नियमित सेवन से स्वस्थ, सशक्त और तेजस्वी होता चला गया ।
उक्त कथानक के द्वारा प्राचार्यों ने यह शिक्षा दी है कि प्रतिक्रमण प्रातः और सायंकाल में प्रति दिन आवश्यक है, दोष लगा हो तब भी और दोष न लगा हो तब भी। यदि कोई संयम-जीवन में हिसा असत्य श्रादि का अतिचार लग जाए तो प्रतिक्रमण करने से वह दोष दूर हो जाएगा और साधक पुनः अपनी पहले जैसी पवित्र अवस्था प्राप्त कर लेगा । दोष एक रोग है, और प्रतिक्रमण उसकी सिद्ध अचूक औषधि है। और यदि कोई दोष न लगा हो, तब भी प्रतिक्रमण करना आवश्यक है.। उस दशा मे दोषों के प्रति घृणा बनी रहेगी, संयम के प्रति 'सावधानता मंद न पड़ेगी, जीवन जागृत रहेगा, स्वीकृत चारित्र निरन्तर शुद्ध, पवित्र, निर्मल होता चला जायगा, फलतः भविष्य में भूल होने की संभावना कम हो जायगी।