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श्रावश्यकों का क्रम
१५१ स्वरूप में विशेषतया लीन हो जाते हैं । अतएव उनके लिए जड़ वस्तुओं के भोग का प्रत्याख्यान करना सहज स्वाभाविक हो जाता है।
जबतक सामायिक प्राप्त न हो- अात्मा समभाव में स्थित न हो, तब तक भावपूर्वक चतुर्विंशतिस्तव किया ही नहीं जा सकता। भला जो स्वयं समभाव को प्राप्त नहीं है, वह किस प्रकार रागद्वेषरहित समभाव में स्थित वीतराग पुरुषों के गुणों को जान सकता है और उनकी प्रशंसा कर सकता है ? अतएव सामायिक के बाद चतुर्विशति स्तव है।
चतुर्विशति स्तव करने वाला ही गुरुदेवों को यथाविधि वन्दन कर सकता है । क्योंकि जो मनुष्य अपने इष्ट देव वीतराग महापुरुषों के गुणों से प्रसन्न होकर उनकी स्तुति नहीं कर सकता है, वह किस प्रकार वीतराग तीर्थंकरों की वाणी के उपदेशक गुरुदेवों को भक्तिपूर्वक वन्दन कर सकता है ? श्रतएव वन्दन आवश्यक का स्थान चतुर्विशति स्तव के बाद रक्खा गया है।
वन्दन के पश्चात् प्रतिक्रमण को रखने का आशय यह है कि जो राग द्वेष रहित समभावों से गुरुदेवों की स्तुति करने वाले हैं, वेही गुरुदेव की साक्षी से अपने पापों की आलोचना कर सकते हैं, प्रतिक्रमण कर सकते हैं । जो गुरुदेव को वन्दन ही नहीं करेगा, वह किस प्रकार गुरुदेव के प्रति बहुमान रक्खेगा और अपना हृदय स्पष्टतया खोल कर कृत पापों की आलोचना करेगा ?
प्रतिक्रमण के द्वारा व्रतों के अतिचार रूप छिद्रों को बंद कर देने वाला, पश्चात्ताप के द्वारा पाप कर्मों की निवृत्ति करने वाला साधक ही कायोत्सर्ग की योग्यता प्राप्त कर सकता है । जब तक प्रतिक्रमण के द्वारा पापों की आलोचना करके चित्त शुद्धि न की जाय, तब तक धर्म ध्यान या शुक्ल ध्यान के लिए एकाग्रता संपादन करने का, जो कायोत्सर्ग का उद्देश्य है, वह किसी तरह भी सिद्ध नहीं हो सकता । अालोचना के द्वारा चित्त शुद्धि किए बिना जो कायोत्सर्ग करता है, उसके मुंह से चाहे