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श्रावश्यक दिग्दर्शन समय तक अपने शरीर को वोसिरा कर जिनमुद्रा से खड़ा हो जाता है, वह उस समय न संसार के बाह्य पदार्थों में रहता है, न शरीर में रहता है, सब योर से सिमट कर अात्मस्वरूप में लीन हो जाता है। कायोत्सर्ग अन्तर्मुख होने की साधना है। अस्तु बहिर्मुख स्थिति से साधक जब अन्तर्मुख स्थिति में पहुंचता है तो वह रागद्वेप से बहुत ऊपर उठ जाता है, निःसंग एवं अनासक्त स्थिति का रसास्वादन करता है, शरीर तक की मोहमाया का त्याग कर देता है। इस स्थिति में कुछ भी संकट पाए, उसे समभाव से सहन करता है। सरदी हो, गर्मी हो, मच्चर हो, दंश हो, सत्र पीडायों को सममाव से सहन करना ही काय का त्याग है। कायोत्सर्ग का उद्देश्य शरीर पर की मोहमाया को कम करना है। यह जीवन का मोह, शरीर की ममता बड़ी ही भयंकर चीज है। साधक के लिए तो विप है। साधक तो क्या, साधारण संमारी प्राणी भी इस दल-दल में फंस जाने के बाद किसी अर्थ का नहीं रहता। जो लोग कर्तव्य की अपेक्षा शरीर को अधिक महत्त्य देते है, शरीर की मोहमाया में रचे-पचे रहते हैं, दिन-रात उसी के सजाने-सँवारने में लगे रहते हैं, वे समय पर न अपने परिवार की रक्षा कर सकते हैं, और न समाज एवं राष्ट्र की ही। वे भगोड़े संकट काल में अपने जीवन को लेकर भाग खड़े होते हैं, इस स्थिति में परिवार, समाज, राष्ट्र की कुछ भी दुर्गति हो, उनकी बला से ! अाज भारत इसी स्थिति में पहुंच गया है । यहाँ सर्वत्र भगोड़े ही राष्ट्र और धर्म के जीवन को बरबाद कर रहे हैं। उठ कर संघर्ष करने की, और संघर्ष करते-करते अपने आपको कर्तव्य के लिए होम देने की यहाँ हिम्मत ही नहीं रही है। श्राज देश के प्रत्येक स्त्री-पुरुष को कायोत्सर्ग-सम्बन्धी शिक्षा लेने की आवश्यकता है। शरीर और आत्मा को अलग-अलग समझने की कला ही राष्ट्र में कर्तव्य की चेतना जगा सकती है। जह चेतन का भेद समझे विना सारी साधना मृत साधना है। जीवन के