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श्रावश्यक दिग्दर्शन (४) क्षेत्र सामायिक-चाहे कोई सुन्दर बाग हो, या कॉटों से भरी हुई ऊसर भूमि हो, दोनों में समभाव रखना, क्षेत्र सामायिक है। ____सामायिक-धारी आत्मा विचारता है कि चाहे राजधानी हो, चाहे जंगल हो, दोनों ही पर क्षेत्र हैं । मेरा क्षेत्र तो केवल श्रात्मा है, अतएव . मेरा उनमें रागद्वेष करना, सर्वथा अयुक्त है। अनात्मदर्शी ही अपना निवास स्थान गॉव या जंगल समझते हैं, आत्मदर्शी के लिए तो-अपना श्रात्मा ही अपना निवास स्थान है। निश्चय नय की दृष्टि में प्रत्येक ' पदार्थ अपने में ही केन्द्रित है। जड, जड में रहता है, और आत्मा, श्रात्मा में रहता है।
(५) काल सामायिक चाहे वर्षा हो, शीत हो, गर्मी हो तथा अनुकूल वायु से सुहावनी वमन्त-ऋतु हो, या भयंकर ऑधी बवंडर हो, किन्तु सब अनुकूल तथा प्रतिकूल परिस्थितियों में समभाव रखना काल सामायिक है।
सामायिक धारी प्रात्मा विचारता है कि ठण्डक, गरमी, वसन्त, वर्धा आदि सब पुद्गल के विकार हैं। मेरा तो इन से स्पर्श भी नहीं हो सकता । मैं अमूर्त हूँ, अरूप हूँ। मुझसे भिन्न सभी भाव वभाविक हैं, अतः मुझे इन परभावजनित वैभाविक भावों में किसी प्रकार का भी राग-द्वेष नहीं करना चाहिए ।
(६) भाव सामायिक-समस्त जीवों पर मैत्रीभाव धारण करना, किसी से किसी प्रकार का भी वर विरोध नही रखना भाव सामायिक है। __ प्रस्तुत भाव सामायिक ही वास्तविक उत्तम सामायिक है। पूर्वोक्त सभी सामायिकों का इसी में अन्तर्भाव हो जाता है। आध्यात्मिक संयमी जीवन की महत्ता के दर्शन इसी सामायिक में होते हैं । भाव सामायिकधारी आत्मा विचारता है कि मै अजर, अमर, चित्चमत्कार चैतन्य{ स्वरूप हूँ । वैभाविक भावों से मेरा कुछ भी बनता-बिगड़ता नहीं है ।