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कायोत्सर्ग आवश्यक की और न जाकर सांसारिक विषयभोगों की कल्पनाओं में ही उलझा रहता है तब उरविष्ट-निविष्ट कायोत्सर्ग होता है। यह कायोत्सर्ग नहीं, मात्र कायोत्सर्ग का दम्भ है।
उपर्युक्त कायोत्सर्ग-चतुष्टय में से साधक जीवन के लिए पहला और तीसरा कायोत्सर्ग ही उपादेय है। ये दो कायोत्सर्ग ही वास्तविक रूप में कायोत्सर्ग माने जाते हैं, इनके द्वारा ही जन्म-मरण का बन्धन कटता है और आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप में पहुँच कर वास्तविक प्राध्यास्मिक श्रानन्द की अनुभूति प्राप्त करता है।