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चतुर्विंशतिस्तव अावश्यक हुई चिनगारी घास के ढेर को भस्म कर डालती है। कमों का नाश हो जाने के बाद अात्मा जब पूर्ण शुद्ध निर्मल हो जाता है, तब वह भक्त की कोटि से भगवान की कोटि में पहुँच जाता हैं। जैन-धर्म का आदर्श है कि प्रत्येक आत्मा अपने अन्तरंग स्वरूप की दृष्टि से परमात्मा ही है, भगवान् ही है । यह कर्म का, मोहमाया का परदा ही आत्माओं के अखण्ड तेज को अवरुद्ध किए हुए है। जब यह परदा उठा दिया गया तो फिर कुछ भी अन्तर नहीं रहता।
शङ्का हो सकती है कि तीर्थकर वीतराग देवों के स्मरण तथा स्तुति से हम पापों के बन्धन कैसे काट सकते हैं ? किस प्रकार प्रात्मा से परमात्मा के पद पर पहुँच सकते हैं ? शंका जितनी गूढ है, उतनी ही अानन्दप्रद भी है। श्राप देखते हैं बालक नगे सिर गली में खेल रहा है। वह अपने विचारों के अनुसार जिस बालक को अच्छा समझता है, जिस खेल को ठीक जानता है, उसी का अनुकरण करने लगता है । दूसरे बच्चों को जो कुछ करते देखता है, उसी अोर उमके हाथ पैर भी चचल हो उठते हैं । बालक बडा हुआ, पाठशाला गया, वहाँ अपने सहपाठियों में से किसी को आदर्श विद्यार्थी जान कर उसका अनुकरण करने लगता है। यह देखी हुई बात है कि छोटी श्रेणियों के लिए बडी श्रोणियो के विद्यार्थी प्राचार-व्यवहार में नेता होते हैं। आगे चल कर बडे लडको के लिए उनके अध्यापक आदर्श बनते हैं । मनुष्य, विना किसी मानसिक श्रादर्श के क्षण भर भी नहीं रह सकता। मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन, मानसिक श्रादशों के प्रति ही गतिशील है,
और तो क्या मरते समय भी मनुष्य के जैसे संकल्प होते हैं वैसी ही गति आगे मिलती है । यह लोकोक्ति अक्षरशः सत्य है कि मनुष्य जैसा सोचता है वैसा ही बन जाता है। 'श्रद्धामयोऽयं पुरुप यो यच्छद्धः स एव सः।' हॉ तो, इसी प्रकार उपासक भी अपने अन्तहृदय मे यदि त्यागमूर्ति तीर्थकर देवों का स्मरण करेगा तो अवश्य ही उसका प्रान्मा भी अपूर्व अलौकिक त्याग-वराग्य की भावनाओं से आलोकित हो