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प्रतिक्रमण : आत्मपरीक्षण
१६६. लम्बी बात न करू । रूपक की भूमिका तैयार हो गई है। हमारा श्रात्मा भी इसी प्रकार युक्त प्रान्तका देहाती यात्री है । इसने भी अपने विचारो की खुरजी कधे पर डाल रखी हैं । आत्मा के कंचा और हाथ पैर आदि कहां है, इस. प्रश्न में मत उलझिए । मैं पहले ही बता चुका हूँ यह एक रूपक है।
हां, तो उस नुरजी में भरा क्या है ? आगे की ओर उसमें भर रक्खे हैं अपने गुण और दूसरों के दोष । - 'मै कितना गुणवान् हूँ ? कितनी क्षमा, दया और परोपकार की वृत्ति है मुझ में ? मैं तपस्वी हूँ, ज्ञानी हूँ, विचारक हूँ। कौनसा वह गुण है, जो मुझमें नहीं है ? मैंने अमुक की अमुक संकट कालमें सहायता की थी। मैं ही था, जो उस समय सहायता कर सका, सेवा कर सका, अन्यथा वह समाप्त हो गया होता । मातापिता, पति-पत्निी, बाल-बच्चे, नाते-रिश्तेदार, मित्र-परिजन, अडोसी-पडौसी सब मेरे उपकार' के ऋणी हैं । परन्तु ये सब लोग कितने नालायक निकले हैं ? कोई भी तो कृतज्ञता की अनुभूति नही रखता । सव दुष्ट हैं, वेईमान हैं, 'शैतान हैं । मतलबी कुत्ते ! वह देखो; कितना मूठ घोलता है ? कितना अत्याचार करता है ! उसके आस-पास सौ-सौ कोस तक दया की भावना नहीं है । पापाचार के सिवा उसके पास क्या है ? अकेला वही क्या, आज तो सारा संसार नरक की राह पर चल रहा है।' ऐसा ही कुछ अंट-संट भरा रक्खा है आगे की ओर । अतएव हर दम दृष्टि रहती है अपने सद्गुण और दूसरों के दोषों पर, अपनी अच्छाइयों और दूसरों की बुराइयो पर । ___ हॉ, तो पीठ पीछे की ओर क्या डाल रक्खा हैं ? आखिर खुरजी के पीठ पीछे के भाग में भी तो कुछ भर रक्खा होगा ? हाँ, वह भी ठसाठस भरा हुआ है अपने दोषों और दूसरों के गुणों से । अपने असत्य, अत्याचार, पापाचार आदि जो कुछ भी दोष हैं, दुर्गुण हैं, सब को पीठ पीछे के ओर डाल रक्खा है। वहाँ तक ऑखे नहीं पहुँचती। पता ही नहीं चलता कि आखिर मुझ में भी कुछ बुराइयाँ हैं, या सबकी सत्र