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प्रतिक्रमण : आत्मपरीक्षण श्रात्मा एक यात्री है। आज कल का नहीं, पचास-सौ वर्ष का नहीं; हजार दो हजार और लाख-दश लाख वर्ष का भी नहीं, अनन्त कालका है, अनादिकालका है । आज तक कहीं यह स्थायी रूप में जमकर नहीं बैठा है, घूमता ही रहा है। कहाँ और कत्र होगी यह यात्रा पूरी? अभी कुछ पता नहीं।
यह यात्रा क्यों नहीं पूरी हो रही है ? क्यो नही मानव श्रआत्मा अपने लक्ष्य पर पहुँच पा रहा है ? कारण है इसका । बिना कारण के तो कोई भी कार्य कथमपि नहीं हो सकता।
आप जानना चाहेंगे, वह कारण क्या है ? उत्तर के लिए एक रूपक है, जरा सावधानी के साथ इस पर अपने आपको परखिए और परखिए अपनी साधना को भी। जैन धर्म का सर्वस्व इस एक रूपक में श्राजाता है, यदि हम अपनी चिन्तन शक्ति का ठीक-ठीक उपयोग कर सके।
जब कभी युक्त प्रान्त के देहाती क्षेत्र में विहार करने का प्रसंग पडता है, तब देखा करते हैं कि सेकडों देहाती यात्री इधर से उधर आ जा रहे हैं और उनके कंधों पर पड़े हुए हैं थेले, जिन्हें वे अपनी भाषा में खुरजी कहते हैं । एक दो कपडे, पानी पीने के लिए लोटा डोर, और भी दो चार छोटी मोटी आवश्यक चीजें थले में डाली हुई होती हैं, कुछ आगे की ओर तो कुछ पीछे की ओर ।