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यावश्यक दिग्दर्शन
और आत्मा के सम्बन्ध में विचार करना होता है कि-"यह शरीर और है, और मैं और हूँ। मैं अजर-अमर चैतन्य यात्मा हूँ, मेरा कभी नाश नहीं हो सकता। शरीर का क्या है, आज है, कल न • रहे । अस्तु, मैं इस क्षणभंगुर शरीर के मोह में अपने कर्तव्यों से क्यों पराउमुख बनें ? यह मिट्टी का पिंड मेरे लिए एक खिलौना भर है । जब तक यह खिलौना काम देता है, तब तक मैं इससे काम. लूँगा, डट कर काम लूंगा। परन्तु जब यह टूटने को होगा, या टूटेगा तो मैं नहीं रोऊँगा । मैं रोऊँ भी क्यों ? ऐसे ऐसे विलौने अनन्त-अनन्त ग्रहण किए हैं, क्या हुया उनका ? कुछ दिन रहे टूटे और मिट्टी में मिल गाए । इस खिलौने की रक्षा करना मेरा कर्तव्य है। व्यर्थ ही शरीर की हत्या करना, अपने आप में कोई प्रादर्श नहीं है। वीतराग देव व्यर्थ ही शरीर को दण्ड देने में, उसकी हत्या करने में पाप मानते हैं।' परन्तु जब यह शरीर कर्तव्य पथ का गेडा बने, जीवन का मोह दिखाकर श्रादर्श से च्युत करे तो मैं इस रागिनी को सुनने वाला नहीं हूँ। मैं शरीर की अपेक्षा प्रात्मा की ध्वनि सुनना अधिक पसंद करता हूँ। शरीर मेरा वाहन है। मैं इस पर सवार होकर. जीवन-यात्रा का लम्बा पथ तय करने के लिए आया हूँ। परन्तु कभी कभी यह दुष्ट अश्व उलटा मुझ पर सवार होना चाहता है । यदि, यह घोडा मुझ पर सवार हो गया तो कितनी अभद्र बात होगी ? नही, मैं ऐसा कभी नहीं होने दूंगा।" यह है कायोत्सर्ग की मूल भावना । प्रति दिन नियमेन शरीर के ममत्वत्याग का अभ्यास करना, साधक के लिए कितना अधिक महत्त्व पूर्ण है। जो साधक निरन्तर ऐसा कायोत्सर्ग करते रहेगे, ध्यान करते रहेंगे, वे' समय पर अंवश्य शरीर की मोहमाया से बच सकेगे और अपने जीवन के महान् लक्ष्य को प्राप्ति मे सफल हो सकेंगे। प्राचार्य सकल कीर्ति कहते हैं--- . ... ममत्वं देहतो नश्येत्,
"कायोत्सर्गण धीमताम् । '