Book Title: Aavashyak Digdarshan
Author(s): Amarchand Maharaj
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 175
________________ प्रतिक्रमण : आत्मपरीत्रण . १७३ आज तक अपने दोषों को तुमने पीठ पीछे डाल रक्खा था, अब तुम. उन्हें आगे की ओर ऑखो के सामने लाओ। अपने दोपों को देखने वाला सुधरता है, सवरता है। और अपने गुणों को देखने वाला बिगइता है, पतित होता है । स्वदोष-दर्शन अन्तर्विवेक जागृत करता है, फलतः दोषो को दूर कर सद्गुणो की ओर अग्रसर होने के लिए प्रेरणा प्रदान करता है। इसके विपरीत 'खगुणदर्शन'अहंकार को प्रेरणा देता है । फलतः साधक अपने को सहसा उच्च स्थिति पर पहुंचा हुआ समझ लेता है, जिसका परिणाम है प्रगति का रुक जाना, मार्ग का अन्धकाराच्छन्न हो जाना । स्वदोष-दर्शन ही तुम्हे साधक की विनम्र भूमिका पर पहुंचाएगा। भूल यदि भूल के रूप मे समझली जाय तो साधक का साधना क्षेत्र सम्यग् ज्ञान के उज्ज्वल आलोक से आलोकित हो उठता है, अज्ञानान्धकार सहसा छिन्न-भिन्न हो जाता है। हा, तो अपने आपको परखो और जांचो । मन का एक-एक कोना छान' डालो, देखो, कहाँ क्या भरा हुआ है ? छोटी से छोटो भूल को भी बारीकी से पकडो। प्रमेह-दशा को छोटो सो फुन्सी भी कितनी विषाक्त एवं भयकर होती है ? जरा भी उपेक्षा हुई कि बस जीवन से हाथ धो लेने पड़ते हैं । अपनी भूलो के प्रति उपेक्षित रहना, साधक के लिए महापाप है । वह साधक ही क्या, जो अपने मन के कोने-कोने को झाडबुहार कर साफ न करे। जैन धर्म का प्रतिक्रमण इसी सिद्धान्त पर आधारित है । स्वदोषदर्शन ही आगमिक भाषा मे प्रतिक्रमण है। अतएव नित्य प्रतिक्रमण करो, प्रातः सायं हर रोज प्रतिक्रमण करो। अपने दोषों की जो जितनी कठोरता से आलोचना करेगा, वह उतना ही सच्चा प्रतिक्रमण करेगा।" ___ बात कुछ लम्बी कर · गया हूँ। अब जरा समेट लू तो ठीक रहेगा, न ' क्या पर्युषण पर्व आदि पर प्रतिक्रमण करने वाले साथी मेरी बात पर कुछ लक्ष्य देंगे। यह मेरी अपनी बात नहीं है। यह बात है जैन धर्म की और जैन धर्म के अनन्तानन्त तीर्थकरों की । मैं समझता हूँ, आप मे से बहुतो ने वह खुरजी पलट ली होगी, आगे की पीछे और

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