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प्रति क्रमण आवश्यक
(५) यत्किंचिन्मिथ्या प्रतिक्रमण-संयम में सावधान रहते , हुए भी साधु से यदि प्रमादवश तथा आवश्यक प्रवृत्तिवश असंयमरूप कोई आवरण हो जाय तो-अपनी भून को स्वीकार करते हुए उसी समय पश्चात्ताप पूर्वक 'मिक्छामि दुक्कडं' देना, यक्तिचिन्मिथ्या प्रतिक्रमण है ।
(६) स्वप्नान्तिक प्रतिक्रमण-सोकर उठने पर किया जाने ! वाला प्रतिक्रमण स्वप्नान्तिक प्रतिक्रमण है । अथवा विकारवासना रूप कुस्वान देखने पर उसका प्रतिक्रमण करना स्वप्नान्तिक प्रतिक्रमण है। '
आचार्य भद्रबाहु ने आवश्यक नियुक्ति मे प्रतिक्रमण के प्रतिचरणा श्रादि पाठ पर्याय कथन किए हैं। यद्यपि आठों पर्याय शब्द-रूप में पृथक् पृथक् हैं, परन्तु भाव की दृष्टि से प्रायः एक ही हैं । पडिकमणं पडियरणा,
परिहरणा वारणा नियत्ती य । निन्दा गरिहा सोही
पडिकमणं अट्ठहा होइ ॥१२३३।। (१) प्रतिक्रमण-'प्रति' उपसर्ग है 'क्रमु' धातु है। प्रति का अर्थ प्रतिकूल है, और क्रम् का अर्थ पदनिक्षेत्र है। दोनों का मिलकर अर्थ होता है कि जिन कदमो से बाहर गया है उन्ही कदमों से वापस लौट आए । जो साधक किसी प्रमाद के कारण सम्यग दर्शन, सम्धग ज्ञान और सम्यक् चारित्ररूप स्वस्थान से हटकर मिथ्यात्व, अज्ञान एवं असंयमरूप पर स्थान मे चला गया हो, उसका पुनः स्वस्थान मे लौट आना प्रतिक्रमण है। पापक्षेत्र से वापस आत्म शुद्धि क्षेत्र में लौट पाने को प्रतिक्रमण कहते हैं। प्राचार्य जिनदास कहते हैं-'पडिक्क्रमणं पुनरावृत्तिः ।
(२)प्रतिचरणा-अहिंसा, सत्य आदि संयमक्षेत्र में भली प्रकार विचरण करना, अग्रसर होना, प्रतिचरणा है । अर्थात् असंयम क्षेत्र से दूर-दूर बचते हुए सावधानतापूर्वक संयम को विशुद्ध एवं निर्दोष पालन