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आवश्यक दिग्दर्शन •
कायोत्सर्ग के द्वारा बन्द होती है, तब तक कायोत्सर्ग का पालम्बन हित. कर है। और यदि वह परिणति परिस्थितिवश कायोत्सर्ग समाप्त करने से बन्द होगी हो तो वह मार्ग भी उपादेय है। केवल अपनी रक्षा ही नहीं, यदि कभी दृमरे जीवों को रक्षा के लिए भी कायोत्सर्ग बीच मे खोलना . पडे तो वह भी आवश्यक है । ध्यानस्थ साधक के सामने पंचेन्द्रिय जीवों : का छेदन-भेदन होता हो, किसी को सर्प आदि डस ले तो तात्कालिक सहायता करने के लिए जैन परम्परा में ध्यान खोलने की स्पष्टतः अाज्ञा है। क्योंकि वह रक्षा का कार्य कायोत्सर्ग से भी अधिक श्रेष्ठ है ।.. श्राचार्य भद्रबाहु आवश्यक नियुक्ति में इन्ही ऊपर की भावनाओं का स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैंअगणीयो छिदिज्ज वा,
वोहियखोभाइ दीहडको वा। श्रागारहि अभग्गो,
उस्सग्गो एवमाईहिं' ॥१५१६ ॥ . हॉ, तो जैन धर्म विवेक का धर्म है। जो भी स्थिति विवेक पूर्णहो, लाभपूर्ण हो, प्रातरौद्र दुर्सान की परिणति को कम करने वाली हो, उसी स्थिति को अपनाना जैन धर्म का अादर्श है। पाठक इस का विचार रखे तो अधिक श्रेयष्कर होगा। दुराग्रह में नहीं, सदाग्रह में ही जैन-धर्म की यात्मा का निवास है।
अागम साहित्य में कायोत्सर्ग के दो भेद किए है---द्रव्य और भाव । द्रव्य कायोत्सर्ग का अर्थ है शरीर की चेटानों का निरोध करके एक स्थान पर-जिन मुद्रा से निश्चल एवं निःस्पन्द स्थिति में खड़े रहना । यह साधना के क्षेत्र में आवश्यक है, परन्तु भाव के साथ । केवल:
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१-यह गाथा, , आगारसूत्रान्तर्गत 'एवमाइएहि श्रागारेहिं! इस पद के स्पष्टीकरण के लिए कही गई है।