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श्रावश्यक दिग्दर्शन का होगा क्या ? कोई पुत्र नही, जो इस धन का उत्तराधिकारी हो । एक भी पुत्र होता तो मै सुखी हो जाता, मेरा जीवन सफल हो जाता । आज विना पुत्र के घर सूना-सूना है, मरघट-सा लगता है । पुत्र ! हा पुत्र ! घर का दीपक !
परन्तु पाइए, यह राजा उग्रसेन है और यह राजा श्रोणिक ! पुत्र सुख के सम्बन्ध में इनसे पूछिए, क्या कहते हैं ? दोनों ही नरेश कहते हैं कि "बाबा, ऐसे पुत्रों से तो बिना पुत्र ही अच्छे। भूल में हैं वे लोग, जो पुत्रपणा में पागल हो रहे हैं। हमें हमारे पुत्रो ने कैद में डाला, काठ के पिंजडे मे बन्द किया । न समय पर रोटी मिली, न कपडा और न पानी ही! पशु की भॉति दुःख के हाहाकार में जिन्दगी के दिन गुजारे हैं । पुत्र और परिवार का सुख एक कल्पना है, विशुद्ध भ्रान्ति है ।" ___ सच्चा सुख है अात्मा में | सुख का झरना अन्यत्र कही नही, अपने अन्दर ही बह रहा है । जब प्रात्मा बाहर भटकता है, परपरिणति में जाता है तो दुःख का शिमर होता है। और जब वह लौट कर अपने अन्दर में ही आता है, वैराग्य रसका पास्वादन करता है, संयम के अमृत प्रवाह में अवगाहन करता है, तो सुख, शान्ति और आनन्द का ठाठे मारता हुआ क्षीर सागर अपने अन्दर ही मिल जाता है । जब तक मनुष्य वस्तुयों के पीछे भागता है, धन, पुत्र, परिवार एवं भोगवासना आदि की दल-दल में फंसता है, तब तक शान्ति नहीं मिल सकती। यह वह भाग है, जितना ईधन डालोगे, उतना ही बढेगी, बुझेगी नहीं । वह मूर्ख है, जो बाग में घी डालकर उसकी भूख बुझाना चाहता है । जत्र भोग का त्याग करेगा, तभी सच्चा आनन्द मिलेगा। सच्चा सुख भोग में नहीं, त्याग में है; वस्तु में नहीं, आत्मा में है। पारुणिकोपनिषद् में कथा अाती है कि प्रजापति के पुत्र प्रारुणि ऋषि कही जारहे थे। क्या देखा कि एक कुत्ता मास से सनी हुई हड्डी मुख में लिए कहीं जा रहा था। हड्डी को देख कर कई कुत्तों के मुख में पानी