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श्रावश्यक दिग्दर्शन __-चाहे कोई भक्ति भाव से चंदन लगाए, चाहे कोई पवश बसौले से छीले, चाहे जीवन रहे, चाहे इसी क्षण मृत्यु भा जाए; परन्तु जो साधक देह में श्रासक्ति नहीं रखता है, उक्त सब स्थितियों में सम चेतना रखता है, वस्तुतः उसी का कायोत्सर्ग शुद्ध होता है। तिविहागुपसग्गाणं,
दिव्याणं माणुसाण तिरियाणं । सम्ममहियासणाए,
काउस्सग्गो हवइ सुद्धो॥ १५४६ ।। -जो साधक कायोत्सर्ग के समय देवता, मनुष्य तथा तिर्यञ्चसम्बन्धी सभी प्रकार के उपसगों को सम्यक रूप से सहन करता है, उसका कायोत्सर्ग ही वस्तुतः शुद्ध होता है। काउस्सग्गे जह सुट्रियस्स,
भज्जति अंग मंगाई। इय भिंदति सुविहिया,
अटविहं कम्म-संघायं ॥ १५५१ ।। . -जिस प्रकार कायोत्सर्ग म निःस्पन्द खड़े हुए अंग-अंग टूटने
लगता है, दुखने लगता है, उसी प्रकार सुविहित साधक कायोत्सर्ग के द्वारा आठों ही कर्म समूह को पीडित करते हैं एवं उन्हें नष्ट कर डालते हैं। अन्नं इमं सरीर
अन्नो जीवत्ति कय-बुद्धी। दुक्ख परिकिलेसफर
छिंद ममत्तं सरीराभो ॥ १५५२ ।। -कायोत्सर्ग में शरीर से सब दुःखो की जड़ ममता का सम्बन्ध तोड़ देने के लिए साधक को यह सुदृढ संकल्प कर लेना चाहिए कि शरीर ओर है, ओर 'आत्मा ओर है। . .