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प्रतिक्रमण : जीवन की एक रूपता १६३ की परीक्षा करता है। जब तक इतना साहस न हो, मन का विश्लेषण करने की धुन न हो, जीवन का शव के समान निर्दय परीक्षण न हो, तब तक साधक जीवन की एक रूपता को किसी प्रकार भी प्राप्त नहीं कर सकता । जैन संस्कृति का प्रतिक्रमण मन, वाणी और कम के सन्तुलन को कदापि अव्यवस्थित नहीं होने देता। वह पश्चात्ताप के प्रवाह में पिछले सब दोषों को धोकर आगे के लिए कठोर दृढता के सुन्दर और शुद्ध जीवन का एक नया अध्याय खोलता है। प्रतिक्रमण का स्वर एक ही स्वर है, जो हजारों-लाखो वषों से श्रमण संस्कृति की अन्तर्वीणा पर झंकृत होता आया है-छूहूँ पिछला पाप से, नया न बॉधू कोय । __ जैन संस्कृति के अमर साधको ने मृत्यु के मुख में पहुँच कर भी कभी अपनी राह न बदली, जीवन की एकरूपता भंग न की, प्रतिक्रमण द्वारा प्राप्त होने वाली पवित्र प्रेरणा विस्मृत न की।
श्रावक अन्नक के सामने देवता खडा है, जहाज को एक ही झटके में समुद्र के अतल गर्भ में फेक देने को तैयार है। कह रहा है-'अपना धर्म छोड दो, अन्यथा परलोक यात्रा के लिए तैयार हो जाओ। छोडूंगा नहीं, समझ लो, म्या उत्तर देना है, हॉ या नर ? 'हॉ में जीवन है तो 'ना' मे मृत्यु ।
जीवन की एकरूपता का, प्रतिक्रमण की विराट साधना का वह महान् साधक हँसता है, मुसकराता है। उसकी मुसकराहट, वह मुसकराहट है, जिसके सामने मृत्यु की विभीषिका भी हतप्रभ हो जाती है। वह कहता है"अरे धर्म भी क्या कोई छोड़ने की चीज है ? धर्म तो मेरे अणु-अणु में रम गया है, मै छोड़ना चाहूँ तो भी वह नहीं छुट सकता । और यह मृत्यु ! इसका भी कुछ डर है ? तेरी शक्ति, संभव है, शरीर को दल सके। परन्तु अात्मा! अरे वहाँ तो तेरे जैसे लाखो-करोडों देव भी कुछ नही कर सकते । श्रात्मा अजर है, अमर है, अखण्ड है। तू अनन्त जन्म ले तब भी मेरी आत्मा का कुछ निगाड नहीं सकता। बा, मैं