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आवश्यक-दिग्दर्शन. भगं०.८। १० । क्या हम प्रभु महावीर के उक्त प्रवचन पर श्रद्धारखते हैं ? यदि रखते हैं तो सामायिक से .पराड्भुख होना, हमारे लिए किसी क्षण भी हितावह नहीं है। हमारे जीवन की सॉस-सॉस पर सामायिक की अन्तर्वीणा का नाद झकृत-रहना चाहिए, तभी हम अपने जीवन को मंगलमय बना सकते हैं। . .
जैन-धर्म का सामायिक-धर्म बहुत विराट एवं व्यापक धर्म है। यह आत्मा का धर्म है, अतः सामायिक ने किसी की जात पूछता है, न देश पूछता है, न रूप-रंग पूछता है, और न मत एवं पंथ ही । जैनधर्म का सामायिक साधक से विशुद्ध जैनत्व की बात पूछता है, उस जैनत्व की, जो जात पॉत, देश और पंथ से ऊपर की भूमिका है। यही कारण है कि माता मरुदेवी ने हाथी पर बैठे हुए सामायिक की साधना की, ओर मोक्ष में पहुंच गई । इला-पुत्र एक नट था, जो बाँस पर चढ़ा हुअा नाच रहा था। उसके अन्तर्जीवन में समभाव की एक नन्ही सी लहर पैदा हुई, वह फैली और इतनी फैली कि अन्तमुहूर्त मे ही बॉस पर चढ़े-चढ़े केवल ज्ञान हो गया। यह चमत्कार है सामायिक का! सामायिक किसी अमुक वेष-विशेष में ही होता है, अन्यत्र नहीं, यह जैनधर्म की मान्यता नहीं है । सामायिक रूप जैनत्व वेष मे नहीं, समभाव में है, माध्यस्थ्य भाव मे है । राग-द्वेष के प्रसंग पर मध्यस्थ रहना ही सामायिक है, और यह मध्यस्थता अन्तर्जीवन की ज्योति है। इस ज्योति को किसी वेष-विशेष मे बॉधना सामायिक का अपमान करना है। और यह सामायिक का अपमान स्वयं जैन-धर्म का अपमान है। भगवती-सूत्र में इसी चर्चा को लेकर एक महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर है । वह द्रव्यलिंग की अपेक्षा भावलिंग को अधिक महत्त्व देता है । द्रव्यलिंग कोई भी हो, सामायिक की ज्योति प्रस्फुरित हो सकती है। हॉ, भावलिंग कषायविजय-रूप जैनत्व सर्वत्र एक रस, होना चाहिए । इसके विना सब शून्य है, अन्धकार है।