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प्रत्याख्यान आवश्यक
प्रत्याख्यान के समय जितनी वन्दनाओं का विधान है, तदनुसार वन्दना करना विनय विशुद्धि है।
(४) अनुभाषणा शुद्धि-प्रत्याख्यान करते समय गुरु के सम्मुख हाथ जोड़ कर उपस्थित होना; गुरु के कहे अनुसार पाठों को ठीक-ठीक बोलना; तथा गुरु के 'वोसिरेहि' कहने पर 'पोसिरामि' चगैरह यथा समय कहना, अनुभाषणा शुद्धि है।
(५) अनुपालना शुद्धि भयंकर वन, दुर्मिक्ष, बीमारी आदि में __ भी व्रत को उत्साह के साथ ठोक-ठीक पालन करना, अनुपालना शुद्धि है।
(६) भाव विशुद्धि-राग, द्वष तथा परिणाम रूप दोषों से नहित पवित्र भावना से प्रत्याख्यान करना तथा पालना, भाव विशुद्धि है।
(१) प्रत्याख्यान से अमुक व्यक्ति की पूजा हो रही है अतः मै भी ऐसा ही प्रत्याख्यान करूं-यह राग है।
(२) मैं ऐसा प्रत्याख्यान करूँ, जिससे सब लोग मेरे प्रेति ही अनुरक्त हो जायें; फलतः अमुक साधु का फिर आदर ही न होने पाए, यह द्वेष है।
(३) ऐहिक तथा पारलौकिक कीर्ति, यश, वैभव प्रादि किसी भी फल की इच्छा से प्रत्याख्यान करना; परिणाम दोष है।
यावश्यक नियुक्ति' १ उक्त प्रत्याख्यान शुद्धियों का वर्णन स्थानांग सूत्र के पचम स्थान मे भी है, परन्तु वहाँ ज्ञान शुद्धि का उल्लेख न होकर शेष पाँच का ही उल्लेख है। श्रद्धान शुद्धि मे ही ज्ञान शुद्धि का अन्तर्भाव हो जाता है, क्योंकि श्रद्धान के साथ नियमतः ज्ञान ही होता है, अज्ञान नहीं। नियुक्तिकार ने स्पष्ट प्रतिपत्ति के लिए जान शुद्धि का स्वतंत्र रूपेण उल्लेख कर दिया है। पंचविहे पच्चक्खाणे ५० तं० सद्दहणासुद्ध, विणयसुद्ध, अणु भासणासुन्द्रे, अणु पालणासुद्धे, भावसुद्धे ।'
-स्थानांग ५। ६६ ।