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श्रावश्यक-दिग्दर्शन आपको अहिंसा एवं सत्य की साधना में लगाए रक्खे । उस के जीवन का धर्म दिन में अलग, रात में अलग, अकेले मे अलग, सभा में अलग, सोते में अलग, जागते में अलग, किसी भी दशा में कदापि अलगअलग नहीं हो सकता। सच्चे साधक क्षेत्र, काल और जनता को देख कर राह नहीं बदला करते । वे अकेले में भी उतने ही सच्चे और पवित्र रहेंगे, जितने कि हजारों-लाखों की भीड़ में। कैसा भी एकान्त हो, कैसी भी स्थिति अनुकूल हो, वे जीवन पथ से एक कदम भी इधर-उधर नहीं होते। , जैन-धर्म का प्रतिक्रमण, यही जीवन की एक रूपता का पाठ पढ़ाता है। यह जीवन एक संग्राम है, संघर्ष है । दिन और रात अविराम गति से जीवन की दौड-धूप चल रही है। सावधानी रखते हुए भी मन, वाणी और कर्म में विभिन्नता या जाती है, अस्तव्यस्तता हो जाती है । अस्तु, दिन में होने वाली अनेकता को सायंकाल के प्रतिक्रमण के समय एक रूलता दी जाती है और रात में होने वाली अनेकता को प्रातःकालीन प्रतिक्रमण के समय । साधक गुरुदेव या भगवान् की साक्षी से अपनी भटकी हुई आत्मा को स्थिर करता है, भूलों को ध्यान में लाता है, मन, वाणी और कर्म को पश्चात्ताप की आग मे डाल कर निखारता है, एक-एक दाग को सूक्ष्म निरीक्षण शक्ति से देखता है और धो डालता है। प्रतिक्रमण करने वालो की परम्परा में न जाने कितने ऐसे महान् साधक हो गए हैं, जो सांवत्सरिक आदि के पवित्र प्रसंगों पर हजारों जनता के सामने अपने एक-एक दोषों को स्पष्ट भाव से कहते चले गए हैं, मन के छुपे जहर को उगलते चले, गए हैं । लज्जा और शर्म किसे कहते हैं, कुछ परवाह ही नहीं । धन्य हैं, वे, जो इस प्रकार जीवन की एक रूपता को बनाए रख सकते हैं । मन का कोना-कोना छान डालना, उनके लिए साधना का परम लक्ष्य है । वे अपने जीवन को अपने सामने रखकर उसी प्रकार कठोरता से चीरफाड करते हैं, देखभाल करते हैं, जिस प्रकार एक डाक्टर शव