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श्रावश्यक दिग्दर्शन
(७) परिमारणकृत-दत्ती, ग्रास, भोज्य द्रव्य तथा गृह । श्रादि की संख्या का नियम करना, परिमाणकृत है। जैसे कि इतने गृहों से तथा इतने पास से अधिक भोजन नहीं लेना ।
(८) निरवशेप-अशनादि चतुर्विध याहार का त्याग करना, निरवशेष तप है । निरवशेष का अर्थ है, पूर्ण ।
() सांकेतिक-संकेतपूर्वक किया जाने वाला प्रत्याख्यान, सांकेतिक है। मुट्ठी बाँधकर या गॉठ बॉधकर यह प्रत्याख्यान करना कि जब तक यह बंधी हुई है तब तक मैं श्राहार का त्याग करता हूँ। आज कल किया जाने वाला छल्ले का प्रत्याख्यान भी सांकेतिक प्रत्याख्यान में अन्तर्भूत है। इस प्रत्याख्यान का उद्देश्य अपनी सुगमता के अनुसार विरति का अभ्यास डालना है।
(१०) अद्धा प्रत्यास्थान-समय विशेष की निश्चित मर्यादा वाले नमस्कारिका, पौरुषी श्रादि दश प्रत्याख्यान, अद्धा प्रत्याख्यान कहलाते हैं । श्रद्धा काल को कहते हैं।
-भगवतीसूत्र ७ । २। साधना क्षेत्र में प्रत्याख्यान की एक महत्त्वपूर्ण साधना है। प्रत्याख्यान को पूर्ण विशुद्ध रूप से पालन करने में ही साधक की महत्ता है। छह प्रकार की विशुद्वियों से युक्त पाला हुया प्रत्याख्यान ही शुद्ध और दोष रहित होता है । ये विशुद्धियाँ इस प्रकार हैं :
(१) श्रद्धान विशुद्धि-शास्त्रोक्त विधान के अनुसार पॉन महाव्रत तथा बारह व्रत आदि प्रत्याख्यान का विशुद्ध श्रदान करना, श्रद्धान विशुद्धि है।
(२)ज्ञान विशुद्धि-जिन कल्प, स्थविरकल्प, मूल गुण, उत्तर गुण तथा प्रातकाल अादि के रूप में जिस समय जिसके लिए जिग प्रत्याख्यान का जैसा स्वरूप होता है, उसको ठीक-ठीक वैसा ही जानना, ज्ञान विशुद्धि है।
(३) विनय विशुद्धि-मन, वचन और काय से संयत होते हुए,