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प्रति क्रमण अावश्यक
१२३ प्रत्याख्यान के द्वारा भविष्यत्कालीन अशुभ योगो की निवृत्ति होती है. अतः यह भविष्यकालीन प्रति क्रमण माना जाता है। भगवती , सूत्र में भी कहा है "अइयं पडिक्कमेइ, पडुप्पन्नं संवरेइ, अणागयं पञ्चक्खाइ।
विशेषकाल की अपेक्षा से प्रतिक्रमण के पॉच भेद भी माने गए है-दवसिक, रात्रिक पाक्षिक, चातुर्मासिक, और सांवत्सरिक ।
(१) देवसिक-प्रतिदिन सायंकाल के समय दिन भर के पापो की आलोचना करना।
(२) रात्रिक-प्रतिदिन प्रातःकाल के समय रात्रि भर के पापों की आलोचना करना।
(३) पाक्षिक-महीने मे दो बार अमावस्या और पूर्णिमा के दिन पक्ष भर के पापों की आलोचना करना।
(४) चातुर्मासिक-चार चार महीने के बाद कार्तिकी पूर्णिमा, ' फाल्गुनी पूर्णिमा, श्राषाढी पूर्णिमा को चार महीने भर के पापो की आलोचना करना।
(५) सांवत्सरिक-प्रत्येक वर्ष प्रतिक्रमणकालीन आषाढ़ी पूर्णिमा से पचास दिन बाद भाद्रपदशुक्ला पंचमी के दिन वर्ष भर के पापों की आलोचना करना ।
एक प्रश्न है कि जब प्रतिदिन प्रातः सायं दो बार तो प्रतिक्रमण हो ही जाता है, फिर ये पाक्षिक आदि प्रतिक्रमण क्यो किए जाते हैं ? .देवसिक और रात्रिक ही तो अंतिचार होते हैं, और उनकी शुद्धि प्रतिदिन
देवसिक तथा रात्रिक प्रतिक्रमण के द्वारा हो ही जाती है ? - ---'प्रतिक्रमण-शब्दो हि अत्राशुभयोगनिवृत्तिमात्रार्थः
सामान्यतः परिगृह्यते, तथा च सत्यतीतविषयं प्रतिक्रमणं निन्दाद्वारेण अशुभयोग निवृत्तिरेवेति, प्रत्युत्पन्न विषयमपि संवरद्वारेण अशुभयोग निवृगिरेवं, अनागतविषयमपि प्रत्यारयानद्वारेण अशुभयोगनिवृत्ति
-प्राचार्य हरिभद्र
रेवेति-न दोषयमपि प्रत्यासवरद्वारेण अशा